कोई पंडितों का दर्द महसूस नहीं करता…?
कोई पंडितों का दर्द महसूस नहीं करता…यहां सब सियासत कर रहे हैं साहब; उभर आता है पलायन का दर्द
कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी में चुनावी चर्चाएं गायब हैं। पूछने पर विस्थापन का दर्द उभर आता है। उनका कहना है कि पार्टियां हमें वापस ले जाने की बातें करती हैं, कोई हमसे नहीं पूछता है कि हम जाएंगे कैसे?
कश्मीरी पंडित उनके एजेंडे में भी हैं, जिनके राज में उन्हें घाटी से बाहर किया गया था और उनके भी, जो उनके हमदर्द बनते आए हैं। पंडित कहते हैं कि उनके दर्द को कोई महसूस नहीं करना चाहता। सब सियासत करते हैं। जम्मू शहर से करीब 27 किलोमीटर दूर नगरोटा विधानसभा क्षेत्र के जगती में 2010 में कश्मीरी पंडितों की कॉलोनी बसाई गई थी।
यहां करीब चार हजार पंडितों के परिवार रहते हैं। लेन नंबर पांच में करीब पांच सौ घरों के बीच बने एक पार्क के पूरे हिस्से में चहारदीवारी के बराबर ऊंची घास है। पार्क बंद है। घरों से रंग उतर चुका है। बारिश के पानी से दीवारें जगह-जगह काली पड़ी हैं। चुनावी माहौल का असर कॉलोनी में कहीं दिखाई नहीं देता।
कोई घूमता-टहलता भी नहीं दिखता। कुछेक बुजुर्ग बच्चे या फिर कहीं काम से जा रहे लोग नजर आ भी जाएं तो बात नहीं करना चाहते। चुनाव पर तो बिल्कुल नहीं। अपने मित्र अवतार कृष्ण के साथ टहल रहे ओंकार नाथ कौल से जब कश्मीरी पंडितों और चुनाव पर सवाल किया तो उनका दर्द उभर आया।
अवतार कृष्ण कहते हैं कि 90 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद शुरू हुआ तो कई कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया। उनकी हत्याएं हुईं। जमीनें छीन ली गईं, रातों-रात पूर्वज घर छोड़ने को मजबूर हुए। किसी के बच्चे छूट गए तो किसी के माता-पिता तो किसी का भाई-बहन और पत्नी। कौन, कहां गया पता नहीं चला।
जगती कॉलोनी में ही रह रहे जेके बट कहते हैं कि हमें अमन-चैन के साथ विकास चाहिए बस। कहीं कुछ मत बसाओ, किसी को कहीं न ले जाओ। रोजगार पैदा करो और युवाओं को काम दो। इन्हीं के पास खड़े एक बुजुर्ग कहते हैं कि आपको नहीं पता घाटी में कश्मीरी पंडितों के साथ जो क्रूरता हुई वह कितनी भयानक थी।
शारदा टिक्कू कहती हैं कि जब यहां आए थे तो वापसी की उम्मीद थी। सन 2000 तक चुनावों के दौरान कॉलोनी के लोग बैठक बुलाते थे और वोटिंग करने के लिए सब कुछ तय करते थे। धीरे-धीरे समझ आ गया कि हालात बदल नहीं रहे हैं और वापसी संभव नहीं है। नई पीढ़ी भी आगे बढ़ गई है तो अब उधर नहीं देखते हैं। इसलिए अब चुनाव हों या न हों कॉलोनी के लोगों को बहुत फर्क नहीं पड़ता।
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