सियासत में पैसा …. देश के हर बंदे को समझना होगा इस धंधे के चंदे का फंडा !

सियासत में पैसा: चंदा, धंधा और गोपनीयता… देश के हर बंदे को समझना होगा इस धंधे के चंदे का फंडा
स्वस्थ लोकतंत्र का सबसे कारगर हथियार खुलेपन की स्वतंत्रता है। इसे महात्मा गांधी के साधन-साध्य के सिद्धांत से समझा जा सकता है।

जनसेवा में कौन-कौन-सी चीजें गोपनीय हों-यह बहस उतनी ही पुरानी है, जितना जनमानस। लेकिन जनतंत्र से सेवा नीति के लिए आए जनसेवकों को गोपनीयता से क्या लाभ हो सकता है? गोपनीयता अगर केवल सत्ता लाभ के लिए ही हो, तो भी समाज इसको पचा सकता है। लेकिन गोपनीयता अगर भ्रष्टाचार का लाभ उठाने के लिए हो, तो समाज इसको कैसे देखेगा? माना जाता है कि तानाशाही शासन के लिए सबसे मजबूत हथियार गोपनीयता रहती है। लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र का सबसे कारगर हथियार खुलेपन की स्वतंत्रता है। इसका सीधा लेना-देना महात्मा गांधी के साधन-साध्य के सिद्धांत से समझा जा सकता है।

जब मिली-जुली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार का भ्रष्टाचार सबके सामने आया था, तो भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरे देश में रोष जागा था। जनता में इतना आक्रोश था कि वह सड़कों पर उतर आई थी। जनता ने इसके खिलाफ अहिंसक संघर्ष किया और यूपीए की सत्ता पलट दी।

राजनीतिक पार्टियों को चंदा पहले किन रास्तों से आता था, इसका पता नहीं चलता था। इसलिए वर्ष  2017 में भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाली नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) सरकार द्वारा राजनीतिक चंदे के लिए चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था का वादा दिया गया था। गोपनीय ढंग से चुनावी चंदे का यह खेल भी चलता रहता, अगर सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें दखल न दिया होता। आखिर जनता को अपनी सेवानीति के लिए राजनीतिक दलों द्वारा जुटाए जा रहे चंदे के बारे में जानने का हक है या नहीं? इस बीच कुछ छुटभैए चंदाखोर के नाम भी सामने आए। और फिर जनता को इस बात का पता चला कि चुनावी चंदे के धंधे में पक्ष-विपक्ष-सभी दल लिप्त रहे हैं।

यह तो सभी जानते हैं कि चुनावी चंदा देने वाले उद्योगों का धन भी जनता से ही उगाहा जाता है। चुनावों में धन का खर्च लगातार अनाप-शनाप ढंग से बढ़ता जा रहा है। मतदाता के धन से जनमत पाने वाले जनसेवक फिर अपने मन से उसको खर्च करते हैं और खर्च का हिसाब भी नहीं देना चाहते। जनता में हर पक्ष यानी सभी राजनीतिक दलों से सवाल करने की जागरूकता रहनी चाहिए। जनता को चुनाव में खर्च होने वाले धन के बारे में जानने का पूरा हक है। जनता
को यह भी जानने का हक है कि उन्हीं से उगाहे गए धन से दिए गए चंदे का किस उद्योग घराने ने कितना सही-गलत, लाभ-फायदा उठाया। या चंदा पाने के बाद संबंधित राजनीतिक दल ने उन उद्योगों को कितना लाभ पहुंचाया।

सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों की जनता के प्रति जिम्मेदारी है कि चंदे का यह सब खेल गोपनीयता में न चले। पिछले दिनों एक समाचार पत्र से ही जानने को मिला कि वर्ष 1961 में टाटा समूह के जेआरडी टाटा को नए बने स्वतंत्र दल के सी. राजगोपालाचारी ने चंदे के लिए पत्र लिखा था। जवाब में टाटा ने माना कि  चंदा तो वह कांग्रेस को देते हैं, लेकिन देशभक्त उद्योग घराना होने के नाते स्वतंत्र पार्टी को भी चंदा देना उनका कर्तव्य है, क्योंकि कोई
भी लोकतंत्र बिना मजबूत विपक्ष के टिका नहीं रह सकता। टाटा ने फिर बाकायदा तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखकर बताया कि रचनात्मक विपक्ष को मजबूत करने का एक जरिया यह तरीका भी है। जो उद्योगपति तमाम सरकारों को जेब में रखने का दावा करते रहे हैं, उनमें ऐसी राय जगजाहिर करने का दम शायद ही हो।

इससे उलट कॉरपोरेट इंडिया के तीन बड़े संगठनों ने सर्वोच्य न्यायालय में सवाल किया और जताया कि चुनावी बॉन्ड की गोपनीयता खत्म करने से भारत के उद्योगों पर गलत असर पड़ेगा, क्योंकि वर्ष 2017 में सरकार ने गोपनीयता का वादा किया था। भारत में स्पष्ट कानून है कि निजता का मौलिक अधिकार अपने आप में पूर्ण नहीं है और इसलिए सार्वजनिक हित के सामने उसे झुकना ही होगा।

‘मैं गोपनीयता को पाप मानकर घृणा करता हूं’ कहने वाले महात्मा गांधी से जब स्वतंत्रता के लिए छिपकर आंदोलन करने वाले मिलने आए, तो उन्होंने कहा, ‘जब आप बड़े प्रश्नों पर विचार करेंगे, तो आपको पता लगेगा कि सब तरह की गुप्तता छोड़कर खुले रूप में काम करने से ही आप आगे बढ़ सकते हैं और विकास कर सकते हैं। देश को स्वतंत्रता दिला सकते हैं।’ सेवा का साध्य धंधे के चुनावी चंदे से न साधा जाए। धंधे के चंदे से ही चुनाव भी गंदे हुए हैं। इस चंदे के फंडे को देश के हर बंदे को समझना होगा।

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