हिंदी में शपथ लेने के संदेश बहुत गहरे !

सम्मान: हिंदी में शपथ लेने के संदेश बहुत गहरे
ज्यादातर मंत्रियों का हिंदी में शपथ लेना हो या तंत्र के शीर्ष का हिंदी में बढ़ता व्यवहार हो, इनसे नीचे तक संदेश जाता है।
 Respect: messages of Cabinet taking oath in Hindi are very deep
प्रधानमंत्री पद की गोपनीयता की शपथ लेते नरेंद्र मोदी। –

राष्ट्रपति भवन, साल 2009 की गर्मियां। मंत्रिमंडल का शपथ ग्रहण चल रहा था। मंत्रियों के शपथ लेते ही तालियां बजतीं, और थम जातीं। इसी बीच एक युवा नेता के शपथ वाले शब्द जैसे ही थमे…राष्ट्रपति भवन तालियों से गूंज उठा। बाकी मंत्रियों की तुलना में इस बार ताली कुछ ज्यादा तेज और देर तक बजी। वह युवा मंत्री थीं अगाथा संगमा। मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री और लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष पी.ए. संगमा की बेटी अगाथा संगमा की ओर मेहमानों का ध्यान खिंचने की वजह बनी उनकी हिंदी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अगाथा पूर्वोत्तर की नेता थीं और तब शपथ ग्रहण में अंग्रेजी का बोलबाला रहता था। हिंदी भाषी क्षेत्रों के पढ़े-लिखे ज्यादातर नेताओं के लिए हिंदी में शपथ लेना हेठी समझी जाती थी।

लेकिन मोदी सरकार में हालात बदल गए हैं। बीते नौ जून की शाम को राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ 71 मंत्रियों ने शपथ ली। इनमें 55 मंत्रियों ने हिंदी में शपथ ली। स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद यह पहला शपथ ग्रहण था, जिसमें दो तिहाई मंत्रियों ने हिंदी में राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन का संकल्प लिया।

हिंदी के प्रति मोदी सरकार का अनुराग ऐसा मुद्दा है, जिसकी आलोचना उसके कट्टर विरोधी भी नहीं कर सकते। चूंकि शीर्ष नेतृत्व का ज्यादातर हिस्सा हिंदी बोलने-लिखने में सहज है, लिहाजा पहले की तुलना में हिंदी का महत्व मोदी सरकार में बढ़ा है। प्रधानमंत्री मोदी हों या गृहमंत्री अमित शाह या फिर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, तीनों बड़े नेताओं की प्राथमिक भाषा हिंदी ही है। कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान भी हिंदी में ज्यादा सहज हैं। नितिन गडकरी मराठी, हिंदी और अंग्रेजी, तीनों में सहज हैं। भारतीय भाषाओं में सहज ज्यादातर नेताओं की कामकाज की भाषा चूंकि हिंदी है, शायद इसलिए शपथ ग्रहण समारोह में उन्होंने हिंदी को ही तवज्जो दिया।

दो सौ साल के अंग्रेजी राज और 160 साल के अंग्रेजी शिक्षण के चलते भारत ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है, जहां अंग्रेजी को नकारा नहीं जा सकता। बेशक आजाद भारत के शुरुआती नेतृत्व ने क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदी को बढ़ावा देने की बात की, लेकिन उसमें बढ़ावा देने की औपचारिकता ज्यादा थी, व्यवहारिकता कम। इसी कारण स्वाधीन भारत के सामाजिक और व्यवस्थागत जीवन में भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा।

उदारीकरण के बाद जब पश्चिमी आर्थिक हस्तक्षेप बढ़ा, कॉरपोरेटीकरण भारतीय विकास की समानांतर व्यवस्था बना, तो भारतीय भाषाओं के मुकाबले अंग्रेजी का वर्चस्व फिर से बढ़ने लगा। इसका असर हमारे सामाजिक और राजनीतिक जीवन के साथ ही नौकरशाही में भी दिखा। ऐसे माहौल में नरेंद्र मोदी का उभार हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के लिए उम्मीद की नई रोशनी बनकर आया। हिंदी का नौकरशाही में व्यवहार बढ़ा। शासन के शीर्ष के ज्यादा संपर्क में आने वाली नौकरशाही भी हिंदी सीखने को आतुर दिखती है। इन पंक्तियों के लेखक से एक दिन एक शीर्ष नौकरशाह ने हिंदी सिखाने की अपील की। भारतीय भाषाओं और हिंदी के प्रति सरकारी तंत्र में आए इस सकारात्मक बदलाव का ही असर कहा जाएगा कि नई शिक्षा नीति में भी प्राथमिक स्तर की पढ़ाई के माध्यम के लिए हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं की वकालत की गई है।

ज्यादातर मंत्रियों का हिंदी में शपथ लेना हो या तंत्र के शीर्ष का हिंदी में बढ़ता व्यवहार हो, इनसे नीचे तक संदेश जाता है। संघ लोक सेवा आयोग ने शीर्ष नौकरशाही के चयन की जो व्यवस्था स्वीकार की है, उसमें भारतीय भाषाओं और हिंदी माध्यम की पढ़ाई के छात्रों की सफलता दर बेहद कम है। इसलिए अब भी नौकरशाही में अंग्रेजी का बोलबाला बना हुआ है। ऐसे नौकरशाह लोकभाषाओं में काम करने में सहज नहीं हैं। आज भी नौकरशाही के स्तर पर बुनियादी सोच से लोकभाषाएं गायब हैं। चिंतन हो या नीति निर्माण, अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। शायद यही वजह है कि अब भी अंग्रेजी को श्रेष्ठि और नागर समाज की भाषा माना जाता है। ऐसे माहौल में भी अगर 55 मंत्री हिंदी में शपथ लेते हैं, तो उसका स्वागत ही होना चाहिए। हिंदी में शपथ सामान्य जन को भारतीय भाषाओं के प्रति स्नेह और सम्मान के लिए प्रेरित तो करती ही है, उन्हें भारत की सांस्कृतिक और भाषायी विरासत से प्यार करना भी सिखाती है।

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