हमने हर हाल में खुश रहना सीख लिया है, पर कब तक?
भूटान-नरेश जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने किसी देश में जीवन की गुणवत्ता को मापने के लिए सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) की अवधारणा गढ़ी थी। उन्होंने कहा था कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) केवल आर्थिक दृष्टिकोण से प्रगति को मापता है। लेकिन ‘प्रगति’ इस बात से भी तय होती है कि भौतिक अभावों के बावजूद लोग किस हद तक खुशहाली का अनुभव करते हैं।
इस आधार पर उन्होंने दावा किया कि हिमालय की वादियों में बसा भूटान दुनिया के सबसे खुशहाल देशों में से एक है। मैं भूटान में भारत का राजदूत रह चुका हूं और उनकी इस बात से सहमत हूं। लेकिन नितांत भिन्न कारणों से मुझे लगता है कि वास्तव में भारत दुनिया का सबसे खुशहाल देश है! ऐसा इसलिए है क्योंकि अस्वीकार्य को स्वीकार करने की हमारी क्षमता अब इतनी बढ़ गई है कि लगभग कोई भी चीज हमें दु:खी नहीं करती।
मेरे इस दावे का आधार हमारे द्वारा उन परिस्थितियों पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाएं हैं, जो अधिकांश लोगों को बेहद दु:खी कर सकती हैं। उदाहरण के लिए, हमारे नगर शहरी-दुःस्वप्न बन गए हैं; न तो बिजली और न ही पानी की गारंटी है; सीवेज डिस्पोजल सिस्टम लगभग ध्वस्त हो चुका है; सड़कें- कुछ वीआईपी राजपथों को छोड़ दें तो- गड्ढों से गुलजार हैं; हर मानसून में अवरुद्ध ड्रेनेज नेटवर्क पर कचरा तैरता दिखाई देता है; हमारी नदियां जो कभी शुद्ध थीं, अब गंदला गई हैं; हमारे शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित नगरों में से हैं।
लेकिन हम इससे व्यथित नहीं होते। हमारी ताकत हमारा ‘सकारात्मक’ रवैया है। कुछ घंटे बिजली कट गई तो क्या, बाकी के समय तो बिजली रहती है! मानसून से होने वाली समस्याएं तो अस्थायी हैं। पानी की कमी है तो टैंकर या अवैध बोरवेल से भी काम चलाया जा सकता है।
सड़कों पर हादसे होते हैं तो कुशल ड्राइविंग से इससे बचा जा सकता है; नदियां दूषित हो गईं तो क्या, कम से कम वो अभी तक बची तो हैं! प्रदूषण जानलेवा है तो क्या, पिछले साल क्या हम इसमें जीवित नहीं रह पाए थे!
हमारे राजनेता भी कभी दु:खी नहीं होते। अगर वे चुनाव जीत जाते हैं, तो जाहिर है यह उनके लिए बहुत खुशी की बात होती है। लेकिन अगर हार जाते हैं, तो पार्टी-फंड का चतुराई से इस्तेमाल करके यह सुनिश्चित किया जाता है कि संपत्ति में गिरावट न आए।
संसद चलती है तो हम सांसदों को एक-दूसरे पर चिल्लाते देखते हैं; अगर स्थगित हो जाती है तो हमारे जनप्रतिनिधि सेंट्रल हॉल में सब्सिडी वाले भोजन का आनंद लेते हैं। लोगों द्वारा उठाई गई समस्याओं से तो कोई दिक्कत ही नहीं है। उन्हें धर्म, राष्ट्रवाद या किसी अन्य बाहरी मुद्दे पर बात करके आसानी से टाला जा सकता है।
हमारी न्याय-प्रणाली भी प्रसन्नचित्त है। करोड़ों लोग उसके पास मदद के लिए आते हैं और करोड़ों मामले अभी भी लम्बित हैं; लेकिन जजों को वेतन मिलता है, वकील पैसा कमाते हैं और दोषियों को भरोसा है कि न्याय में देरी होगी।
अधिकांश नौकरशाह पैसा कमाने के अवसरों से खुश हैं। व्यवसायी खुश हैं। अगर मुनाफा बढ़ता है तो चार्टर्ड अकाउंटेंट सुनिश्चित करते हैं कि उन्हें ज्यादा टैक्स न चुकाना पड़े। वैसे भी, पैसा तमाम दरवाजे खोल देता है। अमीर और अमीर होते रहते हैं।
सरकार का तो दावा है कि गरीब भी खुश हैं! उन्हें मुफ्त राशन मिलता है, रेवड़ियां मिलती हैं, जिसमें पक्का घर बनाने के लिए पैसे भी शामिल हैं। अगर स्थानीय अधिकारी रेवड़ियों में से अवैध हिस्सा लेते हैं तो यह उनके लिए खुशी का सबब है। और गरीबों के लिए तो है ही, क्योंकि कम से कम उन्हें कुछ तो मिलता है।
अमीर किसानों की तो खुशी का ठिकाना नहीं! उनके पास मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी और सस्ता श्रम है। गरीब किसान तब खुश होते हैं, जब मानसून समय पर आता है, या जब आढ़ती या बिचौलिया उन्हें उनका मामूली बकाया चुकाता है, या जरूरत पड़ने पर उन्हें ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज देता है।
हमारी खुशी के भंडार में कई निर्विवाद घोषणाएं हैं। यह कि हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं; दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था हैं; परमाणु शक्ति हैं; भारतीय जल्द ही चांद पर उतरेंगे; हम दुनिया के सबसे युवा राष्ट्र हैं; हम दुनिया की आउटसोर्सिंग राजधानी हैं; हमारी महान सभ्यता सबसे प्राचीन है!
हमें वहां भी उम्मीद दिखाई देती है, जहां कोई उम्मीद न हो। देश में कोई भी इतना दु:खी नहीं दिखता कि जीवन में बड़ा बदलाव लाने के लिए प्रेरित हो। यह तभी बदलेगा जब आमजन- खास तौर पर युवा- नाखुशी जाहिर करना शुरू करेंगे!
हमें वहां भी उम्मीद दिखाई देती है, जहां कोई उम्मीद न हो। कोई भी इतना दु:खी नहीं दिखता कि जीवन में बड़ा बदलाव लाने के लिए प्रेरित हो। यह तभी बदलेगा जब आम लोग- खास तौर पर युवा- अपनी नाखुशी जाहिर करना शुरू करेंगे। (ये लेखक के अपने विचार हैं)