पश्चिम एशिया में महायुद्ध के खतरे को टालने के लिए जरूरी है कूटनीतिक पहल
पश्चिम एशिया में महायुद्ध के खतरे को टालने के लिए जरूरी है कूटनीतिक पहल
लेबनान खटकता रहा है लंबे समय से
लेबनान फिलीस्तीनी छापामारों का केंद्र रहा है. इन छापामारों को समाप्त करने के उद्देश्य से इजरायल ने जून 1982 में लेबनान पर भारी बमबारी की थी. जुलाई 1981 के युद्ध विराम के बाद इजरायल का यह सबसे बड़ा हमला था. उन दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ की सक्रियता मायने रखती थी. तब सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाई गई थी और इजरायल को बिना शर्त तुरंत लेबनान से अपने सैनिकों को हटाने का निर्देश दिया गया. गुटनिरपेक्ष देशों ने भी एक प्रस्ताव पारित कर सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का समर्थन किया था. किंतु अब हालात बदल गए हैं. अब फिलीस्तीनी मुक्ति संगठन का नेतृत्व करने के लिए यासिर अराफात नहीं हैं. अराफात को वैश्विक स्तर पर समर्थन प्राप्त था. फिलीस्तीनियों को उनका जायज हक दिलाने के मसले पर शिया व सुन्नी दोनों एकजुट हैं, लेकिन फिलहाल पश्चिम एशिया के किसी भी नेता को विश्व समुदाय विश्वसनीय नहीं मानता है. “फतेह” और “हमास” के आपसी टकराव ने स्थाई शांति की उम्मीद धूमिल कर दी. हिजबुल्लाह के आतंकी हमलों के कारण इजरायल की आक्रामकता बढ़ गयी है.
हमास के बाद हिजबुल्ला और फिर ईरान
इजरायल “हमास” को सबक सिखा चुका है. अब हिजबुल्लाह के शीर्ष नेतृत्व को खत्म कर इस संगठन को समूल नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है. इजरायली सेना सीमावर्ती गांवों में घुस कर हिजबुल्लाह के खिलाफ जमीनी कार्रवाई कर रही है. सेना द्वारा उन गांवों को निशाना बनाया गया है जहां हिजबुल्लाह के ठिकाने हैं. माना जा रहा है कि ऐसे ठिकाने इजरायल के लिए खतरा पैदा करते रहे हैं. लेबनान के कार्यवाहक प्रधानमंत्री नजीब मिकाती ने मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि उनका देश अपने इतिहास के सबसे खतरनाक क्षणों में से एक का सामना कर रहा है. हिंसाग्रस्त इलाकों के लोग अपनी जान बचाने के लिए विस्थापित हो रहे हैं. पश्चिम एशिया के वर्तमान संकट के किरदार उतावलेपन का परिचय दे रहे हैं. हिजबुल्लाह और ईरान की अदूरदर्शिता के कारण महायुद्ध का खतरा मंडरा रहा है.
ईरान ने 180 मिसाइलें दाग कर अपनी निडरता का परिचय दिया है. इस शिया बहुल मुल्क की अति-सक्रियता के विपरीत अरब जगत के देश इजरायल के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई के लिए उत्सुक हैं. अरब मुल्क हमेशा इजरायल की स्थापना के खिलाफ रहे हैं. मई 1948 में जिस दिन इजरायल की स्थापना की घोषणा हुई थी उसी दिन सीरिया, इराक, मिस्र एवं जोर्डन की सेनाओं ने “यहूदियों के देश इजरायल” पर आक्रमण कर दिया था. लेकिन अब स्थितियों में व्यापक परिवर्तन आ चुका है. अरब प्रायद्वीप के ज्यादातर देश आर्थिक हितों को प्राथमिकता देने लगे हैं. सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश महाबली अमेरिका के साथ अपने रिश्ते खराब नहीं कर सकते. ये मुल्क आतंकी समूहों के कृत्यों का समर्थन नहीं करते हैं. इजरायल के वजूद को बचाये रखने में अमेरिका ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसलिए ईरान के विरुद्ध लड़ाई में अमेरिका दृढ़ता से इजरायल के साथ है.
इजरायल और अरब देश
इजरायल औद्योगिक और आर्थिक दृष्टि से पश्चिम एशिया का एक संपन्न देश है. अपनी स्थापना काल से ही यह देश अरबों की साजिश नाकाम करता रहा है. यूरोपीय देशों के साथ इसने व्यापारिक समझौते किए और अमेरिका के यहूदियों से पर्याप्त मात्रा में आर्थिक सहायता भी प्राप्त की. इजरायल की प्रगति से अरब मुल्कों की ईर्ष्या स्वाभाविक है. नेतन्याहू के नेतृत्व में इजरायल के हौसले बुलंद हैं. मुस्लिम बिरादरी की सहानुभूति फिलीस्तीनी एवं लेबनानी नागरिकों के साथ है. लेकिन आम लोगों की तकलीफों से इजरायल बेपरवाह है. हमास, हिजबुल्लाह और ईरान ने उसके सामर्थ्य को चुनौती देकर बड़ी गलती कर दी. इसलिए अब अपने नागरिकों की रक्षा हेतु वह आक्रमकता के साथ युद्ध कर रहा है.
इजरायल की नीतियों के आलोचकों का मानना है कि इजरायल ने अपनी क्रूरता से मानवीय मूल्यों को चकनाचूर कर दिया है. लेकिन यह सच भी स्वीकार करने की जरूरत है कि फिलीस्तीनियों के अधिकारों की लड़ाई की प्रकृति अब धर्मनिरपेक्ष नहीं रही. चरमपंथियों के सहारे इस जटिल मसले को सुलझाया नहीं जा सकता. हमास, हिजबुल्लाह एवं ईरान कूटनीतिक संवाद पर भरोसा जताने के बजाय हथियारों का इस्तेमाल करना श्रेयस्कर समझ रहे हैं. सभी पक्ष प्रतिशोध की मानसिकता में फंसे हुए हैं. इजरायल पिछले साल 7 अक्टूबर को उस पर हुए हमास के हमले से बेचैन है.
तीसरे विश्वयुद्ध के मुहाने पर दुनिया
ईरान द्वारा दागी गयी मिसाइलों का जवाब देने के लिए अगर इजरायल कोई सैन्य कार्रवाई करता है तो तृतीय विश्वयुद्ध की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. इजरायल ने संकट के समाधान में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख एंटोनियो गुट्रेस के किसी भी किस्म की भूमिका को मानने से मना कर दिया है, लेकिन पश्चिम एशिया को बर्बाद होने से बचाने की कोशिश होनी चाहिए. अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव में उलझा हुआ है. अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन की तुलना वुडरो विल्सन एवं फ्रैंकलिन रूजवेल्ट से नहीं की जा सकती है. विदेश नीति के मोर्चे पर बाइडेन की उपलब्धि कितनी प्रशंसा की हकदार है, यह भी विमर्श का एक विषय हो सकता है. नाटो के विस्तार की आकांक्षाओं को रूस ने यूक्रेन पर आक्रमण करके विफल कर दिया है.
फिलहाल व्लादिमीर पुतिन की प्राथमिकता यूक्रेन मोर्चा है. यूरोपीय संघ की बयानबाजी से मसले का हल नहीं निकल सकता. चीन ने हमेशा अपने आर्थिक हितों का ख्याल रखा है. ऐसी स्थिति में भारत को अरब देशों के साथ अपने संबंधों का उपयोग करते हुए शांति के लिए पहल करनी चाहिए. इजरायल की तरह भारत भी आतंकी संगठनों को सबक सिखा रहा है, लेकिन गौतम बुद्ध की शिक्षाओं को आत्मसात करने वाला भारत शांति के पथ पर ही चलने का हिमायती है. वैश्विक बिरादरी को पश्चिम एशिया को बदले की आग में जलने से बचाना होगा, अन्यथा आनेवाली पीढ़ियां शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का मतलब नहीं समझ पाएंगी.
नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.यह ज़रूरी नहीं है कि ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है