ब्रेनमैपिंग, पॉलीग्राफी, नार्को… सब फेल हो जाए तो क्या है विकल्प?

कोलकाता रेप और मर्डर केस: ब्रेनमैपिंग, पॉलीग्राफी, नार्को… सब फेल हो जाए तो क्या है विकल्प?
कोलकाता रेप और मर्डर केस में सीबीआई जांच के साथ ही पॉलीग्राफी टेस्ट की भी बारी आ गई. मामले में सच से पर्दा उठाने के लिए आरोपी और अन्य संदिग्ध लोगों के पॉलीग्राफी टेस्ट की मदद ली जा रही है. अपराध के गंभीर मामलों में ब्रेनमैपिंग, पॉलीग्राफी और नारको टेस्ट का उपयोग किया जाता है. जानते हैं ये टेस्ट कैसे होता है और कानून की नजर में यह कितना मान्य है? विशेष पड़ताल.
कोलकाता रेप और मर्डर केस: ब्रेनमैपिंग, पॉलीग्राफी, नार्को... सब फेल हो जाए तो क्या है विकल्प?

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कोलकाता रेप और मर्डर केस में आरोपी का पॉलीग्राफी हो या ब्रेन मैपिंग टेस्ट. अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या इससे सच का पता चल जाएगा? क्या ब्रेन मैंपिंग का नतीजा एक फुलप्रूव एविडेंस हैं? जवाब जानकार आप शायद हैरत में पड़ जाएं. क्योंकि ब्रेन मैंपिंग के बाद भी अपराध सिद्ध हो जाए ऐसा नहीं होता, उसके लिए सुबूत की जरूरत फिर भी रहती हैं. तो फिर क्यूं हम सुनते हैं कि कई बड़े मामलों में अपराधी का लाइ डिटेक्टर टेस्ट यानि पॉलीग्राफी टेस्ट, ब्रेन मैंपिंग और नारको टेस्ट किए जाने की मांग जांच एंजेसियां करती हैं?

डिसेप्शन डिटेक्शन टेस्ट

कई बार जघन्य अपराधों को अंजाम देने के बाद अपराधी बचने के लिए कई तरीके अपनाते हैं. पुलिस को लगातार चकमा देते रहते हैं, पुलिस जल्द से जल्द केस सुलझाना चाहती है लेकिन उसके हाथ कोई ठोस सबूत नहीं आता है. ऐसे में ब्रेन मैपिंग टेस्ट, नार्को टेस्ट और पॉलीग्राफ टेस्ट के जरिये पुलिस सच के तह तक पहुंचने की कोशिश करती है. इन्हें डिसेप्शन डिटेक्शन टेस्ट यानि धोखे का पता लगाने वाला परीक्षण भी कहते हैं. इन सभी टेस्ट के अलग-अलग नियम और तरीके हैं.

सबसे पहले बात पॉलीग्राफी यानि लाई डिटेक्टर टेस्ट की.

पॉलीग्राफी टेस्ट क्या है?

पॉलीग्राफ टेस्ट को लाई डिटेक्टर टेस्ट के नाम से भी जाना जाता है. जो सवालों पर किसी व्यक्ति के जवाब देते वक्त उसकी शारीरिक प्रतिक्रियाओं को मापता है. जैसे हम बच्चों के जेस्चर्स और हाव भाव से भांप लेते हैं कि वो कब झूठ बोल रहें हैं ये उसका लार्जर प्रोफेशनल और मशीनी तकनीक है ये सिग्नल बेस्ड है. जैसे किसी बात पर पसीना आता है हार्ट बीट बढ़ती घटती है ब्लड प्रैशर फ्लक्चुएट करता है . जब हम कुछ सोचते हैं, तनाव में होते हैं तो हमारी बॉडी डिफरेंट बायोकेमिकल फिजियोलॉजिकल रिएक्शंस देती है. ऐसे में आरोपी के शरीर के अलग-अलग भाग में सेंसर लगाया जाता है. पॉलीग्राफ मशीन पूछताछ के दौरान हार्टरेट, ब्लड प्रैशर, ब्रीथिंग स्टाइट और पसीना आने जैसे शारीरिक संकेतकों को रिकॉर्ड करती है. इन प्रतिक्रियाओं की निगरानी के लिए कार्डियो-कफ या इलेक्ट्रोड जैसे संवेदनशील उपकरणों का उपयोग किया जाता है.

जब किसी आरोपी से सवाल होता कि कि क्या तुमने मर्डर किया है और यदि उसने नहीं किया है तो बोलेगा नहीं. बोलता है, हां किया है तो उस हिसाब से सिगनल्स यस या नो रेड या ग्रीन के रूप में आते हैं.. सीबीआई के पूर्व डॉयरेक्टर ए पी सिंह कहते हैं- ये भी साक्ष्य के तौर पर नहीं लेकिन जांच में मदद करते हैं. लाई डिटेक्टर पूछताछ की तकनीकी प्रक्रिया में सबसे बुनियादी टेस्ट है. हाल फिलहाल तो इसे टेलीविज़न पर इस तकनीक को रियलटी प्रोग्राम्स में भी देखा गया लेकिन सीबीआई के पूर्व डायरेक्टर एपी सिंह कहते हैं आजकल तो फोन पर भी तमाम एप्स हैं जो बता सकती हैं कि आप झूठ बोल रहे हैं या सच. हालांकि कुछ भी सौ फीसदी परफेक्ट नहीं हैं.

अगले क्रम में नंबर आता है ब्रेन मैंपिंग का. ब्रेन मैपिंग क्या है और किस तरह के अपराधी का ब्रेन मैपिंग किया जाता है?

ब्रेनमैपिंग भी इंटैरोगेशन यानि पूछताछ का एक तरीका है. जिसमें साइंटिफिक हेल्प के द्वारा ब्रेन के पास अलग अलग सेंसर लगा करके अपराधी से सवाल किया जाता है. उसके दिमाग में क्या चल रहा है. वह क्या सोच रहा है, उसके रिएक्शन क्या हैं उसके सिग्नल आते हैं जिसके आधार पर पॉजिटिव और नेगेटिव इंटरप्रिटेशन किया जाता हैं. इससे पता लगाया जाता है कि आरोपी का इंटरेस्ट क्या है. उसका इंटेंशन उसकी नीयत क्या है. ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग को थर्ड डिग्री टॉर्चर का रिप्लेसमेंट कहा जाता है. जिसमें ज्यादा टॉर्चर करने की जरूरत नहीं है. और इन्वेस्टिगेशन में मदद मिलती है.

ब्रेनमैंपिंग के सवालों को भी एक्सपर्ट तैयार करते हैं और जवाबों का आंकलन भी एक्सपर्ट करते हैं. सवाल सीधे और सपाट नहीं होते .

ब्रेनमैपिंग के लिए कैसे मिलती है मंजूरी?

इस तरह के टेस्ट के लिए आरोपी की सहमति जरूरी है. तब ही कोर्ट की मंजूरी मिलती हैं. (कई मामलों में अगर कंसेंट नहीं मिलता है लेकिन कोर्ट ने परमिट कर दिया तो अपराधी का ब्रेन मैपिंग करवाया जाता हैं. अगर किसी केस में ब्रेन मैपिंग जरूरी लगता है तो कोर्ट से परमिशन लेकर कराया जाता है.)

कैसे होती है ब्रेनमैपिंग?

फॉरेंसिक एक्सपर्ट अमरनाथ मिश्रा बताते हैं- ब्रेनमैपिंग सिस्टम बेस्ड का प्रोसेस है, जैसे ECG (इलेक्ट्रो कार्डियो ग्राम) होता है वैसे EEG होता है . ब्रेन का जो रिस्पॉन्स होता हो वो सिस्टम से अटैच होता है. एक्सपर्ट आरोपी के दिमाग में चल रही एक्टिविटी का अध्ययन करते हैं समझते हैं . वो क्या सोच रहा है किसी बात पर उसका नजरिया जा रहा है. वह कहां तक सोच रहा है,

यदि हम नॉर्मल थिंकिंग करते हैं तो दिमाग हमारा नॉर्मल प्रोसेस करता है लेकिन अगर कोई डीप थिंकिंग करता हैं या किसी केस में इन्वॉल्व है तो सावलों के जवाबो में ब्रेन की प्रतिक्रिया से पता चल जाता है कि वो आत्मग्लानि, गिल्ट में है क्या वो जैसा सोचता है वैसी तरंगें आती हैं फिर ग्राफ्स बनते हैं इससे पता चल जाता है कि दिमाग के किस हिस्से से वो सोच रहा है.

ब्रेन मैपिंग के दौरान अपराधी कुछ छिपाने लगे तो!

यदि ब्रेन मैपिंग के दौरान अपराधी कुछ छिपाने की कोशिश करता है तो वह तरंगों से मापा जा सकता है. ब्रेन के Sensory Organs होते हैं जो तीनों हिस्से होते हैं, Cortical, Whole Brain System और Cortex क्योंकि ब्रेन से ही पूरे बॉडी का कंट्रोल है. जिस हिसाब से Receptors और चीज़ें लगी होती हैं.

लेकिन फिर वही बात कि ब्रेन मैंपिंग कोर्ट में परमिसिबल यानि मान्य एविडेंस नहीं है. ब्रेन मैंपिंग के दौरान अगर अपराध कबूला है और हथियार किसी जगह छुपाने की बात कुबूली है तो उस जगह बरामद हथियार ही फिंगिरप्रिंट्स के साथ एविडेंस होगा.

नार्को टेस्ट क्या होता है?

सीबीआई के पूर्व डॉयरेक्टर ए पी सिंह कहते हैं नार्को टेस्ट पूछताछ के लिए अपनाया जाने वाले सबसे आखिरी हथियार माना जा सकता है. बहुत ही पेंचीदा केस जिसमें आपको कोई क्लू नहीं मिल रहा तो नारको टेस्ट किया जाता है. क्योंकि इसके अपने खतरे हैं. इसे मेडिकल प्रैक्टिशनर की देख रेख किया जाता है. जिसमें आरोपी को सोडियम पैंटथॉल नाम का नारकोटिक सब्सटेंस इंजेक्शन के ज़रिए दिया जाता है, जिसे ट्रुथ सीरम भी कहा जाता है ये सेडेटिव नेचर का होता है. शरीर में इसकी मात्रा का बहुत ध्यान रखना पड़ता हैं. डोज में मिस्टेक हुई तो जान भी जा सकती है.

आरोपी की सहमति और कोर्ट की मंजूरी के बिना ये टेस्ट संभव नहीं. इंजेक्शन के बाद आरोपी अनकॉन्शियस स्टेज में चला जाता है उसका अपनी इंद्रियों पर कंट्रोल नहीं होता है. जब उससे सवाल किए जाते हैं तो वो जवाब कंट्रोल नहीं कर पाता, झूठ को छुपा के नहीं रख पाता बोल देता है.

इस टेस्ट में कई तरह के सवाल होते हैं. जैसे ब्रेन मैपिंग, लाइ डिटेक्शन में होते हैं इन्हें एक्सपर्ट तैयार करते हैं केस के हिसाब से लेकिन सवाल सीधे और सपाट नहीं होते. सवाल उठता है कि अगर कोई बेहोशी में बात करता है तो उसे प्रूफ कैसे बोला जा सकता है इसलिए उसकी वैल्यू जीरो हो गई उसको केवल इंटेरोगेशन प्रक्रिया में लिया गया और उसके आधार पर इन्वेस्टिगेशन होगा और कोई एविडेंस मिलता है तो वो प्रमाण काउंट होगा.

पॉलीग्राफी, ब्रेनमैंपिंग और नार्को टेस्ट में किस तरह के सवाल किए जाते हैं?

फॉरेंसिक एक्सपर्ट अमरनाथ मिश्रा बताते हैं- जिस अपराधी पर शक हो तो उससे उसका बायो पूछा जाएगा, उसकी फैमिली के बारे में फिर धीरे-धीरे उससे केस से रिलेटेड सवाल किया जाता है. उससे सवाल पूछा जाएगा कि विक्टिम को कैसे जानते हो? कितने दिन से जानते हो, उससे कोई रिवेंज की भावना तो नहीं थी? उसके बारे में क्या सोचते हो और क्या तुमने मर्डर किया और यदि मर्डर किया तो क्यों किया? किस हथियार से किया है और उसे कहां छुपाया है? तुमने डेड बॉडी कहां छुपाई थी, उसमें तुमको कौन मदद किया. उसको थोड़ा इमोशनल होकर ये भी बोला जाता है कि ये बहुत बड़ा क्राइम है. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि वो इस धारा में बहके अपनी बातें बोले.

ए पी सिंह कहते हैं टेस्ट में कई बार ट्रिक क्वेश्चन किए जाते हैं दस सवाल साधारण पूछे अचानक कोई ऐसा सवाल पूछ दिया जिसमें आप घबरा गए तो मशीन वो घबराहट पकड़ लेती है. इस सबकी रिकॉर्डिंग वीडियोग्राफी होती है. एविडेंस के तौर पर दो विटनेस, एक पुलिस पर्सन, एक एक्सपर्ट और एक मेडिकल प्रैक्टिशनर होते हैं. ये इंटेरोगेशन इन्वेस्टिगेशन में भी मदद करता है लेकिन साक्ष्य यानि एवीडेंस नहीं माना जाता है.

अब सवाल उठता हैं कि जब सवाल ही पूछने हैं तो तीनों टेस्ट में अंतर क्या है?

तीनों टेस्ट में क्या अंतर है?

लाई डिटेक्शन बेसिक है और इसमें भी मंजूरी लेनी पड़ती है. लाई डिटेक्शन तो नॉर्मल इन्वेस्टिगेशन प्रक्रिया में हो जाता है. इसी तरह ब्रेन मैपिंग में भी कुछ नहीं दिया जाता है. जबकि नारको की प्रकिया थोड़ी पेंचीदगी भरी हैं क्यूंकि इसके अपने खतरे हैं .

क्या फेल हो सकते हैं ये तीनों टेस्ट

भारत में ऐसे बहुत से केस हैं कि इन नार्को एनालिसिस, ब्रेन मैपिंग और लाई डिटेक्शन होने के बाद भी सच सामने नहीं आ पाया है. सीबीआई के पूर्व डॉयरेक्टर ए पी सिंह कहते हैं उन्हें याद हैं आरुषि तलवार केस के समय वो सीबीआई में ही थे तो तीन नौकरों को बैंगलूरू ले जाकर उनका नारको टेस्ट किया गया लेकिन उसका कोई संतोषजनक परिणाम नहीं निकला और रिपोर्ट में बाद में मेन्यूप्लेशन की खबरें भी आई और जांच में शामिल महिला को हटा भी दिया गया.

जबकि फॉरेंसिक एक्सपर्ट अमरनाथ मिश्रा कहते हैं कि अगर हमें मन मुताबिक नतीजे नहीं मिलते तो हम ये पहले से मानकर लेते हैं कि वह क्रिमिनल है और सच बता नहीं रहा है जबकि इसका मतलब है जांच में हमारा सिस्टम फेल हो गया.

एक्सपर्ट मानते हैं ये प्राइमरी एविडेंज नहीं हैं ये कोलेबरेटिव हैं सब चीज़ें निश्चित रूप से, कंबाइंड रूप से किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती हैं. यानि ना तो लाई डिटेक्टर टेस्ट एवीडेंस हैं. ना ब्रेन मैंपिंग के नतीजे एविडेंस है ना नारको टेस्ट की रिकॉर्डिंग सुबूत है.

किसने बनाई लाइ डिटेक्टर मशीन?

मशीन के जरिए अपराधियों से सच कबूल करवाने के लिए लाई डिटेक्टर मशीन को 1921 में जॉन अगस्तस लार्सन ने बनाया था. पॉलीग्राफ टेस्ट के बारे में सबसे पहले 1730 में ब्रिटिश उपन्यासकार डैनियलडिफो ने अपने एक आर्टिकल में लिखा था. ऐसा भी माना जाता है कि सबसे पहले इटैलियन फिजिशिस्ट एंजेलो मोसो ने पॉलीग्राफ टेस्ट करने वाली मशीन जैसा ही एक यंत्र बनाया था लेकिन 1921 में जॉन अगस्तस लार्सन ने इसे पूरा किया. इस टेस्ट के ज़रिए भारत में कई बार आतंकियों और अपराधियों से सच निकलवाया गया है.

कब टेस्ट से अपराधियों ने किया इनकार

कई बार अपराधियों ने इस टेस्ट को देने से इंकार भी किया है. ऐसे एक मामले में साल 2010 में सेल्वी बनाम कर्नाटक स्टेट केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना कोई लाई डिटेक्टर टेस्ट नहीं किया जाना चाहिए. 1997 में डीके बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पॉलीग्राफ और नार्को टेस्ट का बिना सहमति प्रयोग अनैतिक प्रशासन अनुच्छेद 21 या जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के संदर्भ में क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार के बराबर होगा.

नार्को टेस्ट का इतिहास

नार्को टेस्ट की शुरुआत सबसे पहले 1922 में हुई थी. अमेरिका में एक प्रसूति रोग विशेषज्ञ रॉबर्ट हाउस ने दो कैदियों के परीक्षण हेतु नशीली दवाओं का प्रयोग किया था.

2002 – भारत में पहली बार नार्को टेस्ट 2002 के गोधरा कांड की जांच में किया गया . अब्दुल रज्जाक, इरफान शिराज़, बिलाल हाजी, कासिम अब्दुल सत्तार, और अनवर मोहम्मद समेत कई आरोपियों का नारको टेस्ट किया गया.

2007 में मुंबई के गैंगस्टर अबू सलेम का नार्को-एनालिसिस टेस्ट किया गया जिसमे माना गया कि कई खुलासे हुए जो पुलिस की जांच में काम आए

2007 में ही हैदराबाद में हुए दो बम धमाकों के आरोपी अब्दुल कलीम और इमरान खान का भी नार्को टेस्ट हुआ.

2008 में आरुषि तलवार हत्याकांड में राजेश तलवार के तीन नौकरों कृष्ण, राजकुमार और विजय मंडल का नारको टेस्ट हुआ

मुंबई में 26/11 में हुए आंतकवादी हमले के आतंकवादी अजमल कसाब का भी नार्को टेस्ट हुआ .

ब्रेन फिंगिर प्रिंटिंग का इतिहास

ब्रेन फिंगरप्रिंटिंग का आविष्कार अमेरिका निवासी पहले ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस डॉ लॉरेंस फरवेल ने किया था. उन्होंने ही इस तकनीक के अधार पर ब्रेन मैपिंग टेस्ट का पटेंट कराया था.

थ्रिलर संस्पेंस वाली क्राइम मूवी या वेब सीरीज़ में नारको या लाइ डिटेक्टर टेस्ट देखकर रोमांच तो आता हैं लेकिन असल जिंदगी में ये सब परीक्षण तब ही ठोस मजबूत माने जाते हैं जब उसके हिसाब से सुबूत भी मिलें और डॉयलॉग तो आपने सुना ही होगा अदालत सुबूत मांगती है.

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