ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भर भारत…

समाज: ग्रामीण अर्थव्यवस्था और आत्मनिर्भर भारत… खेती-किसानी के साथ कुटीर-लघु उद्योगों को भी बढ़ावा देना जरूरी
डॉ. लोहिया के विकास संबंधी विचार आज भी प्रासंगिक हैं, जिनके अनुसार, समावेशी विकास तभी मुमकिन है, जब सभी आत्मनिर्भर हों।
Indian Society Socialism of Rammanohar Lohia Indigenous Production Rural Economy and Atmanirbhar Bharat
समाजवादी सिद्धांत, महिलाओं की भागीदारी और विकास की मुख्य धारा..

डॉ. राममनोहर लोहिया को समाजवादी सिद्धांत का प्रणेता कहा जाता है। उनके अनुसार, समाजवाद ही वह सिद्धांत है, जिस पर चलकर वंचित तबके को भी विकास की मुख्यधारा में लाया जा सकता है। समाजवाद की परिभाषा के अनुसार, यह एक ऐसी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था है, जिसमें उत्पादन के साधनों और संपत्ति पर सार्वजनिक स्वामित्व होता है और सरकार द्वारा यह नियंत्रित नहीं किया जाता है। इसका मूल सार यह है कि उत्पादन के साधनों का सार्वजनिक स्वामित्व समाज में समानता लाने में अहम भूमिका निभाता है।

इसी वजह से दुनिया के अनेक देशों में इसे विकास का सबसे बेहतर सिद्धांत माना जाता है। वैसे, भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है। अर्थात यहां उत्पादन के साधनों का स्वामित्व सरकारी और निजी, दोनों हाथों में है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह पूंजीवाद और समाजवादी सिद्धांतों का मिश्रण है। समाजवादी सिद्धांत के अनुरूप डॉ. लोहिया समावेशी विकास के समर्थक थे। वह देश के विकास में सभी लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करना चाहते थे। यह तभी मुमकिन था, जब देश के सभी लोग आत्मनिर्भर हों, यानी कोई रोजगार करें या स्वरोजगार। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र के भी वे पैरोकार थे अर्थात सभी लोग व्यक्तिगत तौर पर स्वतंत्र हों, अपने अधिकारों का इस्तेमाल करें, लेकिन साथ में कुछ निश्चित जिम्मेदारियों का भी निर्वहन करें, क्योंकि तभी हमारा समाज और देश विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के तौर-तरीकों के बारे में महात्मा गांधी और डॉ. लोहिया की विचारधारा में समानता थी। डॉ. लोहिया के अनुसार, देश की ग्रामीण आबादी को सबल बनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर व लघु उद्योगों की स्थापना करना आवश्यक है। डॉ. लोहिया का मानना था कि देश में पूंजी और तकनीकी कौशल की कमी है। इसलिए यूरोप या रूस की विकासात्मक रणनीति को अपनाकर भारत में विकास की गति को तेज नहीं किया जा सकता है। वे चाहते थे कि देश में गांधी जी के कुटीर उद्योग और नेहरू के भारी उद्योग के नजरिये के बीच का रास्ता अपनाया जाए, ताकि देश में समावेशी विकास को बल मिल सके।

उनके अनुसार, कृषि और औद्योगिक विकास की गति में समानता हो, ताकि किसानों व ग्रामीणों को भी विकास की राह पर आगे लेकर बढ़ा जा सके। डॉ. लोहिया चाहते थे कि रेल, इस्पात आदि भारी उद्योग केंद्र सरकार की देखरेख में चलें, लेकिन कृषि आधारित उद्योगों का स्वामित्व एवं प्रबंधन जिलों, तहसील और गांवों पर छोड़ दिया जाए। वह युवाओं और महिलाओं को विशेष तरजीह देते थे। उनका मानना था कि युवा देश के कर्णधार हैं, क्योंकि वे एक लंबे समय तक देश के विकास में सहभागी बने रहते हैं। इसलिए उन्हें कौशलयुक्त बनाने की जरूरत है, ताकि वे बेरोजगार नहीं रहें और देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने में सतत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहें। डॉ. लोहिया लिंग के आधार पर भेदभाव करने के सख्त खिलाफ थे। उनके अनुसार, शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का स्थान देकर लैंगिक भेदभाव की समस्या को जड़ से खात्मा किया जा सकता है। वह महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना चाहते थे।

डॉ. लोहिया जानते थे कि भारत जैसे बड़े देश में वंचित तबकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए, देश में अकाल पड़ने पर भोजन की समस्याओं के समाधान के लिए उत्तर प्रदेश के देवरिया और बिहार के डाल्टनगंज में चल रहे ‘घेरा डालो’ आंदोलन का समर्थन उन्होंने किया था। वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार के पक्षधर थे, लेकिन किसी भी मामले में एकतरफा कारोबार के हिमायती नहीं थे, यानी आयात और निर्यात बराबर होना चाहिए।

भारत लगभग 200 साल की गुलामी के बाद आजाद हुआ था, जिसके कारण वह अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण मानकों पर पिछड़ चुका था। उस कालखंड में देश की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती थी। फिर भी, डॉ. लोहिया चाहते थे कि देश के विकास को देश के जनमानस का विकास करके सुनिश्चित किया जाए और इस सफर में सभी को आत्मनिर्भर बनाकर और हर क्षेत्र को विकसित करके ही विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता था। डॉ. लोहिया के मुताबिक, ग्रामीण भारत में खेती-किसानी के साथ-साथ कुटीर व लघु उद्योगों को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। इनके माध्यम से ही ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। विकास में सभी की भागीदारी होने से स्वतः ही देश आर्थिक रूप से सशक्त हो सकता था और इसके लिए सत्ता को विकेंद्रित करने की भी जरूरत है। उनके अनुसार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाकर ही समग्रता में देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सकता है।

इसी वजह से दुनिया के अनेक देशों में इसे विकास का सबसे बेहतर सिद्धांत माना जाता है। वैसे, भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था को अपनाया गया है। अर्थात यहां उत्पादन के साधनों का स्वामित्व सरकारी और निजी, दोनों हाथों में है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह पूंजीवाद और समाजवादी सिद्धांतों का मिश्रण है। समाजवादी सिद्धांत के अनुरूप डॉ. लोहिया समावेशी विकास के समर्थक थे। वह देश के विकास में सभी लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करना चाहते थे। यह तभी मुमकिन था, जब देश के सभी लोग आत्मनिर्भर हों, यानी कोई रोजगार करें या स्वरोजगार। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और लोकतंत्र के भी वे पैरोकार थे अर्थात सभी लोग व्यक्तिगत तौर पर स्वतंत्र हों, अपने अधिकारों का इस्तेमाल करें, लेकिन साथ में कुछ निश्चित जिम्मेदारियों का भी निर्वहन करें, क्योंकि तभी हमारा समाज और देश विकास के पथ पर आगे बढ़ सकता है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के तौर-तरीकों के बारे में महात्मा गांधी और डॉ. लोहिया की विचारधारा में समानता थी। डॉ. लोहिया के अनुसार, देश की ग्रामीण आबादी को सबल बनाने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर व लघु उद्योगों की स्थापना करना आवश्यक है। डॉ. लोहिया का मानना था कि देश में पूंजी और तकनीकी कौशल की कमी है। इसलिए यूरोप या रूस की विकासात्मक रणनीति को अपनाकर भारत में विकास की गति को तेज नहीं किया जा सकता है। वे चाहते थे कि देश में गांधी जी के कुटीर उद्योग और नेहरू के भारी उद्योग के नजरिये के बीच का रास्ता अपनाया जाए, ताकि देश में समावेशी विकास को बल मिल सके।

उनके अनुसार, कृषि और औद्योगिक विकास की गति में समानता हो, ताकि किसानों व ग्रामीणों को भी विकास की राह पर आगे लेकर बढ़ा जा सके। डॉ. लोहिया चाहते थे कि रेल, इस्पात आदि भारी उद्योग केंद्र सरकार की देखरेख में चलें, लेकिन कृषि आधारित उद्योगों का स्वामित्व एवं प्रबंधन जिलों, तहसील और गांवों पर छोड़ दिया जाए। वह युवाओं और महिलाओं को विशेष तरजीह देते थे। उनका मानना था कि युवा देश के कर्णधार हैं, क्योंकि वे एक लंबे समय तक देश के विकास में सहभागी बने रहते हैं। इसलिए उन्हें कौशलयुक्त बनाने की जरूरत है, ताकि वे बेरोजगार नहीं रहें और देश में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने में सतत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहें। डॉ. लोहिया लिंग के आधार पर भेदभाव करने के सख्त खिलाफ थे। उनके अनुसार, शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं को पुरुषों के बराबर का स्थान देकर लैंगिक भेदभाव की समस्या को जड़ से खात्मा किया जा सकता है। वह महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाना चाहते थे।

डॉ. लोहिया जानते थे कि भारत जैसे बड़े देश में वंचित तबकों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। इसलिए, देश में अकाल पड़ने पर भोजन की समस्याओं के समाधान के लिए उत्तर प्रदेश के देवरिया और बिहार के डाल्टनगंज में चल रहे ‘घेरा डालो’ आंदोलन का समर्थन उन्होंने किया था। वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार के पक्षधर थे, लेकिन किसी भी मामले में एकतरफा कारोबार के हिमायती नहीं थे, यानी आयात और निर्यात बराबर होना चाहिए।

भारत लगभग 200 साल की गुलामी के बाद आजाद हुआ था, जिसके कारण वह अर्थव्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण मानकों पर पिछड़ चुका था। उस कालखंड में देश की एक बड़ी आबादी गांवों में रहती थी। फिर भी, डॉ. लोहिया चाहते थे कि देश के विकास को देश के जनमानस का विकास करके सुनिश्चित किया जाए और इस सफर में सभी को आत्मनिर्भर बनाकर और हर क्षेत्र को विकसित करके ही विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता था। डॉ. लोहिया के मुताबिक, ग्रामीण भारत में खेती-किसानी के साथ-साथ कुटीर व लघु उद्योगों को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। इनके माध्यम से ही ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। विकास में सभी की भागीदारी होने से स्वतः ही देश आर्थिक रूप से सशक्त हो सकता था और इसके लिए सत्ता को विकेंद्रित करने की भी जरूरत है। उनके अनुसार, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाकर ही समग्रता में देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जा सकता है।

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