संपत्ति के लिए लड़ने वाले भाइयों के अंत से मिली नई पहचान !

 पक्षीराज गरुड़ के नामकरण की कहानी… संपत्ति के लिए लड़ने वाले भाइयों के अंत से मिली नई पहचान
गरुड़ जैसे ही वट-वृक्ष की शाखा पर बैठा, शाखा टूट गई। उसी शाखा से लटककर बालखिल्य ऋषिगण तपस्या कर रहे थे। इसलिए उसने शाखा को अपनी चोंच में पकड़ लिया और एक-एक पंजे में हाथी और कछुए को।

Mythology know how Pakshiraj Garuda got new name
प्रतीकात्मक फोटो –

महर्षि कश्यप की दो पत्नियां थीं–कद्रू और विनता। एक शर्त के चलते विनता को कद्रू की दासी बनना पड़ा। विनता का ज्येष्ठ पुत्र अरुण सूर्य का सारथी बन गया। विनता के छोटे पुत्र गरुड़ ने अपनी मां को कद्रू की दासता से मुक्त कराने का बीड़ा उठाया। परंतु कद्रू ने विनता को दासत्व से मुक्त करने के लिए अमृत की मांग की। गरुड़ ने देवलोक जाकर अमृत लाने का निश्चय किया। देवलोक की यात्रा लंबी थी। मार्ग में गरुड़ को भूख लगी। गरुड़ की काया अति विशाल थी, इसलिए उसकी भूख शांत करना सरल नहीं था। वह इसका समाधान पूछने के लिए अपने पिता कश्यप के पास पहुंचा। कश्यप ने गरुड़ को एक कथा सुनाई-

‘प्राचीनकाल में विभावसु और सुप्रतीक नामक दो ऋषि-भाई थे। सुप्रतीक प्राय: पैतृक-संपत्ति के बंटवारे को लेकर विभावसु से लड़ता था। विभावसु ने कई बार अपने भाई को समझाया कि संपत्ति के लिए लड़ना विनाश और पतन का कारण बनता है। परंतु सुप्रतीक नहीं माना। फिर एक दिन विभावसु को क्रोध आ गया। उसने सुप्रतीक से कहा कि तुम संपत्ति के लिए सदैव मुझसे लड़ते हो। मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम हाथी हो जाओ!’ यह सुनकर सुप्रतीक ने भी क्रोध में विभावसु को शाप दिया-तुम कछुआ हो जाओ! दोनों भाई, एक-दूसरे के शाप से हाथी और कछुआ बनकर आजकल एक सरोवर के निकट रहते हैं। परंतु वे दोनों अब भी लड़ते रहते हैं। उनकी लड़ाई के कारण सरोवर में और उसके आसपास रहने वाले जीव-जंतु भी भयाक्रांत रहते हैं। हाथी की ऊंचाई छह योजन और कछुए की गोलाई दस योजन है। कछुआ मेघ-खंड जैसा तथा हाथी पर्वत के समान दिखता है। तुम उन दोनों को खाकर अपनी भूख शांत कर लो और फिर अमृत लेने देवलोक जाओ।’

यह सुनकर गरुड़ तत्काल सरोवर के निकट पहुंचा। उसने देखा कि हाथी-कछुए में घमासान मचा था। दोनों का आकार देखकर गरुड़ को आश्चर्य हुआ। फिर भी गरुड़ के आकार से उनका कोई मुकाबला न था। गरुड़ ने एक ही झपट्टे में हाथी और कछुए को दबोच लिया और आकाश में उड़ गया। जल्द ही, गरुड़ उड़ता हुआ अलंबतीर्थ पहुंचा। उस पवित्र स्थान पर अनेक विशालकाय वृक्ष थे। गरुड़ ने सोचा कि विशाल वट-वृक्ष की शाखा पर बैठ कर आराम से हाथी और कछुए को खाया जा सकता है। वह जैसे ही वट-वृक्ष की शाखा पर बैठा, वह शाखा गरुड़, हाथी और कछुए के संयुक्त भार से टूट गई। संयोग से, उसी शाखा पर बालखिल्य नाम के ऋषिगण लटककर तपस्या कर रहे थे। गरुड़ ने उन्हें देखा, तो चिंता में पड़ गया। उसने सोचा कि यदि शाखा नीचे गिर गई, तो ऋषियों को चोट पहुंचेगी, इसलिए लपक कर उस शाखा को अपनी चोंच में पकड़ लिया। अब उसकी चोंच में शाखा थी और एक-एक पंजे में हाथी और कछुआ! उन सबको साथ लेकर गरुड़ फिर आकाश में उड़ गया।

यह अद्भुत दृश्य देखकर बालखिल्य ऋषिगण चकित रह गए। वे बोले, ‘यह विलक्षण पक्षी अपने पंखों पर इतना भारी बोझ लेकर उड़ रहा है, अत: इसका नाम ‘गरुड़’ (अत्यधिक भार वहन करने वाला) होना चाहिए!’

इस बीच गरुड़ उस भार को लेकर उड़ता रहा। उसे कोई सुरक्षित स्थान नहीं सूझ रहा था। तब महर्षि कश्यप ने ही गरुड़ को एक ऐसे पर्वत का पता बताया, जहां अनेक गुफाएं और घाटियां थीं, जो सदैव बर्फ से ढकी रहती थीं। गरुड़ पंजों में हाथी व कछुआ तथा चोंच में शाखा को दबाकर उस पर्वत पर पहुंचा। फिर उसने वृक्ष की शाखा को वहीं सुरक्षित रख दिया। ऐसा करने से बालखिल्य ऋषियों को चोट नहीं पहुंची। फिर गरुड़ ने उसी पर्वत की एक ऊंची चोटी पर बैठकर हाथी और कछुए को मारकर खाया। गरुड़ की भूख शांत हो गई थी। कुछ देर विश्राम करने के उपरांत गरुड़ देवलोक जाकर अमृत ले आया और उसने अपनी माता विनता को दासता से मुक्ति दिलाई। इस तरह संपत्ति के लिए लड़ने वाले भाइयों का अंत हुआ और पक्षीराज ‘गरुड़’ को यह नाम मिला

 

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