इस समय भारत आबादी के मामले में दुनिया में पहले नंबर पर है। अर्से से यहां आबादी कम करने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं, जिसे मध्य वर्ग ने काफी हद तक अपनाया भी। अब तो हमारे यहां डिंक यानी डबल इनकम ग्रुप के परिवारों में एक बच्चे का चलन चल पड़ा है। इसके अलावा कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो बच्चे चाहते ही नहीं, क्योंकि वे बच्चे पालने को एक मुसीबत और बड़ी जिम्मेदारी के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि वे जिंदगी का आनंद लेना चाहते हैं और बच्चे इसमें रुकावट हैं।

कम होती आबादी दुनिया के कई देशों के लिए गंभीर चिंता का विषय है। हो सकता है कि भागवत जी ने जापान, दक्षिण कोरिया आदि देशों की आबादी संबंधी चिंताओं को देखते हुए अपना बयान दिया हो। दक्षिण कोरिया में इस सदी के अंत तक जनसंख्या पांच करोड़ बीस लाख से घटकर एक करोड़ सात लाख रहने का अंदेशा जताया जा रहा है। यह स्थिति न आए, इसके लिए दक्षिण कोरिया सरकार अपने लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन-प्रोत्साहन दे रही है।

वहां पुरुषों के लिए सैन्य प्रशिक्षण लेना अनिवार्य है, लेकिन तीन या उनसे अधिक बच्चे वालों को इससे छूट दी जा रही है। महिलाओं के लिए भी तरह-तरह की घोषणाएं की जा रही हैं, मगर वे इस बारे में सुनने को तैयार नहीं। दक्षिण कोरिया पहला ऐसा देश है जहां 2018 में महिलाओं ने 4बी नामक एक आंदोलन शुरू किया था। इसे शुरू करने वाली स्त्रियों का कहना था कि वे पुरुषों से किसी तरह का संबंध नहीं रखना चाहतीं।

जागरण संपादकीय: आसान नहीं घटती आबादी को बढ़ाना, भारत में जनसंख्या वृद्धि घटने के प्रति सचेत होना होगा

उनके साथ न तो डेटिंग पर जाना चाहती हैं, न लिव-इन में रहना चाहती हैं, न शादी करना चाहती हैं और न ही बच्चे पैदा करना चाहती हैं। अब तो अमेरिका में भी यह आंदोलन जा पहुंचा है। चीन और जापान की सरकारें भी अपने यहां बढ़ती बुजुर्ग आबादी और घटती प्रजनन दर को लेकर परेशान हैं। चीन में तो कुछ दिनों पहले घोषणा की गई थी कि डेटिंग पर जाने वाले लोगों को सरकार विशेष छुट्टियां देगी। चीन में किसी जमाने में एक बच्चा नीति थी, जिसे बहुत कठोरता से लागू किया गया।

अब वही चीन सरकार चाहती है कि लोग तीन बच्चे पैदा करें। भारत में भी आपातकाल के दिनों में हम दो-हमारे दो का नारा चलाया गया, जो तब ज्यादा सफल नहीं हुआ, लेकिन बाद में मध्यवर्ग ने इसे अपना लिया। आज कोई भी देश अपनी छवि बुजुर्गों के आधार पर नहीं बनाना चाहता, क्योंकि उनकी नजर में बुजुर्गों का मतलब कमजोरी है। इसलिए उन्हें नई पीढ़ी चाहिए। भारत में भी बुजुर्गों की आबादी दस करोड़ से अधिक है। हमारे यहां एक नेता कह भी चुके हैं कि बुजुर्गों पर देश के बहुत संसाधन खर्च होते हैं।

ऐसे में यदि नई पीढ़ी नहीं आई तो देश का भविष्य चौपट समझें। चिकित्सा विज्ञान की नई खोजों और दवाओं तथा उनकी उपलब्धता ने लोगों की उम्र लंबी की है। इसे अच्छी बात मानने के बजाय कोसना ठीक नहीं है। कोई सरकार चाहे तो बुजुर्गों को किसी रचनात्मक काम में लगा सकती है। उनके अनुभवों का लाभ उठा सकती है। कोई काम मिलने पर उन्हें न तो वक्त कटने की समस्या होगी, न अकेलापन महसूस होगा, कुछ आय भी होगी। करोड़ों लोग बुजुर्ग होने के कारण हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहें, जबकि वे काम करना चाहते हैं।

दुनिया में आबादी कम होने का एक बड़ा कारण महिलाओं की बढ़ी हुई निर्णायक शक्ति है। आज स्त्री विमर्श ने महिलाओं को बताया है कि मां बनने से ज्यादा जरूरी है, आत्मनिर्भरता। यानी उनके हाथ में पैसे आएं और उनकी क्रय शक्ति बढ़े। अपने शरीर की मालकिन वे खुद बनें। वे चाहें तो परिवार बसाएं, मां बनें, न चाहें तो ऐसा न करें। इन दिनों बड़ी संख्या में महिलाएं आत्मनिर्भर हैं या उस ओर बढ़ रही हैं।

उनका कहना है कि वे अधिक बच्चों को कैसे पालेंगी? रात-दिन बढ़ती महंगाई के दौर में जरूरी संसाधन भी कैसे जुटाएंगी? इसी वजह से सरकारों की तरफ से दिया जाने वाला कोई भी लालीपाप उन्हें नहीं भा रहा। वे कह रही हैं कि उस सोच के दिन अब गए, जिसमें मां बनने को प्राथमिकता दी जाती थी और उसे वरदान के रूप में देखा जाता था। उनका मानना है कि वे पहले ही घर-आफिस के बीच सैंडविच बनी रहती हैं।

क्या नेता उनके परिवार की देखभाल करेंगे और बच्चे पालेंगे? यह कहने में कोई संकोच नहीं कि अब संयुक्त परिवार का जमाना भी नहीं रहा कि बच्चे आसानी से पल जाएं। ऐसे में सवाल यही है कि आखिर कोई नेता तीन बच्चे पैदा करने के लिए स्त्रियों को कैसे तैयार करेगा? यदि वे तीन बच्चे पैदा करेंगी तो क्या आत्मनिर्भर बनी रहेंगी? जो भी हो, यह दिलचस्प है कि पहले जो लोग जनसंख्या नियंत्रण की बात सुनते ही लाल-पीले हो जाते थे और उसे सेक्युलरिज्म और मानव अधिकारों के खिलाफ बताते थे, धार्मिक मसलों से जोड़ते थे, वे अब इसके पक्ष में बोलने लगे हैं।

(लेखिका साहित्यकार हैं)