इसमें दोराय नहीं कि हमारा संविधान हमें वह शक्ति देता है, जिसके कारण आज हम एक सफल राष्‍ट्र के रूप में जाने जा रहे हैं, लेकिन यह समय भविष्‍य की चुनौतियों पर विचार करने का है। यह अच्छा नहीं हुआ कि इन चुनौतियों पर कोई सार्थक चर्चा नहीं हो सकी। यह इसलिए नहीं हो सकी, क्योंकि विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस इस पर अड़ी रही कि मोदी सरकार संविधान और आरक्षण खत्म करने जा रही है। इसे सबसे अधिक तूल राहुल गांधी ने दिया। उन्हें अब भी लगता है कि वह जैसे लोकसभा चुनाव के समय संविधान खतरे में है के जुमले से जनता को बरगलाने में सफल हो गए थे, वैसे ही आगे भी हो जाएंगे। वह यह समझने को तैयार नहीं कि काठ की हांठी बार-बार नहीं चढ़ती।

चूंकि राहुल गांधी अपनी टेक पर अड़े हुए हैं इसलिए प्रियंका गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे और अन्य कांग्रेसी नेताओं की भी मजबूरी हो गई है कि वे संविधान और आरक्षण को खतरे में बताएं। कांग्रेस का साथ अन्य विपक्षी दल भी दे रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी लगता है कि संविधान और आरक्षण खतरे में है का शोर मचाकर जनता को बरगलाया जा सकता है। इसके जवाब में भाजपा भी विपक्ष को उसी की भाषा में जवाब देने को मजबूर है। उसने संविधान पर चर्चा के समय यह गिनाया कि कैसे इंदिरा गांधी ने आपातकाल में संविधान को ताख पर रख दिया था और किस तरह नेहरूजी ने संविधान लागू होने के अगले वर्ष ही अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने वाला संविधान संशोधन करा दिया था।

भाजपा ने यह भी बताने की कोशिश की कि कांग्रेस ने किस तरह संविधान की मूल भावना की अनदेखी की। अगर संविधान पर संसद में हुई चर्चा में जाया जाए तो प्रधानमंत्री के संकल्प को छोड़कर देश और समाज के लिए कुछ भी उल्लेखनीय नहीं रहा। संविधान पर चर्चा से राजनीति, नौकरशाही एवं न्‍यायपालिका को शायद ही कोई प्रेरणा और दिशा मिली हो। इससे इन्‍कार नहीं कि जहां भारत की सफलता हमारे संविधान से निकली है, वहीं भ्रष्‍टाचार, न्याय में देरी और अन्य समस्याएं संविधान की मूल भावना के विपरीत कार्य करने का परिणाम हैं। यह मानना होगा कि संविधान जिम्मेदार लोगों को उनके दायित्वों के प्रति जवाबदेह नहीं बना सका है।

संसद के शीतकालीन सत्र में विपक्ष और खासकर कांग्रेस ने आंबेडकर के कथित अपमान का मुद्दा उठाकर यह साबित करने की कोशिश की कि मोदी सरकार संविधान बदलने और आरक्षण खत्म करने का इरादा रखती है। आरक्षण खत्म होने का हौवा खड़ाकर वोट बैंक की सस्ती राजनीति ही की जा रही है। यह इसलिए व्यर्थ है, क्योंकि सभी इससे सहमत हैं कि समाज में जब तक असमानता है, तब तक आरक्षण की आवश्यकता बनी रहेगी। इसीलिए संविधान में एससी-एसटी वर्गों के लिए आरक्षण की विशेष व्यवस्था की गई थी। बाद में ओबीसी वर्ग को भी आरक्षण के दायरे में लाया गया। प्रारंभ में एससी-एसटी वर्गो के लिए आरक्षण दस वर्षों के लिए था, क्योंकि खुद आंबेडकर ऐसा मानते थे कि इस अवधि के बाद उसकी आवश्यकता नहीं रहेगी।

ऐसा नहीं हो सका और इसीलिए आरक्षण जारी है। आरक्षण एक सामाजिक आवश्यकता है, लेकिन यह साबित करना सही नहीं कि वंचित एवं पिछड़े तबकों के उत्थान का एक मात्र उपाय आरक्षण ही है। क्या यह कहा जा सकता है कि बीते दशकों में इन वर्गों का उत्थान केवल आरक्षण के कारण ही संभव हो सका है? एक अनुमान के अनुसार एससी-एसटी और पिछड़े वर्गों का हिस्सा करीब 70-75 प्रतिशत है। इन वर्गों के सीमित लोगों को ही आरक्षण का लाभ मिल पाता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आरक्षण से वंचित लोगों का आर्थिक उत्थान नहीं हो सका है। यह एक तथ्य है कि आरक्षित तबके के बहुत से लोगों ने बिना आरक्षण खुद को आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सक्षम बनाया है। खुद आंबेडकर यह चाहते थे कि ऐसी स्थितियां बनें कि वंचित-पिछड़े तबके बिना आरक्षण के खुद को सक्षम बनाएं।

एक समय आरक्षण की प्रबल विरोधी रही कांग्रेस आज आरक्षण को हर मर्ज की दवा मान रही है और उसके दायरे को यह जानते हुए भी बढ़ाने की पैरवी कर रही है कि सुप्रीम कोर्ट ने 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण को संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना है। यह भी विचित्र है कि आंबेडकर के प्रति निष्ठा दिखाने के फेर में उनके जीवनकाल में उनका निरादर करने वाली कांग्रेस उनकी सबसे बड़ी अनुयायी बनने की कोशिश कर रही है। जब इसका ही जिक्र राज्यसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने किया तो कांग्रेस चिढ़ गई। इसी चिढ़ में उसने यह आरोप उछाल दिया कि उन्होंने उनका अपमान कर दिया। यह हास्यास्पद आरोप है। कांग्रेस नेहरु की राजनीतिक भूलों और साथ ही उनके समय में आंबेडकर की उपेक्षा का बचाव कर पाने में सक्षम नहीं, इसीलिए वह उनके अपमान का मनगढ़ंत मामला उठा रही है।

संविधान की मूल भावना यही है कि देश के हर नागरिक को न्‍याय मिले, सभी को बराबर समझा जाए और कार्यपालिका, विधायिका एवं न्यायपालिका देश के नागरिकों के कल्याण के प्रति समर्पित रहे। समर्पण का यह अभाव नेहरू के शासनकाल से ही दिखने लगा था और इसीलिए देश की जो समस्याएं बहुत पहले हल हो जानी चाहिए थीं, वे अब तक हल नहीं हो सकी हैं। येन-केन-प्रकारेण सत्‍ता में बने रहने के लिए समाज को जाति, मजहब में बांटकर वोट बैंक की राजनीति करना संविधान की भावना के विरुद्ध है, लेकिन आज शायद ही कोई राजनीतिक दल समाज को बांटे बिना अपनी राजनीति करता हो। आंबेडकर के बहाने राजनीति कर रही कांग्रेस इस मामले में सबसे आगे दिख रही है। वह आरक्षण खत्म होने का शोर मचाकर समाज को बांटने में ही जुटी है। यह संविधान और आंबेडकर का अपमान ही है कि उनका नाम लेकर समाज को बांटने का काम किया जाए।