बीता दशक धर्म की राजनीति का था, अगला जाति का होगा?

बीता दशक धर्म की राजनीति का था, अगला जाति का होगा?

एक वरिष्ठ नेता ने एक बार मुझसे कहा था, भारत में राजनीति तीन बड़े फैक्टर्स- धर्म, जाति और अमीर-गरीब के इर्द-गिर्द ही चलती है। नीति निर्माण, सुशासन, विकास- ये सब अच्छी बातें हैं, लेकिन इन तीन चीजों से ही सब कुछ तय होता है। इसमें भी, अमीर-गरीब वाला फैक्टर एक सीमा के बाद मायने नहीं रखता, क्योंकि सभी दल दावा करते हैं कि वे गरीबों के पक्ष में हैं। अमीरों का पक्ष लेने में कोई फायदा नहीं है, जो वैसे भी अल्पसंख्यक हैं। इसीलिए सभी दलों में रेवड़ी-वितरण को लेकर होड़ रहती है।

लेकिन राजनीति का असल खेल धर्म और जाति के नाम पर होता है। पिछला दशक धर्म के इर्द-गिर्द घूमता रहा। भाजपा स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार हिंदू वोटों को एक साथ लाने में कामयाब रही। यह धर्म से जुड़े मुद्दों की पहचान करके किया गया, जिन पर इससे पहले ध्यान नहीं दिया गया था।

हर भारतीय रामायण देखते-सुनते हुए बड़ा हुआ। यह कहानी अयोध्या में घटित होती है। ऐसे में यह सोचना कि अयोध्या में कोई बड़ा राम मंदिर नहीं है, हिंदुओं को हैरान करता था। यह भावनात्मक मुद्दा भाजपा ने अपने हाथ में ले लिया। दशकों लग गए, लेकिन आखिरकार अयोध्या में मंदिर बन गया। इस जैसे मुद्दों ने सत्ता के लिए वोट हासिल करने में भाजपा की मदद की।

इस बीच, जाति का मुद्दा अपेक्षाकृत रूप से निष्क्रिय रहा। कुछ विशेषज्ञों ने यह भी तर्क दिया कि शायद जाति अब इतना बड़ा मुद्दा नहीं रह गया है। जातिगत भेदभाव शायद इस हद तक कम हो गया था कि यह अब मतदाताओं को आकर्षित नहीं करता।

जाति आधारित आरक्षण भी सात दशकों से अधिक समय से लागू है। लेकिन ये धारणा गलत थी। हकीकत यह है कि जाति भारतीय राजनीति में एक मजबूत मुद्दा थी, है और रहेगी। वास्तव में, यह अगले दशक में सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर साबित हो सकती है।

इसका कारण यह है कि संविधान में ही जाति-आधारित आरक्षण अंतर्निहित है। सरकारी नौकरियों और कॉलेज में दाखिले जैसे कुछ राज्यसत्ता के संसाधन वंचितों के लिए आरक्षित किए गए हैं। हालांकि यह उत्पीड़ित समुदायों की मदद के लिए किया गया था, लेकिन इसका मतलब यह भी है कि जातिगत-विभाजन हमेशा बना रहेगा।

धर्म के मामले में अगर कुछ धर्मस्थलों पर विवादों को छोड़ दें तो कोई कानूनी-विभाजन नहीं है। धार्मिक-विभाजन मुख्यतया अलग-अलग मान्यताओं, संस्कृति और मूल्यों का मामला है, लेकिन जाति के मामले में एक अंतर्निहित प्रतिस्पर्धा निर्मित हो गई है।

नौकरियां और सीटें सीमित हैं, और उनका एक हिस्सा आरक्षित रखा जाता है। इसके पीछे चाहे जितनी अच्छी मंशा हो, यह व्यवस्था विभाजन की गुंजाइशें पैदा करती है। किसे आरक्षण मिलता है, किसे नहीं? नौकरियों और सीटों का कितना प्रतिशत आरक्षित होना चाहिए? और किन क्षेत्रों में? उच्च स्तर पर वंचित जातियों का प्रतिनिधित्व कितना है?

क्या आरक्षण योग्यता और प्रतिभा की कीमत पर लागू हो रहा है? क्या उच्च जाति के बच्चे आरक्षण की कीमत चुका रहे हैं? ये तमाम सवाल न केवल जायज हैं, बल्कि हमारी व्यवस्था में स्थायी भी बन चुके हैं। और चूंकि जाति-व्यवस्था मुख्य रूप से हिंदुओं पर लागू होती है, इसका मतलब यह भी है कि इससे हिंदू समाज में एक स्थायी विभाजन बना रहता है। ऐसे में इस पर राजनीति क्यों कर ना होगी?

2024 के चुनावों से उत्साहित विपक्ष ने समझ लिया है कि अब भारतीय राजनीति में जाति को फिर से बुनियादी मुद्दा बनाने का समय आ गया है। लेकिन क्या यह देश के लिए अच्छा है? धर्म और जाति दोनों ही पहचान की राजनीति पर आधारित हैं और देश को बांटते हैं।

इस फेर में इकोनॉमी, शिक्षा, बुनियादी ढांचा जैसे मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाते हैं। यही कारण है कि इतना सब होने के बावजूद हम चीन जैसी महाशक्ति नहीं बन पाते हैं। लेकिन इसका एक सकारात्मक पहलू भी है, इन विभेदों के चलते ही हमारा लोकतंत्र जीवंत बना हुआ है!

विपक्ष ने समझ लिया है कि जाति को फिर से बुनियादी मुद्दा बनाने का समय आ गया है। लेकिन क्या यह देश के लिए अच्छा है? ऐसे मुद्दे देश को बांटते हैं। इस फेर में इकोनॉमी, शिक्षा, बुनियादी ढांचा जैसे मुद्दे पृष्ठभूमि में चले जाते हैं।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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