समाज की भलाई के लिए क्या सरकार आपकी जमीन ले सकती है?
समाज के लिए क्या सरकार आपकी जमीन ले सकती है? समझिए पूरा विवाद जिस पर 9 जजों की बेंच सुनाने वाली है फैसला
किसी व्यक्ति या समुदाय की निजी संपत्ति को समाज की भलाई के लिए सरकार अपने नियंत्रण में ले सकती है या फिर नहीं? चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूंड़ की अगुवाई वाली 9 जजों की बेंच दशकों पुराने इस विवाद पर सुनवाई कर चुकी है. चूंकि जस्टिस चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर होने वाले हैं, फैसला कभी भी आ सकता है. समझिए ये पूरा विवाद है क्या और क्यों हर कोई इसके दायरे में है.
ये कहां की रीत है जागे कोई सोए कोई, रात सबकी है तो सबको नींद आनी चाहिए – शायर मदन मोहन मिश्रा का यह शेर 30 साल पुराने एक मामले को समझने में कुछ मदद कर सकता है. जो भारत में सामाजिक न्याय और निजी संपत्ति पर सरकार का अधिकार किस कदर है, इससे जुड़े दशकों पुराने विवाद की दशा और दिशा तय करेगा.
ऐसे समझिए.
भारत में असमानता का आलम – 2023 में ऑक्सफैम की आई एक रिपोर्ट की मानें तो भारत के टॉप 5 फीसदी लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का कम से कम 60 फीसदी हिस्सा था. जबकि न्यूनतम में गुजर-बसर कर रही भारत की 50 फीसदी आबादी देश की महज 3 फीसदी संपत्ति के साथ जिंदगी की जद्दोजहद को मजबूर है.
निजी संपत्ति भी समाज ही का है? – असमानता की इसी खाई को पाटने के सवाल पर लोकसभा चुनाव में जिस वक्त भाजपा और कांग्रेस बहस कर रहे थे, सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संवैधानिक पीठ इस सवाल पर माथापच्ची कर रही थी कि क्या किसी की निजी संपत्ति को कब्जे में ले कर सरकार उसे जरूरतमंद लोगों में बांट सकती है?
विवाद की जड़ – अनुच्छेद 39B की व्याख्या
संविधान का अनुच्छेद 39बी इस विवाद की जड़ में है . अदालत की अलग-अलग बेंच इसी अनुच्छेद की व्याख्या में उलझती रही है. दरअसल 39बी संविधान के चौथे भाग में आता है.
संविधान का ये हिस्सा डीपीएसपी (डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी यानी नीति निर्देशक तत्त्व) कहलाता है. जैसा कि नाम ही से स्पष्ट है, डीपीएसपी में कही गई बातों को लागू करने के लिए सरकार बाध्य नहीं है. ये महज इशारा है, जिसे ध्यान में रखकर नीति बनाने की अपेक्षा संविधान को है.
39बी में कहा गया है कि राज्य ऐसी नीति बनाए जिससे संसाधनों के स्वामित्व और नियंत्रण का बंटवारा कुछ इस तरह हो कि उससे आम लोगों की भलाई अधिक से अधिक हो सके.
करीब पांच दशक से 39बी की व्याख्या का एक पहलू उलझा हुआ है. और वो ये कि –कौन सी चीज ‘समुदाय का संसाधन’ है और क्या नहीं?
साल 1977 – 7 जजों का फैसला
1977 में सुप्रीम कोर्ट ने इस सिलसिले में एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाया. मामला ‘कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी’ के नाम से अदालत में सुना गया. 7 जजों की पीठ ने 4ः3 के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि निजी संसाधान या आसान लफ्जों में कहें तो निजी संपत्ति को ‘समुदाय का संसाधन’ नहीं माना जा सकता.
इस फैसले से जिन तीन जजों को आपत्ति थी, उनमें से एक जस्टिस कृष्णा अय्यर (अब रिटायर्ड) का अल्पमत का फैसला बाद के बरसों में बेहद प्रासंगिक और प्रभावशाली होता चला गया. जस्टिस अय्यर ने कहा था कि निजी स्वामित्त्व वाले संसाधनों को भी समुदाय का ही संसाधन माना जाना चाहिए.
उन्होंने इसके लिए एक दिलचस्प तर्क दिया था. तर्क ये कि – दुनिया की हर मूल्यावान या इस्तेमाल की जाने वाली चीज भौतिक संसाधन है. और चूंकि व्यक्ति (जिसका उस पर स्वामित्त्व है) भी समुदाय का हिस्सा है, उसके संसाधन को भी समुदाय के हिस्से के तौर पर देखा जाना चाहिए.
साल 1983 – 5 जजों का फैसला
1983 में ‘संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल’ मामले में पांच जजों की बेंच के सामने फिर एक बार मिलता-जुलता सवाल था. सवाल यह कि कोयला खदानों और उनसे जुड़े कोक ओवन प्लांट का जो राष्ट्रीयकरण केंद्र सरकार ने कानून के जरिये किया है, वह जायज है या नहीं?
तब 5 जजों की बेंच ने जस्टिस अय्यर के ही फैसले के आधार पर राष्ट्रीयकरण वाले केंद्र सरकार के कानून को दुरुस्त बताया था. साथ ही, यह भी स्पष्ट किया था कि संविधान का अनुच्छेद 39बी निजी संपत्ति को सार्वजनिक संपत्ति के तौर पर तब्दील करने का दायरा देता है.
साल 1996 – 9 जजों का फैसला
साल 1996 आया. सुप्रीम कोर्ट के सामने ‘मफतलाल इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम भारत सरकार’ नाम से मुकदमा सुना जा रहा था. जस्टिस परिपूर्णन ने तब अपने फैसले में 39बी की व्याख्या के लिहाज से जस्टिस अय्यर और संजीव कोक मामले में कही गई बातों पर सहमति जताया था.
हालिया विवाद सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंचा
सुप्रीम कोर्ट के सामने ये मामला महाराष्ट्र सरकार के 1976 के एक कानून और उसमें हुए कुछ संशोधनों के बाद पहुंचा.
1976 में महाराष्ट्र की सरकार एक कानून लेकर आई. नाम था – Maharashtra Housing and Area Development Act (MHADA) यानी महाराष्ट्र आवास और क्षेत्र विकास कानून. इसके तहत शहर की पुरानी और खस्ताहाल इमारतों से जुड़ी एक समस्या को खत्म करने का ख्वाब देखा गया.
नए कानून में यह प्रावधान किया गया कि वे इमारतें जो समय के साथ असुरक्षित होती जा रही हैं, लेकिन फिर भी वहां कुछ गरीब परिवार किरायेदार के तौर पर रह रहे हैं, उन्हें ‘मुंबई बिल्डिंग रिपेयर एंड रिकंस्ट्रक्शन बोर्ड’ को सेस (एक तरह का टैक्स) देना होगा, जिससे इमारतों की मरम्मत हो सके.
यहां तक कोई दिक्कत नहीं थी. दिक्कत हुई साल 1986 में. इस बरस महाराष्ट्र सरकार ने अनुच्छेद 39बी का इस्तेमाल करते हुए कानून में दो संशोधन किया. इनमें से एक का मकसद जरुरतमंद लोगों को उन जमीनों और इमारतों का अधिग्रहण कर दे देना था, जहां वे रह रहे हैं.
दूसरे संशोधन में तय हुआ कि राज्य सरकार उन इमारतों और जमीनों का अधिग्रहण कर सकती है जिन पर सेस लगाया जा रहा है. भरसक कि वहां रह रहे 70 फीसदी लोग सरकार से इस अधिग्रहण का अनुरोध करें.
ये संशोधन मुंबई के उन मकान मालिकों को रास नहीं आया जिनको संपत्ति इसकी वजह से खोने का डर था.लिहाजा, उन्होंने 1976 के कानून में हुए संशोधन को मुंबई के ‘प्रॉपर्टी ऑनर्स एसोसिएशन ने बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी.
इनकी दलील थी कि महाराष्ट्र सरकार का संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत हासिल उनके समानता के अधिकार का उल्लंघन है. हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में पाया कि समानता के अधिकार का हवाला देते हुए अनुच्छेद 39बी के तहत बने कानून को चुनौती नहीं दी जा सकती.
आखिरकार, दिसंबर 1992 में एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया. और हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की. अब सुप्रीम कोर्ट में मूल सवाल यह बन गया कि संविधान के अनुच्छेद 39बी के तहत निजी स्वामित्त्व वाले संसाधन या यूं कहें कि निजी संपत्ति को ‘समुदाय का संसाधन’ माना जा सकता है या नहीं?
2001 में सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की पीठ ने सुनवाई की और इसे एक बड़ी बेंच के सामने भेज दिया. 7 जजों की बेंच ने भी अगले साल सुनवाई किया मगर वह भी इसे नियत मकाम पर नहीं पहुंचा सकी, मामला 9 जजों को भेज दिया गया.
आखिरकार, 9 जजों की संविधान पीठ जिसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस बी.वी. नागरत्ना, जस्टिस सुधांशु धूलिया, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा, जस्टिस राजेश बिंदल, जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने 23 अप्रैल, 2024 से इस मामले को विस्तार से सुना.
1 मई को 5 दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया. अब सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से यह साफ हो जाएगा कि निजी या फिर समुदाय की संपत्ति पर हुकूमत का हक बनता है या नहीं? ये फैसला एक तरह से सामाजिक न्याय की लड़ाई को एक नया मोड़ दे सकता है.