इन ईवीएम का चयन सभी दलों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में किया गया, ताकि विपक्षी नेताओं के पास ऐसा कोई बहाना बनाने की गुंजाइश न रहे कि ईवीएम का चयन मनमाने तरीके से किया गया। इसके पहले ईवीएम के मसले पर महाराष्ट्र के विपक्षी दलों ने तब अपनी फजीहत खुद ही करा ली थी, जब उसके नवनिर्वाचित विधायकों ने शपथ लेने से इन्कार करने के दूसरे ही दिन शपथ ले ली थी।

यदि विपक्षी दलों को यह जताना था कि वे ईवीएम विरोध को लेकर इतने गंभीर हैं कि उनके विधायक शपथ लेना जरूरी नहीं समझ रहे तो फिर कम से कम हफ्ते-दस दिन तो अपने स्टैंड पर कायम रहते। वैसे इस फजीहत के बाद भी यह तय मानिए कि विपक्ष का रोना-धोना बंद होने वाला नहीं है। वह कुछ नए बहाने खोजकर लाएगा और यह रोना रोएगा कि उसे जानबूझकर हरा दिया गया। वह खबरों में बने रहने के लिए कुछ नाटक-नौटंकी भी करेगा। वास्तव में वह कर भी रहा है।

इन दिनों महाराष्ट्र के विपक्षी नेता चुनाव आयोग को इस आशय की चिट्ठियां भेजने में लगे हुए हैं कि ईवीएम का इस्तेमाल बंद किया जाए। हर कोई जानता है कि इन चिट्ठियों से कुछ नहीं होने वाला। इनका उद्देश्य केवल जनता को बहकाना है। महाराष्ट्र के विपक्षी नेता गांव-गांव जाकर ग्रामीणों को यह कहने के लिए उकसा रहे हैं कि उनका ईवीएम पर भरोसा नहीं रह गया है।

पिछले दिनों बची-खुची राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार ने एक गांव जाकर ईवीएम को निशाने पर लिया। उनके बयान को इंगित कर कुछ लोगों की ओर से यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि देखिए,अब जब शरद पवार ने भी ईवीएम पर संदेह जता दिया है तो फिर उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए, लेकिन इसका जवाब किसी के पास नहीं कि आखिर क्यों? क्या इसलिए कि ऐसा शरद पवार कह रहे हैं? शरद पवार बड़े नेता हैं, लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं हो सकता कि वह जो कुछ कहें, उसे पत्थर की लकीर मान लिया जाए। वह नेता हैं, न्यायाधीश नहीं।

विपक्ष का ईवीएम पर रोना-धोना धोबी से न जीतने पर गधे के कान उमेठने वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है। विपक्षी नेता यह तो कह रहे हैं कि महाराष्ट्र में फिर से चुनाव कराए जाएं, लेकिन वे यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं कि महाराष्ट्र के साथ झारखंड के भी चुनाव नतीजे उन्हें मंजूर नहीं और दोनों राज्यों में फिर से चुनाव कराए जाने चाहिए।

शरद पवार की एनसीपी, उद्धव ठाकरे की शिवसेना के साथ कांग्रेस को भी महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे रास नहीं आए और उसके नेता भी ईवीएम को कोस रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने यह एलान कर दिया है कि राहुल गांधी ने जैसे भारत जोड़ो यात्रा का नेतृत्व किया था, वैसे ही ईवीएम छोड़ो यात्रा का भी करेंगे।

यदि कांग्रेस सचमुच ऐसी किसी यात्रा को लेकर गंभीर है, तो यह जानने की उत्सुकता रहेगी कि क्या यह यात्रा उन इलाकों से भी निकलेगी, जहां से कांग्रेस विधानसभा या लोकसभा के चुनाव जीती है? कायदे से ऐसे इलाकों वाले कांग्रेस के विधायकों और सांसदों को इस यात्रा में शामिल होने के पहले त्यागपत्र दे देना चाहिए। क्या वे ऐसा करेंगे? नहीं करेंगे, क्योंकि आसार यही हैं कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। यदि राहुल गांधी ऐसी कोई यात्रा निकालते हैं तो वह अपनी और कांग्रेस की जगहंसाई ही कराएंगे।

ईवीएम को अविश्वसनीय बताने के साथ उसके इस्तेमाल को रोकने के लिए उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न जाने कितनी बार गुहार लगाई जा चुकी है, लेकिन ऐसे कोई प्रमाण न तो चुनाव आयोग के समक्ष पेश किए जा सके और न ही अदालतों के समक्ष कि उससे छेड़छाड़ की जा सकती है। 2009 के आम चुनावों के बाद भाजपा नेताओं ने भी ईवीएम पर अविश्वास जताया था।

भाजपा नेता जीएल नरसिम्हा राव ने ईवीएम के खिलाफ एक किताब भी लिखी थी। डेमोक्रेसी एट रिस्क..नामक इस किताब की प्रस्तावना लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। विपक्ष जब-तब इस किताब का उल्लेख करता है, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी ने तो यह भी कहा था कि अयोध्या में राम मंदिर बनना चाहिए। क्या विपक्ष ने माना?

ईवीएम को लेकर विपक्ष अक्सर यह भी कहता है कि दूसरे तमाम देशों और यहां तक कि अमेरिका में ईवीएम का इस्तेमाल नहीं होता और खुद एलन मस्क कह चुके हैं कि ईवीएम को हैक किया जा सकता है। निःसंदेह उन्होंने ऐसा कहा था, लेकिन अमेरिकी ईवीएम को लेकर। एक तो भारत की ईवीएम अमेरिका की तरह नहीं है और दूसरे, क्या अमेरिका में जो कुछ होता है, वह सब हमें अपना लेना चाहिए? वहां राष्ट्रपति प्रणाली है।

क्या विपक्ष यह कहेगा कि भारत में भी ऐसा होना चाहिए? ईवीएम के मामले में इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि उसे भरोसेमंद बनाने के लिए समय-समय पर कई बदलाव किए गए हैं। जरूरत पड़ने पर आगे भी किए जाने चाहिए, लेकिन किसी को भी हार की खीझ उस पर निकालने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)