उसे दिन में चुनाव प्रचार के बाद रात को जेल जाना होता था। चुनाव प्रचार के समय वह करीब एक दर्जन पुलिस कर्मियों के घेरे में रहता था। इस सुरक्षा का प्रतिदिन का खर्च दो लाख रुपये से अधिक था, जिसका वहन वह खुद करता था, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने उसे इसी शर्त पर हिरासती जमानत दी थी, लेकिन यह समझना कठिन रहा कि क्यों दी थी?

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि चुनाव प्रचार के लिए हिरासती जमानत के इस फैसले को मिसाल नहीं माना जाए, क्योंकि यह मामले के ‘विचित्र तथ्यों और परिस्थितियों’ को ध्यान में रखकर दिया जा रहा है। आखिर ऐसे क्या विचित्र तथ्य और परिस्थितियां थीं कि दिल्ली के भीषण दंगों के आरोपित को चुनाव प्रचार के लिए हिरासती जमानत देनी पड़ी?

भले ही सुप्रीम कोर्ट ने ताहिर हुसैन को हिरासती जमानत देते समय यह कहा हो कि इसे नजीर न माना जाए, लेकिन इसके अगले ही दिन एक स्थानीय अदालत ने दिल्ली दंगे के एक और आरोपित शिफा उर रहमान को इस आधार पर पांच दिन के लिए हिरासती जमानत दे दी कि सुप्रीम कोर्ट ऐसे ही मामले में ताहिर हुसैन को जमानत दे चुका है।

शिफा वह दूसरा प्रत्याशी है, जिसे औवेसी ने चुनाव मैदान में उतारा है। शिफा ओखला से चुनाव लड़ रहा और ताहिर मुस्तफाबाद से। क्या इसमें संदेह है कि यदि सुप्रीम कोर्ट ताहिर को चुनाव प्रचार के लिए जमानत नहीं देता तो शिफा को भी नहीं मिलती। आखिर सुप्रीम कोर्ट ने किस संदर्भ में कहा था कि ताहिर को दी गई जमानत को नजीर न माना जाए?

ताहिर को जमानत मिलने पर इसलिए भी सवाल उठा, क्योंकि यह सुविधा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में बंद खालिस्तान समर्थक चरमपंथी अमृतपाल सिंह और टेरर फंडिंग के आरोपों से दो-चार इंजीनियर रशीद को नहीं मिली थी। इन दोनों ने जेल में रहते हुए लोकसभा चुनाव लड़ा था। दुर्भाग्य से दोनों अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों-खडूर साहिब और बारामुला से चुनाव जीत भी गए थे। आखिर चुनाव प्रचार की जो सुविधा इन दोनों को नहीं मिली, वह ताहिर को क्यों मिल गई? उसके कारण ही शिफा को भी मिल गई।

ताहिर हुसैन पर दिल्ली दंगों में मारे गए आइबी के कर्मचारी अंकित शर्मा की हत्या का आरोप है। उस पर दस एफआइआर दिल्ली पुलिस की हैं और एक ईडी की है। दंगों के दौरान उसके घर की छत पर पेट्रोल बमों का जखीरा और पत्थरों के ढेर मिले थे। दिल्ली पुलिस की चार्जशीट के अनुसार उसने दंगों के पहले थाने में जमा अपनी लाइसेंसी पिस्टल रिलीज करा ली थी।

दंगों के बाद वह जब पुलिस की गिरफ्त में आया तो यह नहीं बता सका था कि उसके सौ में से 24 कारतूसों का कहां और कब इस्तेमाल हुआ? मई 2022 में उसके खिलाफ आरोप तय करते समय स्थानीय अदालत ने कहा था, ‘गवाहों के बयानों से स्पष्ट है कि ताहिर केवल साजिशकर्ता ही नहीं, बल्कि एक सक्रिय दंगाई था। वह लोगों को उकसा रहा था, ताकि दूसरे समुदाय को सबक सिखाया जा सके।’

संगीन आरोपों में जेल में बंद लोगों ने पहले भी चुनाव लड़े हैं। उनमें से कुछ जीते भी हैं, लेकिन किसी आरोपित को चुनाव लड़ने के साथ प्रचार करने की भी सहूलियत देना गंभीर चिंता की बात है। इसकी पुष्टि सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच से भी होती है, जिसमें एक जज ताहिर को जमानत देने के पक्ष में थे और दूसरे विरोध में। विरोध में पंकज मित्तल थे।

उनका कहना था कि अगर चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दी जाती है तो यह भानुमति का पिटारा खोल देगा। चूंकि दूसरे जज अमानतुल्लाह उनकी राय से सहमत नहीं थे, इसलिए मामला तीन सदस्यीय बेंच के पास गया और उसने ताहिर को जमानत दे दी। यह बिल्कुल भी अच्छा नहीं हुआ, क्योंकि अब गंभीर आरोपों से घिरा कोई अभियुक्त जमानत न मिलने की सूरत में चुनाव लड़ने और प्रचार करने के बहाने जमानत पा सकता है।

यह विधि की विडंबना है कि जेल में बंद कोई व्यक्ति वोट तो नहीं डाल सकता, लेकिन चुनाव लड़ सकता है। यदि ताहिर हुसैन जैसे अभियुक्तों को चुनाव प्रचार की अनुमति देकर सभ्य समाज को शर्मिंदा होने से बचाना है तो जेल से चुनाव लड़ने की सुविधा समाप्त की जानी चाहिए। इसलिए समाप्त की जानी चाहिए, क्योंकि चुनाव लड़ना मौलिक अधिकार नहीं है।

यदि राजनीतिक दल अपने संकीर्ण स्वार्थों और ‘दोष सिद्ध न होने तक हर कोई निर्दोष है’ के जुमले के चलते इसके लिए तैयार नहीं होते तो कम से कम उन्हें ऐसा कानून बनाना चाहिए, जिससे कोई चुनाव प्रचार करने के लिए जमानत न पा सके। यदि ऐसा नहीं होता तो फिर आपराधिक प्रवृत्ति वाले जेल में होते हुए भी चुनाव तो लड़ेंगे ही, चुनाव प्रचार करने के लिए भी निकलेंगे। उनमें से कुछ जीत भी सकते हैं, क्योंकि दुर्भाग्य से अपने देश में कई लोग जाति, समुदाय के आधार पर दागी लोगों को भी खुशी-खुशी वोट देना पसंद करते हैं।