लोकसभा स्पीकर के लिए भी चुनाव होना चौंकाता है ?
लोकसभा स्पीकर के लिए भी चुनाव होना चौंकाता है
अक्सर कहा जाता है कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ दल का पर्याप्त बहुमत के साथ निर्वाचित होना महत्वपूर्ण है, लेकिन उतना ही महत्वपूर्ण है एक मजबूत विपक्ष का होना, ताकि सरकार की शक्तियों पर अंकुश और संतुलन सुनिश्चित हो सके। 2024 के चुनावी मुकाबले ने जो 18वीं लोकसभा बनाई है, वह कमोबेश एक आदर्श लोकतंत्र के अनुरूप है।
सत्तारूढ़ गठबंधन के पास बहुमत है, लेकिन उतना ही मजबूत विपक्ष भी है। एनडीए के पास 293 सीटें हैं, जिसमें भाजपा 240 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी है। वहीं इंडिया गठबंधन के पास लोकसभा में कुल 195 सदस्य हैं (टीएमसी और लेफ्ट को छोड़कर), जिसमें कांग्रेस 99 सीटों के साथ सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है।
पश्चिम बंगाल में टीएमसी ने 29 और वाम मोर्चे ने 6 लोकसभा सीटें जीती हैं, जबकि पंजाब में आम आदमी पार्टी के खाते में 3 लोकसभा सीटें आई हैं। इन आंकड़ों को मिलाकर नवनिर्वाचित लोकसभा में विपक्षी गठबंधन के सदस्यों की संख्या 233 हो जाती है, जो विधेयकों पर जरूरी बहस सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त है।
थ्योरिटिकली बात करें तो लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार के संचालन के लिए इससे बेहतर संसद नहीं हो सकती। लेकिन थ्योरी और प्रैक्टिस में अंतर होता है, जिसकी झलक हाल में लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव के मुद्दे पर देखने को मिली। जब सत्तारूढ़ गठबंधन ने विपक्ष को उपाध्यक्ष का पद देने के लिए अनिच्छा दिखाई, तो विपक्ष ने सदन के अध्यक्ष पद के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया।
ऐसी स्थिति पिछले कई दशकों के दौरान लोकसभा में शायद ही कभी उत्पन्न हुई हो। अतीत में केवल तीन बार ही ऐसे अवसर आए हैं, जब लोकसभा अध्यक्ष के लिए चुनाव हुआ हो। पहली बार आजादी के बाद 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में विपक्ष ने शांताराम मोरे को अपना उम्मीदवार बनाया था।
कांग्रेस उम्मीदवार जी.वी. मावलंकर को 394 वोट मिले थे, जबकि मोरे को 55 वोट मिले थे। 1967 में कांग्रेस उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी का मुकाबला विपक्षी उम्मीदवार तेनेटी विश्वनाथम् से हुआ था। इस तरह का तीसरा उदाहरण आपातकाल (1976) का है, जब विपक्ष ने कांग्रेस उम्मीदवार बी.आर. भगत के खिलाफ जगन्नाथ राव को उतारा था।
स्वस्थ परंपरा को कायम रखते हुए ओम बिरला को ध्वनिमत से स्पीकर चुन लिया गया, जिससे कोई खींचतान नहीं हुई। लेकिन स्पीकर के चुनाव के मुद्दे पर पिछले कुछ दिनों से जो नूराकुश्ती चल रही थी, वह इस बात का संकेत मात्र है कि सत्तारूढ़ गठबंधन को लोकसभा में संगठित विपक्ष से कैसी चुनौती मिलने वाली है।
विपक्षी दलों के कुछ सदस्यों और नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष के बीच हुई नोकझोंक से यह संकेत मिलता है कि लोकतांत्रिक सरकार के बेहतर संचालन के लिए जो सबसे अच्छी लोकसभा दिखती है, वह सैद्धांतिक रूप से तो बनी रहेगी, लेकिन व्यवहार में नहीं। अपना उम्मीदवार उतारकर विपक्ष ने संकेत दिया है कि वे जनता के अधिकारों के लिए लड़ेंगे।
ये सच है कि भाजपा लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है और उसने अपने सहयोगियों के साथ सरकार बनाई है। लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी के लिए अब यह महसूस करने का समय है कि यह जनादेश 2014 और 2019 से अलग है।
न केवल विपक्षी सांसद इस बार बड़ी संख्या में हैं, बल्कि पिछले कुछ वर्षों में आमजन के विचार भी बदले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसी भी अन्य नेता की तुलना में कहीं अधिक लोकप्रिय बने हुए हैं। उनकी लोकप्रियता रेटिंग 41% है तो राहुल गांधी की भी 27% हो चुकी है। लेकिन लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण में 28% भारतीयों ने उल्लेख किया कि नरेंद्र मोदी की छवि अब पहले जैसी नहीं रह गई है, वहीं 33% अन्य ने कहा कि भाजपा द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों से दागदार छवि वाले नेताओं को शामिल करने के कारण पार्टी की छवि खराब हुई है।
सर्वेक्षण के निष्कर्षों ने पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी बदले की राजनीति की प्रकृति के बारे में लोगों की चिंता को भी दर्शाया। 44% लोग इस दृष्टिकोण से सहमत हैं कि विपक्षी दलों के नेताओं को राजनीतिक कारणों से गिरफ्तार किया गया था। वहीं 58% भारतीयों का मानना था कि विकास के लिए सरकार बदलना जरूरी है। 32% ने कहा सरकार में एक ही पार्टी का बने रहना विकास के लिए बेहतर है।
2024 के जनादेश ने दर्शाया कि राष्ट्रीय गौरव, पहचान और सुरक्षा के मुद्दे महत्वपूर्ण हैं, लेकिन बेरोजगारी, महंगाई आदि भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें कोई भी दल लंबे समय तक नजरअंदाज नहीं कर सकता। विपक्षी दलों और नवनिर्वाचित लोकसभा अध्यक्ष के बीच हुई नोकझोंक से यह संकेत मिलता है कि विपक्ष इस बार संघर्ष करने के मूड में है। एनडीए को महसूस हो रहा होगा कि इस बार का जनादेश 2014 और 2019 से भिन्न है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)