असंख्य बांधों के फाटक लबालब भरे जलाशयों से पानी निकालने के लिए खोल दिए गए हैं, जिससे सभी बांधों के निचले हिस्से में बाढ़ आ गई है। इससे खड़ी फसलों और संपत्ति की क्षति हो रही है। अब ऐसी स्थिति हर दूसरे-तीसरे साल पैदा होने लगी है, कभी इस राज्य में तो कभी उस राज्य में। परिणामस्वरूप शहरी संपत्ति तथा आधारभूत ढांचे की भारी क्षति हो रही है।

भारतीय किसान और खेतिहर मजदूर ग्रामीण आर्थिकी का हिस्सा हैं। जलवायु परिवर्तन के चलते उनका सामना कभी सूखा, कभी बाढ़ और कभी चक्रवात से पड़ने लगा है। ग्रामीण क्षेत्र में फसलें जलमग्न होकर नष्ट हो जा रही हैं। जो किसान गरीबी रेखा के ऊपर आ गए थे, जल के इस कहर से एक बार पुनः गरीबी रेखा को छूने या उसके नीचे जाने लगे हैं।

प्राकृतिक प्रकोप का सामना करना अब एक सालाना परंपरा बन गई है। किसानों और कृषि मजदूरों को स्थायी रूप से गरीबी के दायरे से बाहर निकालने के लिए नए उपायों के बारे में अब सोचना होगा। इसके लिए ड्रेनेज सिस्टम को उन्नत बनाने और अतिवृष्टि के दुष्परिणामों से बचने के लिए जलनिकासी के लिए बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास की आवश्यकता बढ़ गई है।

भारत विश्व के 2.4 प्रतिशत भौगोलिक भूभाग एवं चार प्रतिशत जल संसाधन की मदद से अपनी खाद्यान्न संबंधी आवश्यकताएं पूरी करता है, लेकिन अतिवृष्टि से आई बाढ़ से दलहन और तिलहन फसलों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। देश पहले से ही दाल और खाद्य तेल की कमी से जूझ रहा है।

दरअसल पानी की अधिकता दलहन और तिलहन की दुश्मन है। 2016 को अंतरराष्ट्रीय दलहन वर्ष के रूप में मनाया गया था। उसी दौरान भारत विश्व बाजार से दाल आयात करने के लिए मजबूर हुआ। घरेलू मांग की पूर्ति के लिए भारत ने कनाडा, बर्मा, तंजानिया, मोजांबिक आदि देशों का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उनके पास भी दलहन की कमी थी। लिहाजा ऊंचे दाम पर दूसरे देशों से भारत दाल आयात के लिए मजबूर हुआ। तभी से देश में दलहन की कीमत बहुत बढ़ी हुई है। ऐसी स्थिति इस साल भी पैदा होने की आशंका है।

आज भारत की आबादी चीन से अधिक हो गई है। हमारे देश के नागरिक प्रोटीन की अपनी आवश्यकता मुख्य रूप से दाल से ही पूरी करते हैं। ऐसे में हमें फिर से विश्व बाजार की ओर देखना होगा। इस वर्ष आए आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार देश में दलहन और तिलहन का उत्पादन कम रहने वाला है। लिहाजा आगे भी देश में दलहन और तिलहन की कमी रहने वाली है।

वास्तव में दुनिया में कहीं भी इतनी अधिक दाल पैदा नहीं होती कि वहां से आयात कर भारत अपनी मांग पूरी कर सके। दाल के आयात पर भारी खर्च और घरेलू बाजार में इसकी कमी देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लोगों के पोषण को निश्चित रूप से प्रभावित करेगी। ऐसी स्थिति से बचने के लिए देश में बेहतर जलनिकासी का प्रबंध हो जाए तो बरसात से हो रही जगह-जगह जलमग्नता और बाढ़ पर कारगर नियंत्रण किया जा सकता है।

अब जलवायु परिवर्तन जगजाहिर है। जलवायु परिवर्तन वायु और जल से संबंधित है। इसके चलते तूफान-चक्रवात, अतिवृष्टि या बादल का फटना, भूस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं अब बार-बार होंगी। इससे देशव्यापी दलहन और तिलहन फसलों की हानि के अलावा मौजूदा इन्फ्रास्ट्रक्टर जैसे-रेल, सड़क, बिजली, पुल और दूरसंचार नेटवर्क आदि की भारी क्षति होती रहेगी।

परिणामस्वरूप राष्ट्र को जानमाल की क्षति भी उठानी पड़ी। इससे बचने के लिए हमें जल्द ही कुछ दीर्घकालिक समाधान करने चाहिए। इस पर राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श करना समय की मांग है। इसके लिए सबसे पहले बाढ़, चक्रवात और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव का एक वैज्ञानिक अध्ययन संबंधित विभागों और मंत्रालयों के सहयोग से किया जाना चाहिए। इसके विश्लेषण के उपरांत किसी निष्कर्ष पर पहुंच कर एक राष्ट्रव्यापी नीति बनानी चाहिए।

यह अच्छी बात है कि जल संरक्षण के लिए इन दिनों देश में आठवें जल सप्ताह का आयोजन हो रहा है। उसमें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ठीक कहा कि जल स्रोत सीमित हैं और उनके सक्षम उपयोग से ही सभी के लिए जल की आपूर्ति संभव है। उन्होंने जल की हर एक बूंद को बेशकीमती बताते हुए देश के प्रत्येक नागरिक से जल योद्धा के रूप में कार्य करने का आह्वान किया।

अनेक वैज्ञानिक अध्ययन समाज को यह बताते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण भविष्य में प्राकृतिक आपदाएं शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में और कहर बरपाएंगी। फलस्वरूप बड़ी संख्या में जलवायु परिवर्तन शरणार्थी सामने आएंगे। आगे जल प्रलय का प्रारूप क्या होगा, यह सिर्फ प्रकृति को ही पता है। इससे निपटने के लिए 142 करोड़ जनसंख्या वाले भारत को एक आपदा प्रबंधन और निवारण तंत्र बनाकर रखना होगा।

इसके लिए गांवों और शहरों में जल निकासी के लिए व्यापक जल इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करना चाहिए। इन्फ्रास्ट्रक्टर को इस तरह बनाना चाहिए कि वे भारी बारिश को भी झेल सकें। साथ ही सभी नदियों को आपस में जल्द से जल्द जोड़ा जाना चाहिए ताकि एक स्थान के बाढ़ का पानी दूसरे स्थान का संरक्षित जल संसाधन बने, न कि ऐसे ही व्यर्थ में बह जाए। इस मद में भारी निवेश करना होगा। यह भारत को 2047 तक विकसित और आत्मनिर्भर राष्ट्र बनाने में सहायक होगा।

(लेखक नई दिल्ली स्थित आइसीएआर-आइएआरआइ के जल प्रौद्योगिकी केंद्र के पूर्व परियोजना निदेशक हैं)