कुंभ में भगदड़ की कहानियां !

जब नेहरू के लिए भगदड़ मची, 1000 लोगों की मौत
2013 में कफन के लिए रातभर भटकते रहे लोग; कुंभ में भगदड़ की कहानियां

प्रयागराज के संगम तट पर मंगलवार-बुधवार की रात करीब डेढ़ बजे भगदड़ मच गई। 20 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई है। 50 से ज्यादा घायल हैं। कुंभ में पहले भी भगदड़ की घटनाएं हो चुकी हैं। अंग्रेजों के समय 1820 में कुंभ में भगदड़ मचने से 450 लोगों की मौत हो गई थी।

आइए कुंभ में भगदड़ से जुड़ीं कुछ कहानियों को जानते हैं…

आजाद भारत के पहले कुंभ में भगदड़ मची, 1 हजार लोगों की मौत

साल 1954, आजाद भारत का पहला कुंभ इलाहाबाद यानी अब के प्रयागराज में लगा। 3 फरवरी को मौनी अमावस्या थी। लाखों लोग स्नान के लिए संगम पहुंचे थे। बारिश की वजह से चारों तरफ कीचड़ और फिसलन थी।

सुबह करीब 8-9 बजे का वक्त रहा होगा। मेले में खबर फैली कि प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू आ रहे हैं। उन्हें देखने के लिए भीड़ टूट पड़ी। अपनी तरफ भीड़ आती देख नागा संन्यासी तलवार और त्रिशूल लेकर लोगों को मारने दौड़ पड़े। भगदड़ मच गई। जो एक बार गिरा, वो फिर उठ नहीं सका। जान बचाने के लिए लोग बिजली के खंभों से चढ़कर तारों पर लटक गए। भगदड़ में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए।

UP सरकार ने कहा कि कोई हादसा नहीं हुआ, लेकिन एक फोटोग्राफर ने चुपके से तस्वीर खींच ली थी। अगले दिन अखबार में वो तस्वीर छप गई। राजनीतिक हंगामा खड़ा हो गया। संसद में नेहरू को बयान देना पड़ा। 65 साल बाद 2019 में PM मोदी ने उस हादसे के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था।

1954 कुंभ में मची भगदड़ के बाद शवों का ढेर। सोर्स : इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी
1954 कुंभ में मची भगदड़ के बाद शवों का ढेर। सोर्स : इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी

फोटो जर्नलिस्ट की आंखों-देखी….

 सीनियर फोटो जर्नलिस्ट एनएन मुखर्जी 1954 के कुंभ में मौजूद थे। 1989 में मुखर्जी की आंखों-देखी रिपोर्ट ‘छायाकृति’ नाम की हिंदी मैगजीन में छपी। मुखर्जी लिखते हैं- ‘प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद एक ही दिन स्नान के लिए संगम पहुंच गए। ज्यादातर पुलिस और अफसर उनकी व्यवस्था में व्यस्त हो गए।

मैं संगम चौकी के पास एक टावर पर खड़ा हुआ था। करीब 10.20 बजे की बात है। स्नान करने वाले घाट पर बैरिकेड लगाकर हजारों लोगों को रोका गया था। आम लोगों के साथ-साथ हजारों नागा साधु, घोड़ा गाड़ी, हाथी, ऊंट सब घंटों इंतजार करते रहे। दोनों तरफ जनसैलाब जम गया था।

इसी बीच नेहरू और राजेंद्र प्रसाद की कार त्रिवेणी की तरफ से आई और किला घाट की तरफ निकल गई। जब नेहरू और बाकी VVIP लोगों की गाड़ी गुजर गई, तो बिना किसी योजना के भीड़ को छोड़ दिया गया।

भीड़ बैरिकेड तोड़कर घाट की तरफ जाने लगी। उसी रोड पर दूसरी छोर से साधुओं का जुलूस निकल रहा था। भीड़ और साधु-संत आमने सामने आ गए। जुलूस बिखर गया। बैरिकेड की ढलान से लोग ऐसे गिरने लगे, जैसे तूफान में खड़ी फसलें गिरती हैं।

जो गिरा वो गिरा ही रह गया, कोई उठ नहीं सका। चारों तरफ से मुझे बचाओ, मुझे बचाओ की चीख गूंज रही थी। कई लोग तो गहरे कुएं में गिर गए।’

मुखर्जी लिखते हैं- ‘मैंने देखा कि कोई तीन साल के बच्चे को कुचलते हुए जा रहा था। कोई बिजली के तारों पर झूलकर खुद को बचा रहा था। उसकी तस्वीर खींचने के चक्कर में मैं भगदड़ में गिरे हुए लोगों के ऊपर गिर गया।

मेरे अखबार के साथी डरे हुए थे कि मैं भी हादसे का शिकार तो नहीं हो गया। दोपहर करीब 1 बजे मैं दफ्तर पहुंचा, तो अखबार के मालिक ने मुझे गोद में उठा लिया। वे जोश में चीख पड़े- ‘नीपू हैज कम बैक अलाइव.. नीपू जिंदा लौट आया है।’ तब मैंने उनसे कहा कि हादसे के फोटोग्राफ्स भी लेकर आया हूं।

सरकार ने कहा कि हादसे में कुछ भिखारी ही मरे हैं। सैकड़ों लोगों के मरने की खबर गलत है। मैंने अधिकारियों को हादसे की तस्वीरें दिखाईं, जिसमें महंगे गहने पहनी महिलाएं भी थीं। जो इस बात का तस्दीक कर रही थीं कि अच्छे बैकग्राउंड वाले भी लोग कुचलकर मरे हैं।’

1954 कुंभ में मची भगदड़ के दौरान जान बचाने के लिए लोग बिजली के तारों में भी लटक गए थे। सोर्स : इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी।
1954 कुंभ में मची भगदड़ के दौरान जान बचाने के लिए लोग बिजली के तारों में भी लटक गए थे। सोर्स : इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी।

अखबार में एक तरफ हादसा और दूसरी तरफ राजभवन में पार्टी की तस्वीर छपी

प्रयाग के सीनियर जर्नलिस्ट स्नेह मधुर बताते हैं- ‘अस्सी के दशक में दादा मुखर्जी ने मुझे 1954 कुंभ में मची भगदड़ का किस्सा सुनाया था। भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे गए थे। आजादी के बाद पहला कुंभ था, इसलिए सरकार के लिए यह साख का भी सवाल था।

4 फरवरी 1954 को अमृत बाजार पत्रिका नाम के अखबार में हादसे की खबर छपी। एक तरफ भगदड़ में लोगों के मारे जाने की खबर और दूसरी तरफ राजभवन में राष्ट्रपति के स्वागत में रखी गई पार्टी की तस्वीर अखबार में छपी। UP सरकार ने कहा कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। अखबार में गलत खबर छपी है। इसका खंडन छापना चाहिए।’

4 फरवरी 1954, अमृत बाजार पत्रिका में छपी हादसे की खबर और राजभवन में स्वागत पार्टी की तस्वीर।
4 फरवरी 1954, अमृत बाजार पत्रिका में छपी हादसे की खबर और राजभवन में स्वागत पार्टी की तस्वीर।

फोटो जर्नलिस्ट ने चुपके से तस्वीर खींच ली, UP के CM ने पत्रकार को गाली दी

स्नेह मधुर बताते हैं- ‘एनएन मुखर्जी ने हादसे की खबर तो छाप दी थी, लेकिन सरकार का दबाव था कि कुछ हुआ ही नहीं। एक पत्रकार के नाते उन्हें इसका सबूत पेश करना था। अगले दिन वे फिर से मेले में पहुंच गए। मुखर्जी ने देखा कि प्रशासन शवों का ढेर बनाकर उसमें आग लगा रहा था। किसी भी फोटोग्राफर या पत्रकार को वहां जाने की इजाजत नहीं थी। चारों तरफ बड़ी संख्या में पुलिस मुस्तैद थी।

बारिश हो रही थी। एनएन मुखर्जी एक गांव वाले की वेशभूषा में छाता लिए वहां पहुंचे। उनके हाथ में खादी का झोला था, जिसके भीतर उन्होंने छोटा सा कैमरा छिपाया हुआ था। झोले में एक छेद कर रखा था ताकि कैमरे का लेंस नहीं ढंके।

फोटोग्राफर एनएन मुखर्जी ने पुलिस वालों से रोते हुए कहा कि मुझे आखिरी बार अपनी दादी को देखना है। वे सिपाहियों के पैर पर गिर पड़े। उनसे मिन्नतें करने लगे कि आखिरी बार मुझे दादी को देख लेने दो।

एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें इस शर्त पर जाने की छूट दी कि वे जल्द लौट आएंगे। वे तेजी से शवों की तरफ दौड़े। अपनी दादी को ढूंढने का नाटक करने लगे। इसी दौरान उन्होंने गिरते-संभलते जलती हुई लाशों की फोटो खींच ली।

अगले दिन अखबार में जलती हुई लाशों की फोटो छपी। खबर पढ़कर UP के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने पत्रकार को गाली देते हुए कहा था- ‘कहां है वह ह…. फोटोग्राफर।’ 1989 में छपी ‘छायाकृति’ मैगजीन में भी इस किस्से का जिक्र है।

1954 कुंभ में भगदड़ में मारे गए लोगों के जूते और सामान। सोर्स : ब्रिटिश पाथे
1954 कुंभ में भगदड़ में मारे गए लोगों के जूते और सामान। सोर्स : ब्रिटिश पाथे

गदड़ पर फिल्म बनाने वाले थे बिमल रॉय, शूटिंग भी शुरू हो गई थी, लेकिन…

प्रयागराज और कुंभ’ किताब में कुमार निर्मलेंदु लिखते हैं- ’बांग्ला के मशहूर उपन्यासकार समरेश बसु ने इस हादसे के ऊपर ‘अमृत कुंभ की खोज में’ नाम से एक उपन्यास लिखा था। 1955 में यह उपन्यास कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले बांग्ला अखबार ‘आनन्द बाजार’ में धारावाहिक रूप में पब्लिश हुआ।

इस उपन्यास की शुरुआत लोगों से खचाखच भरी एक ट्रेन से होती है, जो प्रयाग स्टेशन से निकलकर इलाहाबाद की ओर रवाना हो रही है। बस कुछ मिनटों का सफर बाकी है। लोग जोश में आकर भजन गाना शुरू कर देते हैं।

ट्रेन की छत पर बैठे लोग नारे लगाने लगते हैं। ट्रेन रेंगते-रेंगते इलाहाबाद में दाखिल होती है और मुसाफिरों की भीड़ इस तरह बाहर निकलने के लिए बढ़ती है, जैसे किसी ब्लैक होल से निकल रही हो।

बलराम, जो अपना रोग छुड़ाने, सौ साल की उम्र मांगने, स्नान के लिए जा रहा था, लोगों के पैरों तले कुचलकर मारा जाता है।’

किताब के मुताबिक मशहूर फिल्मकार बिमल रॉय इस उपन्यास पर एक हिन्दी फिल्म बनाना चाहते थे। गीतकार गुलजार उनके सहायक थे। गुलजार इस फिल्म की पटकथा भी लिख रहे थे। फिल्म पर टुकड़ों-टुकड़ों में काम चलता रहा। दूसरे मेलों में जाकर कुछ आउटडोर शूटिंग भी कर ली गई।

1962 की सर्दियों में फिल्म रिलीज करने की तैयारी थी, लेकिन इसी बीच बिमल रॉय बीमार पड़ गए। 8 जनवरी 1965 को बिमल रॉय का निधन हो गया। आखिरकार फिल्म ठंडे बस्ते में चली गई।

1960 के दशक की तस्वीर। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ मशहूर फिल्मकार बिमल रॉय।
1960 के दशक की तस्वीर। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ मशहूर फिल्मकार बिमल रॉय।

सदन में नेहरू ने माना था कि वह हादसे के वक्त कुंभ में मौजूद थे

कुछ लोगों का दावा है कि हादसे के दिन पंडित नेहरू कुंभ में मौजूद नहीं थे। BBC में छपी एक रिपोर्ट में हादसे के वक्त मौजूद रहे नरेश मिश्र ने बताया था- ’नेहरू हादसे से ठीक एक दिन पहले प्रयाग आए थे, उन्होंने संगम क्षेत्र में तैयारियों का जायजा लिया और दिल्ली लौट गए, लेकिन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद संगम क्षेत्र में ही थे और सुबह के वक्त किले के बुर्ज पर बैठकर दशनामी संन्यासियों का जुलूस देख रहे थे।’

हालांकि, कई लेखक, पत्रकार और खुद नेहरू ने भी संसद में माना था कि वे हादसे के वक्त कुंभ में मौजूद थे। 15 फरवरी 1954 को जवाहर लाल नेहरू ने संसद कहा- ‘मैं किले की बालकनी में था। वहां से खड़े होकर कुंभ देख रहा था। यह अनुमान लगाया गया था कि कुंभ में 40 लाख लोग पहुंचे थे। बहुत दुख की बात है कि जिस समारोह में इतनी बड़ी संख्या में लोग जुटे थे, वहां ऐसी घटना हो गई और कई लोगों की जान चली गई।’

‘पिलग्रिमेज एंड पावर : द कुंभ मेला इन इलाहाबाद फ्रॉम 1776-1954’ में कामा मैकलिन ने भी हादसे के वक्त नेहरू के कुंभ में मौजूद रहने की बात लिखी है। कामा मैकलिन ऑस्ट्रेलिया की एक यूनिवर्सिटी में साउथ एशियन एंड वर्ल्ड हिस्ट्री की प्रोफेसर रह चुकी हैं।

साल 1954 कुंभ की तैयारियों का जायजा लेते हुए प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू।
साल 1954 कुंभ की तैयारियों का जायजा लेते हुए प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू।

जब कफन के लिए रातभर भटकते रहे लोग:अचानक ट्रेन का प्लेटफॉर्म बदला, भगदड़ में 36 मारे गए

10 फरवरी 2013, रविवार का दिन। प्रयाग में कुंभ लगा था। उस दिन मौनी अमावस्या थी। तीन करोड़ से ज्यादा लोग संगम में डुबकी लगा चुके थे। शाम साढ़े सात-आठ बजे की बात है। मैं प्रयागराज जंक्शन के बाहर एक दुकान पर चाय पी रहा था। दिनभर कुंभ की कवरेज की वजह से थक सा गया था। सोचा, थोड़ा आराम करके दफ्तर के लिए निकलूंगा।

अचानक लोगों की चीख-पुकार गूंजने लगी। मैं प्लेटफॉर्म नंबर 6 की तरफ दौड़ा। वहां पैर रखने की जगह नहीं थी। लाखों लोग बदहवास होकर इधर-उधर भाग रहे थे। एक-दूसरे पर गिरते-गिराते। बहुत भयावह मंजर था।

जब भगदड़ थमी तो प्लेटफॉर्म पर लाशें बिखरी पड़ी मिलीं। इनमें महिलाएं, पुरुष, जवान और बुजुर्ग सब शामिल थे। कुल 36 लोग मारे गए। कई लोगों को मैंने अपनी आंखों से मरते देखा था। इलाज नहीं मिलने से लोग तड़प-तड़प कर मर गए। ये किस्सा बताते हुए प्रयाग के सीनियर जर्नलिस्ट स्नेह मधुर सिहर उठते हैं।

10 फरवरी 2013, भगदड़ में मरे लोगों के शव। एक शख्स अपनी पत्नी के शव के ऊपर सिर रखकर बिलख रहा है।
10 फरवरी 2013, भगदड़ में मरे लोगों के शव। एक शख्स अपनी पत्नी के शव के ऊपर सिर रखकर बिलख रहा है।

स्नेह बताते हैं- ‘मैं लंबे समय से कुंभ कवर करता आ रहा हूं। 1954 की भगदड़ के बारे में सुना-पढ़ा था, लेकिन 2013 में सबकुछ मेरी आंखों के सामने था। लोग बचाओ, बचाओ कहकर चीख रहे थे, दहाड़ मारकर रो रहे थे, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। वो मंजर देखकर मैं तो सिहर गया था।

‘तोहरे बिना हम घर कइसे लौटब, तोहरे बाबू के का मुंह देखाइब’। बिहार की रहने वाली एक महिला बदहवास होकर अपनी बेटी को ढूंढ रही थी। उनकी बहन संभालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन कुछ देर बाद उनका भी धैर्य टूट गया। दोनों लिपटकर रोने लगीं। महिला ने बताया कि उसकी बेटी की शादी दो महीने बाद होने वाली थी। अब वो इसके पिता को क्या मुंह दिखाएगी।

देर रात तक इस तरह की चीखों से स्टेशन गूंजता रहा। किसी ने मां को खोया तो किसी ने पिता को तो किसी ने बेट-बेटी खोया। अफसोस इस बात का है कि स्टेशन पर इमरजेंसी सुविधा नहीं थी। कई घायलों को बचाया जा सकता था।

कुचले जाने के बाद भी कई लोग जिंदा थे, लेकिन प्लेटफॉर्म पर न तो वक्त रहते स्ट्रेचर पहुंच पाया न ही कोई एंबुलेंस। लोगों कपड़े में बांधकर, चादर में लपेटकर घायलों को अस्पताल पहुंचा रहे थे।’

हादसे के बाद काफी देर तक लोग मदद के लिए चिल्लाते रहे, लेकिन कोई उनकी सुनने वाला नहीं था।
हादसे के बाद काफी देर तक लोग मदद के लिए चिल्लाते रहे, लेकिन कोई उनकी सुनने वाला नहीं था।

झारखंड के प्रसाद यादव हादसे में घायल हो गए थे। उन्होंने एक मीडिया रिपोर्ट में बताया था- ‘प्लेटफॉर्म नंबर 6 के फुटओवर ब्रिज पर पैर रखने तक की जगह नहीं थी। इसके बाद भी लोग आगे बढ़ रहे थे। इतने में एक महिला गिर पड़ी। उसे बचाने के लिए लोगों ने भीड़ को धक्का दिया, ताकि जगह बन पाए, लेकिन जीआरपी ने लाठी भांज दी। भगदड़ मच गई।

मैं दसियों लोगों के नीचे दब गया। ऐसा लग रहा था कि अब प्राण निकलने ही वाले हैं। सांसें ऊपर-नीचे हो रही थीं। शरीर का भुर्ता बन गया था। मैंने अपनी आंखों के सामने कई लोगों को तड़प-तड़प कर मरते देखा। मैं खुद को मरा मान चुका था। इसके बाद मैं बेहोश हो गया। जब आंख खुली तो अस्पताल में था। भगवान ने मुझे बचा लिया।’

रेलवे कुंभ वार्ड में ताला लगा था, कफन के लिए भटकते रहे लोग

हादसे के वक्त रेलवे कुंभ वार्ड में ताला लगा हुआ था। साढ़े नौ बजे DRM पहुंचे। उसके बाद अस्पताल का ताला खुला। तब वहां रूई और पट्टी छोड़कर कोई व्यवस्था नहीं थी। ऑक्सीजन सिलेंडर खाली पड़े थे। चार लोगों की मौत तो इलाज नहीं मिलने की वजह से हो गई।

कई लोग परिजनों की लाश लेकर भटक रहे थे। 12 घंटे इंतजार करने के बाद भी प्रशासन शवों को उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था नहीं कर पाया था। कई लोगों को तो कफन तक नसीब नहीं हो रहा था।अस्पताल के बाहर मुंहमांगे दामों पर कफन बिक रहे थे। किसी ने हजार रुपए में कफन खरीदे तो किसी को 1200 रुपए देने पड़े।

हादसे में मरे लोगों की पहचान करते उनके परिजन।
हादसे में मरे लोगों की पहचान करते उनके परिजन।

6 नंबर प्लेटफॉर्म पर आने वाली थी ट्रेन, अचानक बदल दिया प्लेटफॉर्म

स्नेह मधुर बताते हैं- ‘प्रयाग जंक्शन रेलवे स्टेशन पर दो साइड हैं। एक सिविल लाइन्स और दूसरा चौक साइड। संगम स्नान के बाद लौटने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए चौक साइड में बाड़े बनाए गए थे। अलग-अलग रूट के लिए अलग-अलग बाड़े।

उनके रूट की तरफ जाने वाली ट्रेन जब आती थी, तब उनके बाड़े को खोला जाता था, लेकिन उस रोज प्रशासन की लापरवाही से ये सिस्टम बिगड़ गया था।

नवाब यूसुफ रोड, जो संगम से सीधे सिविल लाइन्स साइड यानी प्लेटफॉर्म नंबर 6 की तरफ जाती है। उस दिन उस रास्ते को ब्लॉक नहीं किया गया। स्नान करके लौट रही भीड़ चौक साइड जाने के बजाय सिविल लाइन्स की तरफ बढ़ने लगी।

दोपहर में ही प्लेटफॉर्म खचाखच भर गया था। पैर रखने तक की जगह नहीं थी, लेकिन भीड़ रुकने का नाम नहीं ले रही थी।

लोग लगातार प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ते जा रहे थे। इधर प्लेटफॉर्म पर कई ट्रेनें घंटों की देरी से चल रही थीं। लिहाजा लंबे समय से ट्रेनों का इंतजार कर रहे लोग जमा होते गए।

इसी बीच अनाउंसमेंट हुआ कि ट्रेन प्लेटफॉर्म नं 6 की बजाय दूसरे प्लेटफॉर्म पर आएगी। इतना सुनते ही लोग उस प्लेटफॉर्म पर जाने के लिए भागने लगे। फुट ओवर ब्रिज पर तो तिल रखने तक की जगह नहीं थी।

लोगों को भागते देख रेलवे पुलिस लाठी भांजने लगी। एक दूसरे के ऊपर लोग गिरने लगे। भगदड़ मच गई। कई लोग तो ओवर ब्रिज से गिर भी गए।’

स्टेशन पर स्ट्रेचर की सुविधा नहीं थी। लोगों को कपड़ों में बांधकर इलाज के लिए अस्पताल ले जाना पड़ा।
स्टेशन पर स्ट्रेचर की सुविधा नहीं थी। लोगों को कपड़ों में बांधकर इलाज के लिए अस्पताल ले जाना पड़ा।

मेले के प्रभारी मंत्री आजम खां ने कहा- ‘मीडिया ने हालात पैनिक किया’

2013 कुंभ के वक्त UP में सपा की सरकार थी और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री। आजम खां को मेले का प्रभारी मंत्री बनाया गया था। हादसे के बाद नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए आजमा खां ने इस्तीफा तो दिया, लेकिन दोष रेलवे और मीडिया पर मढ़ दिया।

उन्होंने कहा- ‘जहां तीन करोड़ लोग एक दिन में आए, वहां इस तरह के हादसे के बारे में किसी को जिम्मेदार ठहराया नहीं जा सकता। मीडिया की सूचना की वजह से भी जो पैनिक क्रिएट हुआ है, उसे कंट्रोल करना है।’

UP सरकार ने मृतकों को पांच-पांच लाख और घायलों को एक-एक लाख रुपए मुआवजा दिया। जबकि रेलवे की तरफ से मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख रुपए दिए गए।

आजम खान ने कहा था कि हादसे के लिए वे सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं, स्टेशन पर सुरक्षा का इंतजाम करने की जिम्मेदारी रेलवे की थी।
आजम खान ने कहा था कि हादसे के लिए वे सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं, स्टेशन पर सुरक्षा का इंतजाम करने की जिम्मेदारी रेलवे की थी।

अंग्रेजों के जमाने में भी कुंभ में होते रहे हादसे, 1820 में 450 लोग मारे गए थे

कुंभ मेले में भगदड़ कई बार मची है। अंग्रेजों के जमाने में भी कुंभ के दौरान कई हादसे हुए। 1820 के हरिद्वार कुंभ मेले में भगदड़ से 450 से भी ज्यादा तीर्थयात्रियों की मौत हुई थी। 1000 से ज्यादा लोग घायल हुए थे। 1840 के प्रयाग कुंभ मेले में 50 से अधिक मौतें हुईं। 1906 के प्रयाग कुम्भ मेले में तो भगदड़ से 50 से ज्यादा लोग मारे गए थे।

साधु ने चांदी के सिक्के उछाले, भगदड़ में 39 मारे गए

27 अगस्त, 2003, महाराष्ट्र के नासिक में कुंभ लगा था। वहां रामकुंड की ओर जाने वाले तीर्थ यात्रियों को बैरिकेड्स लगाकर रोका गया था। करीब 30 हजार श्रद्धालु संकरी गली में फंसे थे।

इसी बीच एक साधु ने चांदी के सिक्के उछाल दिए। सिक्के लूटने के चक्कर में लोग एक-दूसरे पर चढ़ने लगे। कुछ लोगों के बीच मार-पीट भी हो गई। इससे भगदड़ मच गई। 39 लोगों की जान चली गई। 140 से ज्यादा लोग हादसे में घायल हो गए।

नासिक कुंभ में मारे गए लोगों के शव। ज्यादातर शवों की पहचान नहीं हो सकी थी।
नासिक कुंभ में मारे गए लोगों के शव। ज्यादातर शवों की पहचान नहीं हो सकी थी।

हरिद्वार कुंभ में मुख्यमंत्री के स्नान के लिए रास्ता रोका, भगदड़ में 50 मरे

14 अप्रैल 1986, हरिद्वार कुंभ खत्म होने को था। तब हरिद्वार UP का हिस्सा था। सुबह का वक्त था। UP के मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ स्नान करने हर की पैड़ी पहुंच गए। उनके स्नान के लिए रास्ता सवा तीन घंटे बंद रखा गया।

तब हर की पैड़ी जाने के लिए एक संकरे पुल के ऊपर से जाना होता था। रास्ता रोके जाने की वजह से भीड़ पुल पर जमने लगी। जब CM के स्नान के बाद रास्ता खोला गया तो भीड़ बेकाबू हो गई। लोग एक-दूसरे के ऊपर गिरने लगे। भगदड़ मच गई। करीब 50 लोग कुचलकर मारे गए। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। कुछ लोगों की मौत दम घुटने की वजह से भी हुई थी।

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