आखिर बाबा चलते क्यों हैं ?
आखिर बाबा चलते क्यों हैं: जनता का लोभ भावनात्मक सुरक्षा… आर्थिक खाई और शासकीय तंत्र की प्रकृति से भी संरक्षण
उत्तर प्रदेश के हाथरस में गत दिनों एक सत्संग में भगदड़ मचने से 121 भक्तों की कुचलकर मौत हो गई। अधिकांश मृतक दलित थे। आम तौर पर किसी भी भाजपा शासित प्रदेश में दलित उत्पीड़न, हत्या, दुर्घटना का मामला राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ा मुद्दा बन जाता है। परंतु हाथरस मामले में ऐसा नहीं हुआ। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में अव्यवस्था-लापरवाही बरतने के केंद्र में ‘भोले बाबा’ उर्फ नारायण साकार हरि उर्फ सूरजपाल सिंह का सत्संग प्रकरण है। बाबा स्वयं भी दलित समाज से आते हैं। चूंकि यह घटना ‘दलित बनाम सवर्ण’ या ‘जातिगत तनाव’ संबंधी नैरेटिव के अनुकूल नहीं है, इसलिए इस पर मौन की दहाड़ है। परंतु असली विचारयोग्य विषय कुछ और है।
यह उपक्रम न तो एक समाज तक सीमित है और न ही एक देश तक। देश के कई क्षेत्रों में आयोजित चंगाई सभाओं में पादरी दृष्टिबाधित-दिव्यांग और रोगी व्यक्ति को अपने ‘करिश्मे’ से ठीक करने का दावा करते हैं। ईसाई बहुल अमेरिका-ब्रिटेन जैसे विकसित देशों के साथ इस्लामी दुनिया में भी पीर-फकीर का तिलिस्म फैला हुआ है, जिससे वहां का सत्ता-अधिष्ठान भी प्रभावित है। पाकिस्तान में पूर्व क्रिकेटर इमरान खान को प्रधानमंत्री बनाने में उनकी तीसरी बेगम पीर बुशरा मेनका की ‘रूहानी ताकत’ की खूब चर्चा रही है।
लेकिन भारत में बाबाओं की सफलता की वजह अलग है। इसका एक बड़ा कारण शासकीय विफलता है। कोई भी व्यवस्था जितनी अक्षम और भ्रष्ट होगी, समाज में उतनी ही अनिश्चितता और असंतोष बढ़ेगा। यह स्थिति ऐसे बाबाओं के लिए सबसे अनुकूल होती है। सरकार चाहे किसी की हो, उसके अधीनस्थ तंत्र अक्सर संवेदनहीन होता है। देश का बहुत बड़ा हिस्सा दशकों से अपनी जरूरतों (राशन-चिकित्सा-शिक्षा सहित) की पूर्ति के लिए सरकारी उपक्रमों पर निर्भर है। परंतु जन-सरोकार के लिए गठित सार्वजनिक निगम, थाना, बैंक, अस्पताल, स्कूल इत्यादि घूसखोरी, धांधली और उत्पीड़न के पर्याय बन चुके हैं। ऐसे में जनता स्वयं को उपेक्षित व अपमानित महसूस करती है। बीते कुछ वर्षों में नकद धन हस्तांतरण से स्थिति में थोड़ा बदलाव आया है, और लाभार्थियों को बिना सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाए सरकारी योजनाओं का लाभ मिल रहा है। परंतु शेष व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
वर्षों पुरानी शासकीय प्रणाली और उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था की अक्षमता-विफलता का लाभ स्वयंभू ‘चमत्कारी’ बाबाओं को मिलता है। देश भर में ऐसे बाबाओं के कई सौ एकड़ में फैले शिविरों में निशुल्क या सस्ती चिकित्सा प्रणाली, दवा केंद्र, शिक्षा, खेल-उद्यान आदि उपलब्ध हैं, जिन्हें पाकर उनके करोड़ों अनुयायी स्वयं को सम्मानित अनुभव करते हैं। यह लोगों को स्वयंभू संतों से जोड़ने में बड़ा कारक है।
आधुनिकता और निजी स्वतंत्रता के नाम पर शासकीय व्यवस्था नशा-धूम्रपान और लिव-इन संबंधों (समलैंगिकता सहित) को सशर्त स्वीकृति देती है। परंतु समाज का एक बड़ा वर्ग इन्हें स्वीकार नहीं कर पाता है। भले ही बाबाओं का निजी जीवन कैसा हो, परंतु इन विषयों पर वे व्यापक जनभावना को जनसमूह से साझा करते हैं। परिणामस्वरूप बाबाओं की लोकप्रियता बनी रहती है।
मानवीय जीवन अनिश्चितताओं से भरा है और कई मामलों में मनुष्य का नियंत्रण नहीं रहता। उपभोक्तवादी दौर में अपनी व्यक्तिगत सामर्थ्य से ऊपर धन-पद अर्जित करने और सुख-सुविधा पाने की लालसा बढ़ गई है। वह लालसा पूरी नहीं होने पर भी कई लोग इन बाबाओं की शरण में चले जाते हैं, जो भले ही उनकी इच्छा पूरी नहीं कर पाते हों, परंतु अपने आभामंडल से उन्हें मानसिक संतुष्टि जरूर प्रदान करते हैं। यही नहीं, बढ़ते शहरीकरण के कारण वे बिरादरियां और अन्य सामाजिक संरचनाएं भी तेजी से टूट रही हैं, जो कुछ दशक पहले तक व्यक्ति को पहचान व सुरक्षा का भाव देती रही हैं। वर्तमान समय में उसी भावनात्मक सुरक्षा का अभाव है, जिसकी पूर्ति करने में स्वयंभू बाबा और उनकी मंडली बड़ी भूमिका निभाती हैं।
आधुनिक शासकीय व्यवस्था अक्सर मानवीय आवश्यकताओं—रोटी, कपड़ा और मकान से बाहर नहीं जाती। ठीक है कि प्रत्येक मानव की यह मूल आवश्यकता है। परंतु उनकी एक और जरूरत भी होती है, जिसे हम अध्यात्म, भावनात्मक या फिर ‘अपनेपन की भावना’ के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। इसके प्रति राजकीय उदासीनता भी लोगों को स्वयंभू ‘साधु-संतों’ से जोड़ रही है।
भारतीय जीवन-पद्धति और उसकी शैली के केंद्र में आध्यात्मिकता है, जो किसी मजहबी दर्शन जैसी संकीर्ण नहीं है। वैदिक सनातन संस्कृति प्रदत्त इस चेतना को गत कई सदियों से अनेकों महानुभावों (सिख परंपरा, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, गांधीजी, विनोबा भावे सहित) ने आगे बढ़ाया है। परंतु छद्म-धर्मनिरपेक्षता के नाम पर स्वतंत्र भारत में जैसी विकृत व्यवस्था स्थापित की गई, उसमें सत्ता-अधिष्ठान द्वारा आध्यात्मिक जरूरतों को पूरा करना ‘सांप्रदायिक’ चश्मे से देखा जाने लगा। शासन-व्यवस्था और समाज के बीच के इस खालीपन को स्वघोषित ‘संत’ या ‘गुरु’ अपने निजी लाभ के लिए बड़ी चतुराई, छल-फरेब और अपने विशेष प्रभावों से भर देते हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म की प्रधानता बताई गई है। जो व्यक्ति जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा। यदि हम इसे अपने जीवन का सार बना लें, तो समाज में ऐसे बाबाओं की जरूरत नहीं रह जाएगी। लेकिन जो आर्थिक खाई और शासकीय तंत्र की प्रकृति है, उसके चलते क्या ऐसा निकट भविष्य में संभव है?