कल की तुलना में क्या हम आज कम ईमानदार, दयालु, अच्छे हैं?
कल की तुलना में क्या हम आज कम ईमानदार, दयालु, अच्छे हैं?
पड़ोसी देश में चल रही राजनीतिक उठापठक के बाद जब परेशान लोगों का हुजूम एक जगह जुटा, तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि फटे-पुराने कपड़े पहना एक व्यक्ति पेड़ के नीचे गीली मिट्टी पर छड़ी लेकर शांति से गणित की परेशानियां हल कर रहा होगा! 40 की उम्र के आसपास का ये व्यक्ति पिछले हफ्ते भारत-बांग्लादेश सीमा पर पेट्रापोल बाजार की तनावपूर्ण स्थिति में भी यही कर रहा था।
उसके असामान्य शांत व्यवहार ने लोगों को पुलिस को सूचित करने के लिए मजबूर किया। जांच के दौरान उसकी पहचान यूपी में गोरखपुर के गणित शिक्षक अमित कुमार प्रसाद के रूप में हुई, जो एक दशक से अधिक समय से लापता थे।
स्थानीय पुलिस ने हैम रेडियो के शौकीनों की मदद से प्रसाद को उसके पिता गामा प्रसाद और अन्य रिश्तेदारों से सोमवार को मिलाया, जो गोरखपुर के बार्गो से उसे पहचानने के लिए आए थे और इस तरह वर्षों की खोज खत्म हुई।
लापता होने से पहले प्रसाद अपने गृह नगर के स्कूल में, साथ ही पड़ोस के पांच गांवों के 250 से ज्यादा गरीब बच्चों को मुफ्त गणित पढ़ाते थे। गणित के प्रति उनका लगाव बचपन से ही शुरू हो गया था। परिवार को उम्मीद नहीं थी कि वो वर्षों की खोज के बाद जीवित होंगे।
इस वाकिए ने मुझे मुंबई में अप्रैल की एक घटना याद दिला दी, जहां एक ‘स्पेशल चाइल्ड’ लापता हो गया था, पर अपने लॉकेट में क्यूआर कोड की मदद से ठीक छह घंटे में वो परिवार को मिल गया। मालूम चला कि मानसिक रूप से दिव्यांग 12 साल का वो बच्चा खेलते हुए बस में चढ़कर घर से 15 किमी दूर चला गया था।
जब उसे यहां-वहां अकेले भटकते देखा तो लोगों ने पुलिस को सूचना दी और बाद में उसके लॉकेट को स्कैन करने पर घरवालों का फोन नंबर मिला। ये लॉकेट जय वकील स्कूल में कुछ स्पेशल छात्रों को ‘projectchetna.in’ के हिस्से के रूप में बांटे गए थे, जहां वो पढ़ता है।
ऐसी कई घटनाओं के बीच, हाल की ये दो घटनाएं मानवीय करुणा दिखाती हैं और ये उन लोगों के लिए जवाब है, जिन्हें लगता है कि दुनिया पहले से ज्यादा गर्त में जा रही है। उन्हें लगा कि नैतिकता में गिरावट आ रही है- और यह लोगों को लगातार, लालची और कम दयालु बना रही है। पर सच्चाई ये है कि यह धारणा सही नहीं है।
एक व्यापक अध्ययन से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा, दशकों चला ये अध्ययन 60 देशों में 5,75,000 लोगों पर हुआ, इसमें 1940 के कुछ शोध को भी शामिल किया गया, जहां उनकी हमदर्दी, करुणा, आदर और सहृदयता का आकलन किया गया।
इस अध्ययन के प्रमुख लेखक और प्रायोगिक मनोवैज्ञानिक एडम मास्ट्रोयानी कहते हैं, “लोग सोचते हैं कि दुनिया बुरी हो गई है, लेकिन दुनिया वैसी ही है जैसी पहले थी।’ फिर हमें क्यों लगता है कि समाज पहले की तुलना में गिर गया है?
इंसानों का यह यकीन कि आजकल लोग कम भले हैं, इसके पीछे का विज्ञान दरअसल हमारा दिमाग का ध्यान देने का तरीका है। हममें से अधिकांश लोगों के नकारात्मक पूर्वग्रह हैं। अच्छे की तुलना में हम बुरे अनुभवों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि यह एक सर्वाइव करने वाली वृत्ति है जो खतरों का पता लगाती है।
जो चीज हमें सतर्क रखती है कि क्या कोई मुझे नुकसान पहुंचाने जा रहा है, इसलिए हममें से हरेक को चारों ओर खतरे दिखते हैं। इसमें स्मृति भी भूमिका निभाती है। अतीत को हम शौक से याद रखते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि सकारात्मक अनुभव की भावनात्मक शक्ति नकारात्मक अनुभवों की भावनात्मक शक्ति से अधिक समय तक हमारे साथ रहती है।
अध्ययन में कहा गया है कि उम्र बढ़ने से हमारी धारणाएं बदल सकती हैं। एक और अध्ययन कहता है कि जिम्मेदार की भूमिका में रहकर, लोग कदाचार के प्रति अति-उत्तरदायी बनाते हैं, और उसी वजह से हमें एहसास नहीं होता है कि दुनिया नहीं बदली है। …फंडा यह है कि आइए इस स्वतंत्रता दिवस पर समाज को नैतिक पतन के तराजू में तौलकर उसे दोष देना बंद करें और फिर से उतने ही भले, करुणावान और ईमानदार बनने की कोशिश करें, जैसे हम कल हुआ करते थे।