इस्राइल-हमास युद्ध में अपराधी कौन और सहयोगी कौन?
संघर्ष: इस्राइल-हमास युद्ध में अपराधी कौन और सहयोगी कौन?
अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (आईसीसी) ने इस्राइयल और हमास, दोनों को युद्ध अपराधों का दोषी माना है और यह बिल्कुल उचित भी है। पिछले अक्तूबर में हमास द्वारा किए गए नरसंहार को किसी भी ऐतिहासिक संदर्भ में न तो माफ किया जा सकता है और न ही इसकी व्याख्या की जा सकती है। बदला लेने की कोशिश में उसने अंधाधुंध कार्रवाई और बमबारी की है। स्कूलों और अस्पतालों को नष्ट किया है। हजारों फलीस्तीनियों को मारने के अलावा भोजन, पानी और बिजली की आपूर्ति को रोककर या प्रतिबंधित कर अनगिनत लोगों को भुखमरी के कगार पर पहुंचा दिया है।
गाजा में संघर्ष की कवरेज में मुख्य रूप से दो प्रतिस्पर्धी पक्षों पर ध्यान केंद्रित किया गया है- इस्राइल और हमास। यह कॉलम उन समूहों या राष्ट्रों पर ध्यान केंद्रित करता है, जिन्होंने संघर्ष पैदा करने और उसे कायम रखने में भूमिका निभाई है। अक्सर अपराधों के मामले में अपराधी के पास सहयोगी होते हैं। तो फिर वे कौन लोग हैं, जिन्होंने एक तरफ हमास और दूसरी तरफ इस्राइल की मदद की है?
हमास का प्रमुख सहयोगी ईरान और लेबनान स्थित आतंकवादी समूह हिजबुल्लाह है। प्रमुख पश्चिमी मीडिया नियमित रूप से इसका नाम लेकर उसे शर्मिंदा भी करता है। इसके बावजूद वह इस्राइल के सहयोगियों की पहचान करने से कतराता है। निस्संदेह इस्राइली सरकार के इन कृत्यों के पीछे अमेरिका का बड़ा हाथ है। उसने इस्राइल को लगातार सैन्य मदद दी है, उसे गाजा (और अब लेबनान) पर हमला जारी रखने के लिए जरूरी हथियार भेजे हैं। अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तावों के खिलाफ वीटो या मतदान करके इस्राइल को राजनयिक संरक्षण की भी पेशकश की है।
अमेरिका की मिलीभगत के इन्कार का उदाहरण पिछले सप्ताह मैंने पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के साक्षात्कार में सुना। उनसे कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ाने के अनुभव के बारे में पूछा गया, जहां वह विजिटिंग प्रोफेसर हैं। पिछले साल उन्होंने जब पढ़ाना शुरू किया तो कुछ समय बाद ही कोलंबिया (और अन्य परिसरों) में छात्रों के शृंखलाबद्ध विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जिनमें मांग की गई कि इस्राइल गाजा पर बमबारी बंद करे और युद्ध विराम पर सहमत हो। सुश्री क्लिंटन ने इन विरोध प्रदर्शनों को इस आधार पर सिरे से खारिज कर दिया कि उन्हें ‘बाहर’ से समर्थन और वित्त पोषण प्राप्त था। इनमें से कुछ प्रदर्शनकारियों को ‘यहूदी-विरोध’ द्वारा सक्रिय किया गया था।
इस प्रदर्शन में बाहर के बिना बुलाए कुछ एजेंट जरूर थे, लेकिन प्रदर्शनकारियों में से अधिकांश इसी विश्वविद्यालय के छात्र और संकाय सदस्य थे। इसके अलावा गाजा में महिलाओं और बच्चों की निर्मम हत्या के विरोध में होने वाले प्रदर्शन में अपने पूर्वजों की पक्षपातपूर्ण प्रतिबद्धता के खिलाफ कई यहूदी छात्र भी शामिल हुए। हिलेरी क्लिंटन का इंटरव्यू लेने वाले फरीद जकारिया भी उनके सामने अपने तथ्यों को नहीं रख पाए। हिलेरी क्लिंटन को सुनकर मुझे ऐसा लगा कि न्यूयॉर्क से दूर भी एक दूसरी एजेंसी है, जिसे समर्थन मिलता है और फंडिंग प्राप्त होती है। यह इस्राइल है, जिसे अमेरिका का वरदहस्त प्राप्त है। मुझे ऐसा लगा कि अगर हिलेरी क्लिंटन ने अपनी ही टिप्पणियों को ध्यान से सुना होता तो शायद उनमें आत्मचिंतन की क्षमता अधिक होती। मुझे इस बात पर संदेह है कि वाशिंगटन में एक लंबा समय गुजारने के बाद वह अपनी सरकार को किसी भी चीज के लिए दोषी ठहराएंगी।
वर्तमान विवाद से पहले अमेरिकी राष्ट्रपतियों और सरकारों ने अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन में इस्राइल को अपनी मौन सहमति दी है। पूरे पश्चिमी तट पर के आस-पास हो रहे यहूदियों के विस्तार की वजह से वाशिंगटन को कभी हल्की फटकार तो लगती है, लेकिन कभी ठोस कार्रवाई नहीं हुई। चाहे वह डेमोक्रेटिक प्रशासन हो या फिर रिपब्लिक, दुनिया के सबसे ताकतवर देश ने इस्राइली सेना के समर्थन से फलीस्तीन की जमीन पर बसने वाले यहूदियों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। दशकों से बस रहे इन यहूदियों ने फलीस्तीन राज्य के निर्माण को असंभव बना दिया। इसमें अमेरिका और इस्राइल, दोनों बराबर के दोषी हैं। अमेरिका अंतरराष्ट्रीय कानून के आपराधिक उल्लंघनों में इस्राइल का प्रमुख भागीदार रहा है।
हालांकि इसमें अन्य देश भी सहयोगी हैं, जिनमें ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी शामिल हैं और सही मायनों में देखा जाए तो हम भी कम दोषी नहीं हैं। हम हमास द्वारा इस्राइल पर किए गए हमलों की पहली बरसी तो मनाते हैं, पर जब हम इस्राइल के हाथों मारे जा रहे निर्दोष फलीस्तीनियों को लेकर विचार करते हैं तो हमें अमेरिकियों की तुलना में कुछ हद तक अधिक आत्मजागरूक और आत्मआलोचनात्मक होना चाहिए। हमें अपनी सरकार को भी इस बात के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए कि उसने कम से कम दो तरीकों से इस्राइली अभियान को सहायता प्रदान की। पहला, संयुक्त राष्ट्र महासभा में गाजा में संघर्ष विराम और इस्राइल से अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करने के आह्वान वाले प्रस्तावों का समर्थन न करना और दूसरा, युद्ध की वजह से खस्ताहाल हुई इस्राइल की अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के लिए भारतीय प्रवासी मजदूरों को भेजना।
वर्तमान भारतीय सरकार द्वारा इस्राइल को समर्थन देने की दो प्रमुख वजहें हैं। इनमें से एक व्यक्तिगत है, नरेंद्र मोदी और बेंजामिन नेतन्याहू के बीच दशकों पुरानी दोस्ती। दूसरा यह है कि मुसलमानों को संदेह की दृष्टि से देखना है। पिछले महीने जब संयुक्त राष्ट्र महासभा में मध्य-पूर्व संकट पर चर्चा हो रही थी, तब भारत की ओर से कुछ खोखले वादे ही पेश किए गए। दूसरी ओर, स्लोवेनिया के प्रधानमंत्री ने टिप्पणी करते हुए कहा, “मैं इस्राइली सरकार को स्पष्ट रूप से कहना चाहता हूं कि रक्तपात बंद करो, पीड़ा बंद करो, बंधकों को घर लाओ और कब्जा खत्म करो। नेतन्याहू अब इस युद्ध को रोकें।” ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री ने कहा, “अब लगभग 300 दिन हो गए हैं, जब ऑस्ट्रेलिया के अलावा 152 अन्य देशों ने युद्ध विराम के लिए मतदान किया था और आज मैं उस बात को फिर से दोहराता हूं। लेबनान अगला गाजा नहीं बन सकता।” गौर करने वाली बात है कि स्लोवेनिया और ऑस्ट्रेलिया न केवल लोकतांत्रिक देश हैं, बल्कि इस्राइल के मुखिया अमेरिका से उनके घनिष्ठ संबंध भी हैं। इसके बावजूद उनके नेताओं में वह दूरदर्शी साहस है, जिसका हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री, दोनों में स्पष्ट रूप से अभाव है।
मध्य-पूर्व में इस्राइल को एकमात्र लोकतांत्रिक देश माना जाता है। अमेरिका दुनिया का सबसे अमीर और शक्तिशाली लोकतंत्र है, जबकि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करता है। गाजा में मानवता के खिलाफ अपराधों को जारी रखने के लिए इन देशों ने जो किया है, उसे देखते हुए ये सभी दावे खोखले लगते हैं। जैसा कि प्रताप भानु मेहता ने संक्षेप में कहा है, “यहां तीन लोकतंत्र हैं, जो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बर्बाद कर रहे हैं- इस्राइल अपने संघर्ष की क्रूरता से, अमेरिका उसे सहायता देकर और मिलीभगत से तथा भारत अपनी टालमटोल से, जो मिलीभगत के दायरे में ही आता है।”