ब्रह्मचारी ऋषि की कहानी…
जानना जरूरी है: क्या थीं जरत्कारु के विवाह की तीन शर्तें?, जानिए ब्रह्मचारी ऋषि की कहानी…
प्राचीन समय में जरत्कारु नाम के एक ब्रह्मचारी ऋषि हुए। वह धर्म के ज्ञाता और तपोबल से संपन्न थे। वह कभी केवल वायु पर आश्रित रहते, तो कभी भोजन का त्याग कर देते थे। उन्होंने निद्रा पर विजय प्राप्त कर ली थी। एक बार जरत्कारु ने देखा कि कुछ ऋषिगण सिर नीचे की ओर किए एक गड्ढे में लटक रहे थे।
जरत्कारु ने पूछा, ‘आप लोग कौन हैं और उल्टा क्यों लटके हैं?’
ऋषियों ने उत्तर दिया, ‘हम कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर मुनि हैं। हमारी मात्र एक संतान शेष है। अन्य सभी काल के अधीन हो चुके हैं। हमारी संतान का नाम जरत्कारु है। वह तपस्या में लीन रहता है और विवाह नहीं करता। अतः वंश-परंपरा का नाश होने के कारण हम गड्ढे में लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करने वाला वंशधर मौजूद है, फिर भी हम अनाथ हो गए हैं।’
जरत्कारु ने कहा, ‘आप लोग मेरे पितृगण हैं। मैं ही जरत्कारु हूं। कहिए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?’ यह सुनकर पितर बोले, ‘तात! तुम हमारे कुल की रक्षा के लिए शीघ्र विवाह करके धर्म का पालन करो और पुत्र की उत्पत्ति के लिए यत्न करो। पुत्र वाले मनुष्य, इस लोक में जिस उत्तम गति को प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देने वाले तप से भी नहीं प्राप्त कर सकते। अतः पुत्र! तुम हमारी आज्ञा से विवाह कर संतानोत्पत्ति की ओर ध्यान दो। यही हमारे सर्वोत्तम हित की बात होगी।’
जरत्कारु ने पितरों से कहा, ‘हे पितृगण! मैंने यही निश्चय किया था कि मैं जीवन के सुख-भोग के लिए न तो कभी विवाह करूंगा और न ही धन का संग्रह करूंगा। परंतु यदि इसी से आपका हित होता है, तो मैं विवाह करने को तैयार हूं।
विवाह के लिए मेरी तीन शर्तें हैं। यदि उन शर्तों के अनुसार मुझे कन्या मिलती है, तो उससे विवाह कर लूंगा, अन्यथा नहीं…
‘पहली शर्त है कि मैं अपने नाम वाली कन्या से ही विवाह करूंगा। दूसरी शर्त है कि उसके भाई-बंधु उसे स्वयं मुझे देने की इच्छा रखते हों और तीसरी शर्त यह है कि चूंकि मैं दरिद्र हूं और मांगने से मुझे कोई कन्या नहीं देगा, अत: यदि कोई भिक्षा के तौर पर अपनी कन्या देने को तैयार हो, तभी मैं उसे ग्रहण करूंगा। ये शर्तें पूर्ण हो जाएं, तो मैं विवाह कर लूंगा।’
यह कहकर जरत्कारु ने पितरों को प्रणाम किया और पृथ्वी पर सभी दिशाओं में विचरण करने लगे। बहुत प्रयास करके भी उन्हें ऐसी कोई कन्या नहीं मिली, जो उनकी सब शर्तें पूरी करती हो। फिर एक दिन जरत्कारु ने पितरों का स्मरण करके वन के भीतर कन्या की भिक्षा के लिए पुकार लगाई और कहा, ‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाए!’ उसी समय नागराज वासुकि अपनी बहन को लेकर उपस्थित हुए और बोले, ‘ऋषिवर! यह मेरी बहन है। कृपया इसे आप भिक्षा में ग्रहण कर लीजिए।’
जरत्कारु की दो शर्तें पूर्ण हो रही थीं। वासुकि, कन्या का भाई था और उसे स्वयं भिक्षा में दे रहा था। अब एक शर्त शेष थी।
जरत्कारु ने नागराज से उसकी बहन का नाम पूछा।
वासुकि ने कहा, ‘हे जरत्कारु! मेरी यह छोटी बहन आपके नाम वाली है। इसका भी नाम जरत्कारु है। मैंने इसे स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। आपने विवाह के लिए तीन शर्तें रखी थीं, वे सभी पूर्ण हो गई हैं। अत: आप इसे पत्नी-रूप में स्वीकार कीजिए।’
यह सुनकर ऋषि जरत्कारु ने वासुकि की बहन से विधिवत विवाह किया। उनसे एक तेजस्वी पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम आस्तीक था। उसके जन्म के साथ जरत्कारु के पितरों को मुक्ति मिल गई। इसी आस्तीक ने कालांतर में जनमेजय का नाग-यज्ञ रुकवाया था।