अमेरिका की छवि पर शीत युद्ध ने गहरा दाग लगाया है !

अमेरिका की वो 3 गलतियां जिसे आज तक भुगत रही है पूरी दुनिया
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सबसे बड़ा केंद्र बना हुआ है, लेकिन बीते कुछ सालों के घटनाक्रमों ने अमेरिका की स्थिति को कमजोर किया है. इतिहास में अमेरिका ने कुछ बड़ी गलतियां की हैं.

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अमेरिका दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से सबसे बड़ी धुरी बना हुआ है. किन्हीं दो देशों के बीच संबंधों के केंद्रबिंदु में अमेरिका हमेशा होता है, लेकिन बीते कई सालों से एशियाई देशों की राजनीति में अमेरिका की दखलंदाजी बन रही है. इसमें भारत भी शामिल है. बात करें हाल के ही कुछ घटनाक्रमों की तो अमेरिका चीन को रोकने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा है.

ये घेराबंदी एशिया में काफी पहले शुरू हो चुकी थी, लेकिन कुछ दिन पहले ही अमेरिका ने बड़ा फैसला किया है. अमेरिकी प्रतिनिधि सभा की पूर्व अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी और अमेरिकी संसद के विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष माइकल मैककॉल की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात कर चीन को चौंका दिया है. भारत ने 2003 में ही तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया था.

भारत की इस दरियादिली का चीन की हरकतों पर कोई असर नहीं पड़ा और उसकी नजर अब अरुणाचल प्रदेश पर है. हालांकि दलाई लामा को शरण देकर भारत ने चीन की नाक में नकेल डाल रखी है. इस बीच अमेरिका का तिब्बती नेता से मिलना नए घटनाक्रम का संकेत है. 

दरअसल अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक नई तरह की धुरी बन रही है, जो आने वाले समय में टकराव का रास्ता खोल सकती है. यूक्रेन युद्ध के बाद से रूस-चीन और उत्तर कोरिया एक मंच पर खड़े हो गए हैं. उधर अमेरिका के  साथ हमेशा खड़े रहने वाले पश्चिमी देशों की आर्थिक हालत खराब है. अमेरिका के लिए अब जरूरी हो गया है कि चीन को रोकने के लिए उसे नई ताकत मिले. इसके लिए भारत उसके लिए सबसे बड़ा मददगार साबित हो सकता है. 

भारत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति अभी तक किसी भी तरह की गोलबंदी से अलग रही है. रूस-यूक्रेन  युद्ध के शुरुआत में अमेरिका ने रूस के खिलाफ बोलने के लिए भारत पर कई बार दबाव भी बनाया था, लेकिन भारत ने इससे साफ इनकार कर दिया.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने पूरी दुनिया में शक्ति संतुलन बनाए रखने में मदद की थी, लेकिन इस दौरान उसने 3 बड़ी गलतियां भी कीं जिसका खामियाजा पूरा विश्व भुगत रहा है.

शीत युद्ध  की आग
12 मार्च 1947 से लेकर  26 दिसंबर 1991 तक संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध चला. ये एक सीधा युद्ध नहीं था, लेकिन इसमें अप्रत्यक्ष तौर पर दोनों देश एक दूसरे खिलाफ कूटनीतिक चालें चल रहे थे. दरअसल उस समय रूस की अगुवाई में सोवियत संघ बड़ी ताकत बन गया था. पूरी दुनिया की राजनीति में दो महाशक्तियों के बीच संतुलन था.  

शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने अलग-अलग देशों में सांप्रदायिकता को खूब भड़काया. कम्युनिस्ट सरकारों के खिलाफ कई देशों में अमेरिका ने खूब गुस्सा भड़काया. अमेरिका ने भी फैलाया कि सोवियत संघ का विस्तार पूरी दुनिया में अस्थिरता लेकर आएगा. इस दौरान कई देशों में तख्तापलट, सैन्य विद्रोह, गुप्त मिशन अंजाम दिए गए. कोरियन युद्ध, वियतनाम युद्ध, लैटिन अमेरिका देशों में बवाल, अफ्रीका और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों तक ये आग फैली.

इसका अंजाम क्या हुआ?
अमेरिकी हस्तक्षेप की वजह से कई लैटिन अमेरिकी देश जैसे चिली, अर्जेटाइना, गुंवाटमाला में सैन्य तानाशाह वाली सरकारें बनीं और वहां पर जमकर अत्याचार किए गए. इसी तरह दक्षिण-पूर्व एशिया में वियतनाम युद्ध की वजह से लाखों की जान चली गई. इससे कंबोडिया और लाओस भी अछूते नहीं रहे. यहां भी जमकर नरसंहार हुआ.

दूसरे विश्वयुद्ध को खत्म करने में अमेरिका की भूमिका के बाद जो छवि पूरी दुनिया में बनी थी उस पर कोल्ड वार यानी शीत युद्ध ने गहरा दाग दे दिया. जिस अमेरिका को लोकतंत्र का समर्थक माना गया था आज तक उसे संदेह की नजरों से देखा जाता है, लेकिन जो झगड़े कोल्ड वार के समय शुरू हुए उन्हें आज तक सुलझाया नहीं जा सका है. इसमें वियतनाम का मुद्दा प्रमुख है.

1953 में ईरान में तख्तापलट
शीत युद्ध के समय ही अमेरिका ने 1953 में ईरान में तख्तापलट की साजिश रची. इस पूरे घटनाक्रम में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटिश इंटेलीजेंस शामिल थी. इस तख्तापलट में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार को हटाकर  एक तानाशाह को बैठा दिया गया जो पश्चिमी देशों का दोस्त था.

दरअसल इस घटनाक्रम के पीछे तेल का खेल था. लोकतांत्रिक सरकार के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसेदगाह ने ईरान के तेल उद्योग को सरकारी नियंत्रण में ले लिया था. इस पर पहले ब्रिटिश कंपनी का कब्जा था. ईरान सरकार का ये कदम अमेरिका और ब्रिटेन दोनों के लिए नागवार गुजरा. तख्तापलट को ऑपरेशन अजक्स नाम दिया गया था.

इसका नतीजा क्या हुआ?
तानाशाह मोहम्मद रजा पहलवी के शासन में मानवाधिकारों की जमकर धज्जियां उड़ीं और विपक्ष की आवाज को पुलिस का इस्तेमाल करके दबा दिया गया. इसका नतीजा ये निकला कि साल 1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति हो गई. तानाशाही सरकार को उखाड़ फेंका गया. अयतुल्ला खुमैनी की अगुवाई में नई सरकार बनी. 52 अमेरिकी अधिकारियों को बंधक बना लिया गया. कई दिनों के बाद उनको छोड़ा गया. ईरान और अमेरिका के बीच दुश्मनी की नई दास्तान शुरू हो गई. 

इस घटनाक्रम ने मध्य-पूर्व देशों के लिए अमेरिका छवि दुश्मन जैसी बन गई और पूरे इलाके में इस्लामिक आंदोलन का भी आधार बनी.  इसके पीछे सोच थी कि अमेरिका और पश्चिमी देशों का हस्तक्षेप न सिर्फ घरेलू राजनीति, सभ्यता-संस्कृति, धर्म-परंपराओं पर भी अपनी छाप छोड़ रहा है, लेकिन अमेरिकी हस्तक्षेप का असर सिर्फ ईरान तक ही नहीं सीमित रहा. 1980 में ईरान-इराक युद्ध शुरू हो गया.ईराक और सीरिया में अब तक युद्ध जारी है. ईरान की सऊदी अरब और इजरायल के साथ अब तक तनातनी जारी है. दोनों ही देश अमेरिका के साझीदार हैं.

अमेरिका की वो 3 गलतियां जिसे आज तक भुगत रही है पूरी दुनिया

अफगानिस्तान में अमेरिकी चाल
1980 के दशक में ही अमेरिका ने सोवियत संघ के खिलाफ अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों का समर्थन करना शुरू कर दिया. ये फैसला भी शीत युद्ध से ही जुड़ा था. 1979 में सोवियत संघ अफगानिस्तान में घुस गया था, जिसके जवाब में अमेरिका ने अफगानिस्तान के कई संगठनों को पैसा और हथियार देना शुरू कर दिया. अमेरिका ने इसे ऑपरेशन साइक्लोन नाम रखा. अमेरिका चाहता था कि अफगानिस्तान सोवियत संघ के साथ वही जो वियतनाम में चीन के साथ हुआ था.

इतना ही नहीं इस दौरान अमेरिका ने भारत के कट्टर दुश्मन पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के जरिए मुजाहिदीनों को पैसा देना का भी काम किया. पाकिस्तान ने इस पैसे का इस्तेमाल भारत के खिलाफ भी करना शुरू कर दिया. अफगानिस्तान के इन मुजाहिदीनों में कई कट्टर इस्लामिक विचारधारा से प्रभावित थे, इसमें ओसामा बिन लादेन भी था. 1989 में सोवियत संघ ने अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं हटा लीं.

नतीजा क्या हुआ?’
सोवियत संघ का अफगानिस्तान से भागना अमेरिका के लिए जीत थी, लेकिन ये खुशी अब उसके और पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द साबित होने जा रही थी. अफगानिस्तान में मुजाहिदीनों ने सत्ता के लिए आपस में ही लड़ना शुरू कर दिया. इस दौरान एक नया इस्लामिक संगठन उभरा, जिसका नाम था तालिबान.

1990 तक इस संगठन ने अफगानिस्तान में पूरी तरह से कब्जा कर लिया था. तालिबानों ने एक-दूसरे आतंकी संगठन अलकायदा को संरक्षण दिया. अलकायदा ने ही 11 सितंबर 2001 में अमेरिका में हमला कर दिया था. इस हमले के बाद अमेरिकी सेनाओं ने अफगानिस्तान में अलकायदा के खिलाफ युद्ध शुरू कर दिया और तालिबान शासन को उखाड़ फेंका, लेकिन साल 2022 तक आते-आते अमेरिका ने अपनी सेनाएं हटा लीं और अब फिर वहां तालिबानों का शासन है.

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