फालतू का खर्चा और फालतू की चर्चा, दोनों से बचें
फालतू का खर्चा और फालतू की चर्चा, दोनों से बचें
आजकल ‘हीरामंडी’ की बहुत चर्चा है। कुछ लोगों को ये सीरीज बहुत पसंद आई। दूसरी ओर हैं वो लोग जो बकवास कह रहे हैं। अब आप समझ नहीं पा रहे- देखूं या ना देखूं। पर ये देखने के लिए देखना पड़ेगा कि किस साइड में दम है। एक कहानी है- जितने मुंह, उतनी बात।
आज के जमाने में कह सकते हैं- जितने मुंह, उतने सोशल मीडिया पोस्ट। हम जी रहे हैं एक ऐसी दुनिया में, जहां हर कोई अपने विचार व्यक्त कर सकता है। चाहे उन्हें हमारे विषय के बारे में कुछ पता हो, या नहीं। फैमिली वाट्सएप ग्रुप पर ताऊजी फॉरवर्ड भेजते हैं।
भतीजी धीमे से कहती है, ये फेक है। मगर इतने पढ़े-लिखे होने के बावजूद ताऊजी को ये क्यों नहीं पता चला? क्योंकि जब हम ऐसा फॉरवर्ड पढ़ते हैं जो हमारे विचारों से मिलता-जुलता है, हमें विश्वास हो जाता है कि ये सोलह आना सच है।
आजकल दोस्ती भी लोग अपने से मिलते-जुलते विचार वालों से ही करते हैं। खासकर पॉलिटिक्स के मामले में। वैसे पुराने समय में दोस्त कौन से नेता को वोट देगा, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता था। लेकिन आज वही दोस्ती खट्टी पढ़ जाती है जब हम वाट्सएप पर लंबी बहस करने लगते हैं।
सोशल मीडिया पर अगर आप सिर्फ अपने विचार वालों को फॉलो करोगे तो आपको भ्रम होगा कि बस, ये है दुनिया का सच। इस विचारधारा के सब लोग हमारी जान के पीछे पड़े हुए हैं। हां फिर देश की हालत इतनी खराब है, बच्चों को तो कनाडा भेजना ही पड़ेगा। हम एक दिशा में ब्रेनवॉश हो जाते हैं।
मगर मामला ब्लैक एंड व्हाइट कभी नहीं होता। कुछ लोग लिबास से बहुत धार्मिक होते हैं पर कट्टरपंथी नहीं, हर किसी की मदद करेंगे। देश में कई कमियां हैं मगर अच्छाइयां भी हैं। कोई भी नेता राजनीति की परीक्षा में 100 में से 100 नंबर नहीं ला सकता।
आप अपने अंदर झांककर देखिए। क्या आपके अंदर विरोधाभास नहीं है? आप अपने आप को फेमिनिस्ट मानती हैं, खुद कमाती भी हैं, मगर डेट पर लड़का बिल भरे तो आपको अच्छा लगता है। या फिर आप एक धर्म को मानते हैं मगर दूसरे के गिरजाघर में बैठकर भी बहुत शांति मिलती है।
लेकिन अगर आप अपने इस चेहरे को सोशल मीडिया पर दिखाएंगे तो लोग आप पर टूट पड़ेंगे। इसलिए आप चुप रहते हैं। पर तेज़-तर्रार बोलने वालों का असर तो पड़ता है। हर ग्रुप में कुछ ऐसे शख्स होते हैं, जो अपने विचार दूसरों पर इतने फोर्स से फेंकते हैं, कि अगले को चोट लगती है।
क्या करें, वो भी निशाना लगाता है। और फिर शब्दों की मिसाइल का सिलसिला शुरू। घमासान युद्ध, जिसमें कुछ और लोग भी कूद पड़ते हैं। इस जंग में विजय उसकी जो विरोधी पक्ष का दिल जीत ले। कि हां, मैं गलत, अब समझा कि जो आप कह रहे हैं वो सही है। लेकिन क्या कभी ऐसा हुआ है? जी नहीं। तो इस लड़ाई में पड़ने से सिर्फ आपका वक्त बर्बाद होगा। खैर, कई लोगों को शायद वक्त की कमी है नहीं। वो या तो ऑफिस में बैठकर टाइमपास कर रहे हैं, या घर पर ऐशो-आराम।
अच्छा होगा अगर आप सोशल मीडिया का सेवन करते वक्त एक इमोशनल रेनकोट पहन कर निकलें। ताकि आती-जाती बातों का आपके ऊपर असर ना पड़े। अगर किसी टॉपिक पर बहस करने का मन हो तो दोस्त को आमने-सामने बुला कर करिए। कुछ सभ्यता होगी, कुछ आदान-प्रदान भी। और अगर किसी सामाजिक मुद्दे से आपको तकलीफ पहुंचती है, तो कुछ एक्शन लीजिए।
आसपास जरूर कोई ऐसी संस्था होगी, जहां आप कुछ मदद कर सकते हैं। धन से, या श्रम से। आपने अगर किसी का दुख कम किया, किसी एक को जीने का दम दिया, तो सुकून जरूर मिलेगा, पुण्य भी।
फालतू का खर्चा और फालतू की चर्चा, दोनों से बचना है। मन का माहौल तो विचारों की रचना है। सभ्य, शान्त, सुशील रहिए। अपनी बात प्रेम से कहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)