संभले और बचा लें धरती !
संभले और बचा लें धरती: प्रकृति का बदलता मिजाज, कहीं भूस्खलन तो कहीं अतिवृष्टि-अनावृष्टि
आजकल भूस्खलन की घटनाएं जलवायु स्थान्तरण के कारण बारिश की तीव्रता व अनियमियता को देखते हुए कुछ ज्यादा बढ़ गयी है. खासतौर पर हिमालयन क्षेत्र में. हाल ही में जो घटनाएं हिमाचल में हुईं उससे स्पष्ट है कि अब जो भी योजनाएं है, उनका लाभ- हानि का विश्लेषण पूरी तरह स्थानीय लोगो की भागीदारी व पारदर्शिता के साथ किया जाय. कुल्लू, मंडी और शिमला जिलों में बादल फटे इससे न सिर्फ आर्थिक बल्कि जान-माल का भी काफी नुकसान हुआ. ऐसा ही कुछ हाल केरल के वायनाड जिले में भी हुआ. इन सब स्थानों पर बारिश से कई घर, पुल और सड़कें बह गईं, सेकड़ो लोग को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा एवं हज़ारो लोग अभी भी गुम है.
भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील राज्य
भूविज्ञान, आकृति विज्ञान और मानव गतिविधियों के आंकड़ो के हिसाब से देखा जाय तो ये जानकारी राज्य और केंद्र सरकारों के पास पहले से उपलब्द्ध है कि, पूरा पश्चिमी घाट, जो कि देश के छह राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल में फैला हुआ है, देश में भूस्खलन के मामले में हिमालय के बाद दूसरे नंबर पर आता है यानी हिमालयीय राज्यों के साथ पश्चिमी घाट वाले राज्य भी भूस्खलन को लेकर बहुत ही संवेदनशील है. इसको अगर केरल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो केरल में लगभग १९००० वर्ग किलो मीटर का पहाड़ी इलाका है. इसका ढलान १० डिग्री से अधिक है, यह राज्य में भूस्खलन को और बढ़ावा देता है. यही कारण है कि केरल का यह क्षेत्र पारिस्थितिक संवेदनशील ज़ोन एक में आता है .
केरल में इसके पहले भी 2018 में 104 और 2019 में 120 मौतें भूस्खलन से हुआ है.जियोलॉजिकल सर्वे आफ इंडिया की रिपोर्ट 2021 के अनुसार केरल के पूरे क्षेत्रफल का 43 फीसदी हिस्सा भूस्खलन संभावित क्षेत्र है.वैज्ञानिकों द्वारा 17 राज्यों दो केन्द्र शासित प्रदेशों के 147 जिलों में वर्ष 1998 से 2022 के बीच 80,000 भूस्खलन की घटनाओं के आधार पर जोखिम का आकलन किया है. इसमें पता चला कि उत्तराखंड, केरल, जम्मू कश्मीर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश में सबसे अधिक भूस्खलन की घटनाएं हुई है. सर्वाधिक भूस्खलन वाले राज्यों की सूची में पहले नंबर पर मिजोरम, दूसरे पर उतराखंड और तीसरे पर केरल है. भारत विश्व के शीर्ष पांच भूस्खलन संभावित देशों में से एक है.
भूस्खलन के प्राकृतिक कारण जैसे अतिवृष्टि, भूकंप,बाढ़ आदि तो है.परन्तु पहाड़ी और पर्वतीय क्षेत्रों में आबादी बढने के साथ ही भूस्खलन को सतत विकास की दृष्टि से भी समझना आवश्यक है. इसमें अनियंत्रित उत्खनन, पहाड़ियों और पेड़ों की कटाई, अत्यधिक बुनियादी ढांचे का विकास, जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश का पेटर्न बदल जाना शामिल है. कई पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण से जुड़े नियम नहीं है अगर है तो प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन नहीं होता है.
भूस्खलन का वर्गीकरण
भूस्खलन को उनकी गति के प्रकार के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है. गति के मुख्य प्रकार गिरना, लटपटाना, फिसलना और प्रवाह हैं. इन क्रियाओ को कुछ इस तरह समझा जा सकता है जैसे गिरना: मिट्टी, मलबे और चट्टान के भार का अचानक हिलना है जो ढलानों और चट्टानों से टूट जाता है. यह यांत्रिक अपक्षय, भूकंप और गुरुत्वाकर्षण बल के परिणामस्वरूप होता है. स्लाइड: यह एक प्रकार का सामूहिक आंदोलन है जिसके तहत फिसलने वाली सामग्री अंतर्निहित स्थिर सामग्री से अलग हो जाती है. लटपटाना: टॉपल विफलता में ढलान से चट्टान, मलबे और पृथ्वी के विशाल द्रव्यमान का आगे की ओर घूमना और गति शामिल है. इस प्रकार की ढलान विफलता चट्टान के खंड के निकट या नीचे एक अक्ष के आसपास होती है. प्रवाह: इस प्रकार के भूस्खलन को पांच में वर्गीकृत किया गया है; पृथ्वी प्रवाह, मलबा हिमस्खलन, मलबा प्रवाह, कीचड़ प्रवाह और रेंगना, जिसमें मौसमी, निरंतर और प्रगतिशील शामिल हैं.
बढ़ता जा रहा है भूस्खलन
भारत में पिछले ७ सालो में कुल ३७८२ भूस्खलन की घटनाएं हुईं थीं. जिसमें सिर्फ केरल में २२३९ घटनाएं हुईं थीं. इसका मतलब सिर्फ केरल में ६०% भूस्खलन की घटना हुई थी. जबकि भूस्खलन के मामले में हिमालय सबसे ज्यादा संवेदनशील है. इसके अलावा भारत में सूखा संभावित क्षेत्र १९९७ से ५७% बढ़ गया है. जबकि अत्यधिक बारिश की घटनाएं पिछले बीस सालो में ८५% बढ़ गयी है . यही सब कारण है कि विश्व बैंक ने चरम जलवायु परिस्थितियों को बेहतर तरीके से प्रबधन करने के लिए इ पी आई सी (सक्षम करें, योजना बनाएं, निवेश करें और नियंत्रण करें ) की रूपरेखा को लागू किया था. इतना ही नहीं केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दिशा निर्देशों का प्रावधान भी किया गया है. इसके बाबजूद केंद्र व् राज्य सरकारों द्वारा नियमो और कानूनों को ताक पर रखकर परियोजनाओं को मंजूरी दे दी जाती है.
२०११ में एक पैनल द्वारा जो रिपोर्ट जारी की गयी उसके अनुसार केरल का पहाड़ी क्षेत्र बहुत ही ज्यादा पारिस्थितिक संवेदनशील है. इसीलिए खनन, बालू और पत्थर निकालने व जल या हवा से बिजली प्रोजेक्ट्स पर रोक लगाने की अनुशंसा की गयी थी, लेकिन १४ साल का समय गुजर जाने के बाद भी पैनल की अनुशंसा लागू नहीं की गयी. यही कारण है कि आज भी पहाड़ियों का विनाश, सड़क निर्माण, पहाड़ी क्षेत्रो में भूमि का विस्तार एवं एक बड़े भू भाग में एकल फसल को बढ़ावा दिया जा रहा है. वैसे भी अरेबियन समुद्र गहरे बादल प्रणाली बनाता है जिससे कारण अत्यधिक बारिश होती है, जो भूस्खलन का कारण बनती है. इसके अलावा अरब सागर का तापमान बढ़ने के कारण ऊष्मप्रवैगिकी (थर्मोडायनामिक्स ) रूप से क्षेत्र को अस्थिर बनता है, जिससे बाढ़ और सुखाड़ जैसी घटनाएं बढ़ जाती हैं.
वायनाड जिले में भूस्खलन का एक मुख्य कारण जंगलो का क्षेत्रफल कम होना भी है. क्योंकि पिछले ७० वर्षो में वन आवरण ६२% कम हो गया है. कभी इस क्षेत्र में ८५% जंगल हुआ करते थे. सड़क निर्माण एवं जल बिजली योजनाओ के कारण जो टनल बनायीं जाती है, ये टनल मिट्टी की पाइपिंग की घटनाओ को जन्म देती है जिससे भूस्खलन की घटनाओ में वृद्धि होती है. इसके अलावा बड़ी मशीनो के चलने के कारण जो कंपन व् स्पंदन होता है यह भी भूकंप की तरह प्रभाव डालता है. इसके अलावा हिमालय पर्वतों से भी पुराना पश्चिम घाट जिसके संरक्षण के लिए भारत सरकार द्वारा 2011 में गाडगिल और 2013 में कस्तूरी रंगन समिति का गठन किया था. फिलहाल सबसे जरूरी है कि सभी पश्चिम घाटों पारिस्थितिकी संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में घोषित किया जाए. केवल सीमित क्षेत्रों में सीमित विकास की अनुमति हो.खनन, उत्खनन और रेत खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाए.
स्पष्ट है कि सरकारों को तत्काल प्रभाव से भूमि और जल प्रबंधन पर बड़े पैमाने पर कार्य करने कि जरूरत है इसके अलावा भूस्खलन से संवेदनशील राज्यों को भूमि उपयोग जोनिंग प्रतिबन्ध लागू करना चाहिए एवं भूस्खलन संवेदनशीलता मानचित्र को ध्यान में रखकर विकास के कार्य किये जायं.
[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि … न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]