आईने को भी अवसरों की खिड़की बना देती है शिक्षा!
आईने को भी अवसरों की खिड़की बना देती है शिक्षा!
केवल शनिवार और रविवार को ही उसका अलार्म सुबह 5 बजे बजता है, अन्यथा वह हमेशा सुबह 4 बजे जाग उठती है। 12 वर्षीय अनामिका (असली नाम नहीं) उठते ही अपनी मां की दवा तैयार करती है। तैयार होकर दो अलग-अलग बर्तनों में पानी गर्म करती है।
एक गुनगुना पानी मां को खाली पेट दवा देने के लिए और दूसरा घर में सभी के लिए चाय बनाने के लिए। पिता अभी भी सो रहे हैं। वह अपना बिस्तर समेटती है और तकिया जमीन से हटाती है, क्योंकि व्हीलचेयर को बाथरूम की ओर ले जाने के लिए यही जगह है।
वह अपने पिता को परेशान नहीं करने की कोशिश करती है, क्योंकि उन्होंने अपने ऑटो रिक्शा पर दो शिफ्ट की हैं और रात को देर से घर आए हैं। सौभाग्य से पूरे दिन सड़क पर रहने के बावजूद उसके पिता को कोई बुरी आदत नहीं है- ना धूम्रपान, ना शराब पीना।
सप्ताह के पांचों दिन उसकी दिनचर्या मां को दवा देना, उन्हें वॉशरूम ले जाना और रोजाना सफाई में उनकी मदद करना है। वह कपड़े बदलने में उनकी मदद करती है, उन्हें नाश्ता और फिर दवा देती है, तीनों के लिए खाना बनाकर स्कूल जाने के लिए तैयार हो जाती है।
लेकिन सप्ताहांत में उसे स्कूल के लिए तैयार नहीं होना पड़ता। पिछले छह सालों से उसकी मां दिव्यांग है।मां को रोजाना होने वाली परेशानियों को देखते हुए और पिता को घर की जिम्मेदारियां और आर्थिक बोझ उठाते देखकर अनामिका बहुत जल्दी परिपक्व हो गई और कम उम्र में ही किसी कामकाजी महिला की तरह बन गई।
वह कभी अपनी सहपाठियों के साथ खेलने नहीं जाती। वह या तो अपनी पढ़ाई पूरी करने में व्यस्त रहती है या मां की देखभाल में। मां और पिता दोनों घर के कामों में मदद करते हैं। मां हिलने-डुलने में असमर्थ हैं, इसलिए खाट पर बैठकर सब्जियां काटती हैं और बैठे-बैठे ही जो कुछ भी कर सकती हैं, करती हैं। पिता काम निपटाते हुए इधर-उधर दौड़ते रहते हैं।
अनामिका ही घर की रसोइया, प्रबंधक और मालकिन तीनों एक साथ है। उसके जीवन में सिर्फ एक ही सुख-सुविधा है कि वह अपने पिता के रिक्शे से स्कूल जाती है, जो उसके घर से 3 किलोमीटर दूर है। सुबह 7 बजे रिक्शे में बैठने से पहले वह खिड़की के पास रखे छोटे-से आईने में देखती है, और जब उगता हुआ सूरज उसके चेहरे पर दमकता है, तो वह सूर्य भगवान से प्रार्थना करती है कि उसका जीवन भी जल्द ही उज्ज्वल हो जाए।
मुझे उसके बारे में हाल ही में अपनी विदेश यात्रा के दौरान पता चला, जहां बगल में बैठे व्यक्ति ने- जो अपना नाम नहीं उजागर करना चाहते थे- मुझे बताया कि कैसे वे दम्पती अनामिका की परीक्षा से ठीक दो महीने पहले अपनी छुट्टियों की योजना बनाते हैं और अपने नौकरों को अनामिका के दैनिक कामों में मदद करने के लिए नियुक्त कर देते हैं।
“वैसे भी हम दो महीने के लिए विदेश में रहने वाले हैं और सभी घरेलू नौकरों को उनका वेतन मिलता रहेगा। उन्हें बिना काम के आलसी बनाने के बजाय मैंने उनसे वैकल्पिक दिनों में उस परिवार की मदद करने के लिए कहा है ताकि वह लड़की अच्छी तरह से पढ़ाई कर सके। और हम अनामिका की परीक्षा की तारीखों के अनुसार अपनी छुट्टियां पहले या बाद में तय करते हैं। मेरी पत्नी उससे प्रतिदिन वॉट्सएप पर फीडबैक लेती है।
मैं ऐसा तब तक करता रहूंगा जब तक वह दसवीं कक्षा पूरी नहीं कर लेती, क्योंकि हमारे बच्चे विदेश में बस गए हैं, इसलिए हर साल हम लगभग चार महीने यात्रा करते हैं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि शिक्षा अंततः उस छोटी लड़की के लिए भविष्य में एक बेहतरीन अवसर खोलेगी।’ मैंने एक शब्द भी नहीं बोला। पहली बार मुझे पता चला कि मदद पाने वाले के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाए बिना कैसे मदद की जा सकती है।
फंडा यह है कि ऐसे बेहतरीन केयरगिविंग बच्चों की थोड़ी देखभाल करने की कोशिश करें और देखें कि कैसे उनका आईना- जो अब तक उनके मुश्किल दौर को दर्शा रहा था-अवसरों की खिड़की में बदल जाता है।