जीता हुआ चुनाव भी हार सकती हैं पार्टियां…?

जो सबक मैंने सीखे: चुनाव एक निर्णायक फुटबाल मैच जैसा, जीता हुआ चुनाव भी हार सकती हैं पार्टियां…?
चुनावों में मेगाफोन, माइक्रोफोन, पोस्टर, पर्चे, झंडे और तोरण द्वार जैसे पारंपरिक प्रचार तरीकों के दिन लद गए। अब सोशल मीडिया, टेलीविजन विज्ञापन, फेक न्यूज और ‘पैकेज’ की आड़ में छपने वाली ‘पेड न्यूज’ चुनाव प्रचार के नए हथियार हैं।

Election Experience learnt during campaigning polling similar to football match
पेड न्यूज (प्रतीकात्मक) –
एक उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ना कठिन काम है, हालांकि यह बने-बनाए रास्ते पर चलने जैसा है। एक उम्मीदार का चुनाव प्रबंधन करना कठिन और मुश्किल काम है। राजनीतिक दल के राज्य प्रभारी के नाते चुनाव प्रबंधन करना और भी जटिल काम है, जिसमें आपको अलग-अलग काम करने होते हैं। चुनाव एक निर्णायक फुटबाल मैच की तरह है, जिसमें तय होता है कि एक कोच जीतेगा और दूसरा हारेगा। एक पार्टी चुनाव जीतती है या हारती है, लेकिन जब किसी राजनीतिक दल द्वारा हारे गए चुनाव की संख्या जीते गए चुनाव से अधिक होती है तो यह उसके लिए चिंतन करने का समय होता है। मेरी चुनावी यात्रा 1984 के लोकसभा चुनाव से शुरू हुई थी। मैंने आठ लोकसभा चुनाव लड़े और सात में जीत दर्ज की। इससे इतर मैंने कई चुनाव कराए हैं। अभी भी मैं अपने जिले में चुनाव प्रबंधन देखता हूं।

समय बदल गया है
एक समय था, जब चुनाव जीतने के लिए चेहरा, भाषण और हाव-भाव ही काफी होते थे, लेकिन अब वो दौर नहीं रहा। फिर ऐसा भी समय आया, जब प्रत्याशी किसी जाति के नेताओं का समर्थन प्राप्त कर लेते थे तो उस जाति से जीतने के लिए जरूरी वोट मिल जाते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है। पहले घोषणा-पत्र बहुत महत्व नहीं रखता था, लेकिन अब रखता है। एक समय राजनीतिक दल ‘नैरेटिव’ शब्द से भी अनभिज्ञ थे, लेकिन आज के चुनावों में पूरा खेल ही नैरेटिव बनाने के इर्द-गिर्द रहता है। चुनावों में मेगाफोन, माइक्रोफोन, पोस्टर, पर्चे, झंडे और तोरण द्वार जैसे पारंपरिक प्रचार तरीकों के दिन लद गए। अब सोशल मीडिया, टेलीविजन विज्ञापन, फेक न्यूज और ‘पैकेज’ की आड़ में छपने वाली ‘पेड न्यूज’ चुनाव प्रचार के नए हथियार हैं। शुक्र है कि कुछ अखबार अपनी विश्वसनीयता बनाए हुए हैं। मुझे डर है कि अगले 10 वर्षों में चुनाव में मीडिया की भूमिका अप्रासंगिक हो सकती है।

कुछ चीजें हमेशा मायने रखती हैं
चुनावी परिदृश्य में आए नाटकीय बदलावों का बीते 50 वर्षों से गवाह रहा हूं, लेकिन कुछ चीजें लगातार प्रासंगिक बनी हुई हैं और ये हमेशा रहेंगी। बस समय के साथ इनमें कुछ सुधार होगा। एक राजनीतिक दल के लिए कुछ आधारभूत चुनावी बातें इस प्रकार है-

1-शहर और जिला इकाइयां
किसी भी राजनीतिक दल की राष्ट्रीय समिति तीन माह में एक बार बैठक कर सकती है, जो कि काफी नहीं है। किसी भी पार्टी के लिए जिला, शहर, ब्लॉक, वार्ड और गांव स्तर पर गठित समितियां हृदय की तरह हैं, जिनका 24 घंटे धड़कते रहना जरूरी है। ये पार्टी की नींव होती हैं। आप उस राजनीतिक दल के बारे में क्या कहेंगे, जिसने कई सालों से जिला, शहर और इनके अधीनस्थ समितियों का गठन नहीं किया या पदाधिकारियों की नियुक्ति नहीं की? मैं कहूंगा कि उस राज्य में वह दल सिर्फ विचारों में ही मौजूद है।

2-समावेशी नीतियां
ज्यादातर राजनीतिक दल सदस्यता अभियान में सर्व समाज से जुड़ते हैं, कार्यकारी समितियों में भी सभी वर्गों को प्रतिनिधित्व देते हैं, लेकिन उम्मीवारों के चयन में इसे भूल जाते हैं। इसमें वे ‘जीतने की संभावना’ की आड़ में किसी खास जाति के प्रत्याशी को बाहर कर देते हैं। मतदान से पहले ही यह मान लेना कि कोई खास जाति पार्टी का समर्थन करेगी या कोई खास जाति विपक्षी पार्टी को समर्थन देगी, उम्मीदवारों के चयन को एक जाति के पक्ष में ला देगा और अन्य जातियों को हाशिए पर पहुंचा देगा। मेरा अनुभव है कि चुनाव दर चुनाव जातियों का प्रभाव लगातार कम हुआ है। हालांकि जब महिलाओं की बात आती है तो ‘जीतने की संभावना’ का बनावटी तर्क हर सीट पर पुरुष उम्मीदवार के पक्ष में जाता है।

3-पार्टी अनुशासन
चुनावों में सभी दलों में अनुशासन भंग हो जाता है। अपने ही पार्टी के प्रत्याशी के खिलाफ काम करना तो आम बात है। बागी उम्मीदवारों को उतारने का चलन भी तेजी से बढ़ रहा है, जिनमें से कुछ विपक्षी दल द्वारा उतारे गए होते हैं। यह खतरनाक परंपरा है। कई बार बागी उम्मीदवार को मिले वोट आधिकारिक प्रत्याशी को तीसरे या चौथे स्थान पर पहुंचा देते हैं। ज्यादातर मामलों में देखने को मिलता है कि पार्टी कार्यकर्ताओं की पहली प्राथमिकता बागी उम्मीदवार था। एक राज्य विधानसभा चुनाव के विश्लेषण से पता चला कि बागी उम्मीदवारों के चलते एक दल 17 सीट हार गया।

4-बूथ समितियां
वर्तमान में कुछ राजनीतिक दलों के पास सक्रिय बूथ समितियां है। इसकी शुरुआत डीएमके और एआईएडीएमके ने की थी। हाल के वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मदद से भाजपा ने भी द्रविड़ दलों की नकल करने की कोशिश की और कुछ हद तक सफल भी हुई। बूथ समितियां अंतिम चरण में प्रचार से अकेले माहौल बना सकती हैं, साथ ही मतदान के दिन मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद कर सकती हैं। ऐसे में जो पार्टी बूथ स्तर पर अपना संगठन खड़ा नहीं करेगी, वो संभावित समर्थकों के वोट गंवा देगी।

5-चुनाव प्रबंधन
ऐसा व्यक्ति जिसने कभी चुनाव न लड़ा हो या जिसने कभी चुनाव न जीता हो, वह सबसे खराब चुनाव प्रभारी होगा। एक चुनाव प्रभारी को मतदान से छह माह पहले राज्य में अपना ठिकाना बना लेना चाहिए, उसे तकनीकी रूप से जानकार होना चाहिए, किसी भी जाति या लैंगिक भेदभाव से मुक्त होना चाहिए और विपक्षियों से निपटने की क्षमता होनी चाहिए। सभी पार्टियों में कुछ ऐसे नेता हैं, जो इस भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं, लेकिन ऐसे भी हैं, जो इस योग्य नहीं हैं। एक ऐसा प्रभारी, जो हर मामले का जानकार बनता हो, सबसे बदतर है।

6-धन प्रबंधन
चुनाव में पैसा एक महत्वपूर्ण फैक्टर है, लेकिन निर्णायक नहीं है। पैसे का वितरण पूरी तरह से व्यर्थ है, क्योंकि विपक्षी उम्मीदवार भी पैसे वितरित करते हैं। पैसे का बेहतर उपयोग सोशल मीडिया पर खर्च करने में होना चाहिए। कुछ पैसा चुनाव के दिन बूथ प्रबंधन के लिए भी रखना चाहिए। ज्यादतर उम्मीदवार दावा करते हैं कि मतदान से पहले उनका बजट खत्म हो जाता है।

7-अंतिम सबक
अगर कोई राजनीतिक दल चुनावी हार से सबक नहीं सीखता है तो जीता हुआ चुनाव भी हार सकता है।

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