दूर होता समान शिक्षा का लक्ष्य ?
दो तरह के पाठ्यक्रम नई शिक्षा नीति के उस विचार की उपेक्षा ही करेंगे जिसमें समान शिक्षा पर जोर दिया गया है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 10वीं के छात्रों के लिए विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में भी वैसे ही दो तरह के पाठ्यक्रम बनाने पर विचार हो रहा है जैसा गणित विषय में पहले से ही है। इससे छात्रों को ही नुकसान हो सकता है।
…. शिक्षा सुधार की प्रक्रिया में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के 10वीं के छात्रों के लिए विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में भी वैसे ही दो तरह के पाठ्यक्रम बनाने पर विचार हो रहा है, जैसा गणित विषय में पहले से ही है।
अभी सीबीएसई 10वीं कक्षा में गणित बेसिक और गणित स्टैंडर्ड दो स्तर पर ऑफर किया जाता है। इसके आधार पर कुछ विद्यार्थी बेसिक गणित पढ़ते हैं और कुछ स्टैंडर्ड गणित। बेसिक गणित की तुलना में स्टैंडर्ड गणित कठिन होता है। स्टैंडर्ड गणित पढ़ने वाले विद्यार्थी ही आगे चलकर इंजीनियरिंग आदि की परीक्षा देने में समर्थ होते हैं। यहां तक कि 11वीं और 12वीं में भी गणित पढ़ने की आजादी इन्हीं छात्रों को दी जाती है।
गणित विषय के संबंध में इस बात पर कुछ हद तक सहमत हुआ जा सकता है, क्योंकि इसकी कुछ कठिन परिकल्पनाएं एक स्तर के बाद काम नहीं आतीं। याद करें तो किसी वक्त नौवीं और दसवीं में लड़कियों के लिए गणित की जगह होम साइंस का विकल्प रहता था। हालांकि अब वक्त बदल गया है। समाज की समझ में भी यह बात आ गई है कि लड़कियां भी गणित और विज्ञान में उतनी ही प्रतिभा रखती हैं, जितना लड़के। यही कारण है कि ताजा आंकड़ों के अनुसार इंजीनियरिंग कालेजों में 30 प्रतिशत लड़कियां इंजीनियरिंग पढ़ रही हैं।
मौजूदा सरकार ने तो एक ऐतिहासिक कदम बढ़ाते हुए आइआइटी में 20 प्रतिशत सीट लड़कियों के लिए आरक्षित कर दी है, लेकिन दो अलग तरह के पाठ्यक्रम की यही बात विज्ञान और सामाजिक विषयों के लिए सही नहीं होगी।
विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की शिक्षा ही बच्चों की समझ को मुकम्मल बनाती है। इसलिए इन विषयों को दुनिया भर में दसवीं तक अनिवार्य रूप से सर्वश्रेष्ठ ढंग से पढ़ाया जाता है। शिक्षा की बुनियाद यही विषय बनाते हैं। विज्ञान जहां बच्चों को तर्कशील प्रयोगधर्मी बनाता है, वहीं सामाजिक विज्ञान उनमें समाज, देश-दुनिया की राजनीति, अर्थशास्त्र और इतिहास की समझ पैदा करता है। लिहाजा इन विषयों की पढ़ाई हर बच्चे के लिए समान रूप से अनिवार्य होनी चाहिए। ऐसी शिक्षा ही उन्हें स्वावलंबी बनाएगी और यही लोकतंत्र के हित में भी है।
दो तरह के पाठ्यक्रम बनाने के पीछे बच्चों पर पढ़ाई के बोझ को कम करने का विचार हावी लगता है, लेकिन यह सच्चाई से बहुत दूर है। इसे कोटा या दूसरी जगहों पर छात्रों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं से जोड़ना गलत होगा, क्योंकि उन बच्चों में मानसिक तनाव समाज एवं मां-बाप के दबाव और नंबरों की अंधी दौड़ की देन है। उन पर इन विषयों का दबाव नहीं है।
देखा जाए तो शिक्षा का अर्थ केवल कक्षाएं पास करना या परीक्षाओं में कुछ नंबर ज्यादा लाना ही नहीं होता, बल्कि बच्चों में एक बेहतर नागरिक बनाना होता है। जैसे कि ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली करती है। वह कहती है कि “15 वर्ष की उम्र तक विद्यार्थी को पूरी दुनिया में घूमने और संवाद करने की क्षमता होनी चाहिए।” यह विज्ञान और दूसरे विषयों को और बेहतर ढंग से पढ़ने से ही संभव हो सकता है, पाठ्यक्रम की काट-छांट से नहीं।
नीति निर्धारकों को गणित के अनुभव से सबक लेना चाहिए। दिल्ली के निजी महंगे स्कूलों में सभी बच्चे जहां स्टैंडर्ड गणित पढ़ते हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में ज्यादातर बच्चे बेसिक गणित। जहां स्टैंडर्ड गणित पढ़ने वाले बच्चों से इंजीनियर या डाक्टर बनने की उम्मीद की जाती है, वहीं सरकारी स्कूलों में छात्रों के करियर के प्रति एक उदासीन रवैया देखा जाता है। यदि विज्ञान और सामाजिक विज्ञान में भी यह वर्गीकरण कर दिया गया तो सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता और गिर जाएगी। हमें सरकारी स्कूलों की शिक्षा को और बेहतर बनाने की जरूरत है, न कि और कमजोर करने की। प्रश्न यह है कि क्या उच्च शिक्षा में आगे बढ़ने के लिए इन बच्चों को मदद मिलेगी? हो सकता है कि ऐसे दोहरे पाठ्यक्रम की वजह से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले छात्र और पीछे रह जाएं।
यह कदम नई शिक्षा नीति के उस विचार की भी उपेक्षा करता है, जिसमें समान शिक्षा की बात कही गई है और जिसके तहत मेडिकल और आइआइटी जैसे संस्थाओं या पिछले दिनों केंद्रीय विश्वविद्यालय में नामांकन के लिए समान प्रवेश परीक्षाएं शुरू की गई हैं। हमारे देश के निजी स्कूलों से निकले इंजीनियरों की क्षमता और स्किल पर दुनिया भर में ऐसे प्रश्न उठ रहे हैं कि उनमें से 70 प्रतिशत डिग्री होने के बावजूद सक्षम नहीं हैं। ऐसी चुनौती के बीच तो हमें अपने पाठ्यक्रमों को और बेहतर करने की जरूरत है।
हालांकि नई शिक्षा नीति में पाठ्यक्रमों को मजबूत बनाने, प्राइमरी एवं उच्च स्तर अपनी भाषाओं में पढ़ाई पर जोर दिया गया है, लेकिन इस दिशा में अभी कोई विशेष प्रगति नहीं दिखी है। इसके अलाव 11वीं एवं 12वीं और दूसरे स्तरों पर अपनी मर्जी से विषय लेने की जो बात चार साल पहले हुई थी, उस दिशा में भी ठोस कदम नहीं बढ़ाए सके हैं।
शिक्षा की पुरानी शैली यथावत जारी है, बल्कि उसमें और गिरावट आई लगती है, जिसका प्रमाण देश में आत्महत्या करने वाले विद्यार्थियों और बाहर जाकर पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि है। यह न भूलें कि शिक्षा प्रणाली में बदलाव भावी पीढ़ियों को भी प्रभावित करते हैं।
पिछली सदी के छठे दशक में अंतरिक्ष विज्ञान में जब रूस आगे बढ़ता नजर आया तो अमेरिका ने अपनी विज्ञान नीति में आमूलचूल बदलाव किया, जिसका प्रभाव आज नजर आ रहा है। विज्ञान में आज अमेरिका दुनिया का अगुआ बना है। वक्त आ गया है कि दुनिया भर की शिक्षण पद्धतियों को सीखते हुए हम भी अपनी विज्ञान और सामाजिक शिक्षा को ऐसा बनाएं कि दुनिया भर के लोग भारत में पढ़ने के लिए लालयित हों।
(लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे शिक्षाविद् हैं)