चुनाव लड़ने की उम्र 25 से 21 साल करने की मांग कितनी व्यवहारिक?

चुनाव लड़ने की उम्र 25 से 21 साल करने की मांग कितनी व्यवहारिक?
भारत में चुनाव लड़ने की उम्र 25 से घटाकर 21 साल करने की मांग उठी है. इस मांग के पीछे एक मुख्य तर्क है कि जब वोट डालने का अधिकार 18 साल की उम्र में मिल जाता है तो चुनाव लड़ने का क्यों नहीं.

आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा ने गुरुवार (1 अगस्त) को राज्यसभा में एक नया मुद्दा उठाया. उन्होंने सरकार से मांग करते हुए कहा कि भारत में चुनाव लड़ने की उम्र 25 साल से घटाकर 21 साल कर दी जाए. उनका कहना है कि हमारा देश तो जवान है, लेकिन नेता जवानी से काफी दूर हैं.

ऐसा ही मुद्दा पिछले साल भी उठा था जब संसद की एक कमेटी ने सुझाव दिया था कि भारत में वोट डालने की उम्र 18 साल है, तो  लोकसभा और विधानसभा के चुनाव लड़ने की उम्र घटाकर 18 साल की जा सकती है. हालांकि तब चुनाव आयोग ने इस विचार का विरोध किया था. उनका कहना था कि 18 साल के बच्चों में इतना अनुभव और समझदारी नहीं होगी कि वे सांसद या विधायक बन सकें. 

अभी के नियम के मुताबिक, लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए कम से कम 25 साल का होना जरूरी है. और अगर कोई राज्यसभा या विधान परिषद का सदस्य बनना चाहता है तो उसे कम से कम 30 साल का होना चाहिए.

ऐसे में सवाल उठता है क्या चुनाव लड़ने की उम्र 25 से घटाकर 18 या 21 साल करने की मांग व्यवहारिक है? एबीपी न्यूज ने पॉलिटिकल एक्सपर्ट्स से बात करके इस मुद्दे को समझने की कोशिश की. आप भी समझिए.

पहले जानिए क्या कहता है भारत का संविधान
संविधान का आर्टिकल 84 (बी) कहता है कि लोकसभा के लिए चुनाव लड़ने की उम्र 25 साल होनी चाहिए. आर्टिकल 173 (बी) कहता है कि विधानसभा के लिए भी 25 साल की उम्र होना अनिवार्य है. इसके अलावा एक और कानून जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 का सेक्शन 36(2) भी यही कहता है.

एक खास नियम ये भी है कि अगर किसी के पास वोटर कार्ड नहीं है तो वह व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, यानी वोटर लिस्ट में नाम होना भी जरूरी है. जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 का सेक्शन 4(डी) कहता है पहले वोटर बनो, फिर चुनाव लड़ो. उसी कानून का सेक्शन 5 (सी) भी यही कहता है.

आखिर राघव चड्ढा ने क्यों उठाया ये मुद्दा?
राज्यसभा सांसद राघव चड्ढा ने सवाल पूछते हुए कहा, भारत दुनिया के सबसे युवा देशों में आता है. हमारे देश की औसत उम्र मात्र 29 साल है. हमारे देश की 65 फीसदी आबादी 35 साल से कम आयु की है. हमारे देश की 50 फीसदी यानी आधे से ज्यादा आबादी 25 साल से कम की है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या हमारे नेतागण चुने हुए प्रतिनिधि भी इतने युवा हैं?” 

“आपको ये जानकर हैरानी होगी कि पहली लोकसभा में 56 फीसदी लोग 40 साल से कम उम्र के थे. हाल ही में अभी खत्म हुई 17वीं लोकसभा में मात्र 12 फीसदी लोग 40 साल से कम आयु के थे. तो जैसे जैसे हमारा देश जवान हो रहा है, हमारे चुने हुए प्रतिनिधि उस जवानी से काफी होते जा रहे हैं.”

राघव चड्ढा ने आगे कहा, ‘आज राजनीति को एक बुरा प्रोफेशन माना जाता है. मां-बाप अपने बच्चे से बड़े होकर डॉक्टर, इंजीनियर, स्पोर्ट्स पर्सनल, साइंटिस्ट, चार्टेड अकाउंटेंट बनने के लिए कहते हैं. लेकिन ये कोई नहीं कहता कि बड़े होकर नेता बनना, राजनीति में जाना. इसलिए लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने की कम से कम उम्र 21 साल होनी चाहिए. अभी ये उम्र 25 साल है. अगर 21 साल का युवा मुख्य धारा की राजनीति में आकर चुनाव लड़ना चाहता है तो उसे अनुमति मिलनी चाहिए.’

एबीपी न्यूज ने राजनीतिक एक्सपर्ट विष्णु से इस मुद्दे पर बात की. उन्होंने कहा, ‘ये सोचने वाली बात है कि 21 साल में युथ कितना समझदार होता है. आमतौर पर 6 साल के बच्चे को फर्स्ट क्लास में एडमिशन मिलता है. करीब 18 साल की उम्र में 12वीं पास करता है. 21 साल की उम्र तक ग्रेजुएशन कर पाता है. ऐसे गिनती के ही लोग होते हैं उम्र से पहले अपनी पढ़ाई पूरी कर लेते हैं. क्या केवल ग्रेजुएशन पास युथ इतना मेच्योर होंगे. बिल्कुल होते हैं  लेकिन बहुत ही कम. कुछ ही लोग ऐसे होते हैं. तो सवाल है कि ऐसे लोगों का कैसे चयन किया जाएगा. तो ऐसे में संभव है कि इसका फायदा पॉलिटिकल लोग ही उठाएं.’

उन्होंने बताया कि राजनेताओं की उम्र को लेकर ऐसे कुछ केस भी सामने आए हैं जिनपर विवाद हुआ है. जैसे बिहार में बीजेपी नेता सम्राट चौधरी पर नामाकरण, डिग्री और उम्र में फर्जीवाड़ा करने का आरोप लगा. सपा नेता आजम खान के बेटे अब्दुल्लाह खान ने चुनाव आयोग में एफिडेविट पर अपनी उम्र 26 साल बताई. इसपर बीजेपी ने आरोप लगाया कि उनकी उम्र 25 साल से भी कम है. ऐसे ही एक बार एफिडेविट में लालू प्रसाद के छोटे बेटे तेजस्वी यादव को बड़े बेटे तेज प्रताप से बड़ा दिखा दिया गया और बड़े बेटे की उम्र कम दिखा दी गई. ये तीनों केस ऐसे हैं जहां वंशवादी राजनीति होती है. उन्हीं को फायदा मिलता है.

चुनाव लड़ने की उम्र घटान से किसे होगा फायदा?
राजनीतिक एक्सपर्ट विष्णु ने सवाल उठाया कि अगर 21 साल का आम युवा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरे तो उसे कौन वोट करेगा? उन्होंने आगे कहा, ‘जनता उन्हें विधायक या सांसद की बात तो दूर, सभासद भी नहीं चुनेंगे. समाज के लिए स्वीकार करना भी बहुत मुश्किल है. साइकोलॉजिकली अपने से पांच साल छोटे उम्र के व्यक्ति को बड़े पद के लिए स्वीकार करना मुश्किल होता है. राहुल गांधी को तो लोग अभी तक पूरी तरह से स्वीकार कर नहीं पाए हैं. इसलिए लगता है कि अगर चुनाव लड़ने की उम्र कम की जाती है तो इससे सिर्फ वंशवादी राजनीति को ही फायदा होगा.’

“राजनीतिक परिवार से आए बच्चों के लिए चुनाव जीतना आसान होता है. जैसे अगर आज पीएम मोदी के बच्चे चुनावी मैदान में होते तो उनके लिए जीतना बहुत आसान था. ऐसे ही किसी भी राजनीतिक परिवार का उदाहरण देख सकते हैं. उनके बच्चों को फिर 25 साल तक का इंतजार नहीं करना पड़ेगा, चार पहले ही चुनाव जीतकर सीट पर कब्जा कर लेंगे. ऐसे आम लोगों के लिए रास्त रुक जाते हैं. आम लोगों में से किसी को भी चुनाव लड़ने का मौका नहीं मिलता है. किसी को 25 से कम उम्र में चुनाव लड़ने का अवसर तब दिया जाना चाहिए अगर वह उसने किसी तरह अपनी काबिलियत साबित की है.”

कानून निर्माता चुनने वाला कानून निर्माता बन भी सकता है?
एबीपी न्यूज ने पत्रकार हमर प्रेम कुमार से भी चर्चा की. उन्होंने चुनाव लड़ने की उम्र घटाने की मांग का समर्थन किया. उन्होंने कहा, ‘कुछ समय पहले तक तो वोट डालने की उम्र 18 साल भी नहीं थी. कुछ साल पहले ही इसे घटाकर 18 साल किया गया और इसका परिणाम अच्छा सामने आया. युवा वर्ग ने बढ़ चढ़कर अपना वोट डाला. 25 साल की उम्र ये सोचकर तय की गई थी कि तब तक व्यक्ति परिपक्व हो जाता है. लेकिन 18 और 25 के बीच में सिर्फ उम्र का अंतर नहीं है. हम ये देखते हैं कि अगर वोट देने का अधिकार दे रहे हैं तो ये मान सकते हैं कि वो परिपक्व है. अगर वह कानून निर्माता को चुन सकता है तो वह स्वयं कानून निर्माता हो भी सकता है.’

“किसी के चाहने से कोई चुनाव नहीं जीतता है. पहले उम्मीदवार बनेगा, फिर जनता अगर उसे उस लायक मानेगी तो अपना नेता चुनेगी. जब वोट देने की उम्र को घटाया गया है तो कानून निर्माता बनने की उम्र की घटाया जाना चाहिए.”

21 के लड़के को पता होगा बजट कैसे बनता है या अंतरराष्ट्रीय संबंध कैसे काम करते हैं?
इस सवाल के जवाब में पत्रकार हमर प्रेम कुमार ने कहा, ‘ये अहम प्वाइंट है क्योंकि हम भी यही मानते हैं कि कम से कम उसे ग्रेजुएट होना चाहिए. लेकिन कानून निर्माता बनने के लिए ऐसी कोई शर्त है नहीं. बिना पढ़ा लिखा व्यक्ति भी कानून निर्माता बन सकता है. ग्रेजुएशन का कानून निर्माता बनने से सीधा कोई संबंध है नहीं. इसलिए ग्रेजुएशन को बाधिता बनाकर पेश नहीं कर सकते. व्यवहारिक तौर पर देख सकते हैं कि ग्रेजुएशन पास हो जाए तो अच्छा है. आमतौर पर 21 साल की उम्र तक ग्रेजुएशन हो जाता है.’

वंशवाद की राजनीति पर पत्रकार हमर प्रेम कुमार ने कहा, “अक्सर हम लोग वंशवाद की राजनीति को खराब मानते हैं. लेकिन सच ये है कि जब जनता स्वीकार करती है तभी कोई सांसद या विधायक बनता है. उम्मीदवार चुनने का तरीका एक पार्टी या वंशवाद हो सकता है मगर जनता के सामने तो कोई बाधिता नहीं है. दूसरी नजर से देखिए जब किसी नेता के घर पत्थर फेंके जाते हैं, उसे गाली दी जाती है, जेल भेजा जाता है तो पूरा परिवार भुगतता है. तो जब दुख में परिवार साथ खड़ा है तो सुख में साथ होना चाहिए. इसलिए परिवार कोई मुद्दा ही नहीं है. जनता जब वोट देगी तभी उसकी जीत होती है.”

खैर हर सिक्के के दो पहलू होते हैं. हर किसी के अपने अलग विचार होते हैं. इस मुद्दे पर भी हैं. ये देखना दिलचस्प होगा कि सरकार चुनावी उम्र घटाने के मुद्दे को कितना तवज्जों देती है और किस नजरिए से सोचती है.

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