समाज को रोकना होगा सांस्कृतिक प्रदूषण,घटिया ऑनलाइन सामग्री पर लगानी होगी लगाम
इंटरनेट मीडिया कंपनियों और उनके मंचों की जवाबदेही भी तय करनी होगी कि वे किस प्रकार की सामग्री आगे बढ़ाएं। सार्थक सामग्री को प्राथमिकता देने वाली प्रणाली विकसित करनी होगी। एक समाज के रूप में हमें वह शक्ति अर्जित करनी होगी कि हम अपने लिए आवश्यक सामग्री के मानक तय कर सकें। हमारी प्रगति यात्रा में कोलाहल पैदा करने वाले कर्कश स्वरों की कोई जगह नहीं हो सकती।
…..बीते दिनों इंडियाज गाट लैटेंट नामक एक यूट्यूब कार्यक्रम पर अश्लीलता एवं अभद्रता ने मर्यादा के ऐसे बंधन तोड़ दिए कि मामला शीर्ष अदालत पहुंच गया। कुछ लोगों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और डार्क ह्यूमर के नाम पर इस विवाद की जड़ बने लोगों और खासकर रणवीर इलाहाबादिया का समर्थन भले ही किया जा रहा हो, लेकिन उसे एक बड़े तबके के कोप का शिकार होना पड़ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने उसे गिरफ्तारी से राहत जरूर दे दी, लेकिन खरी-खोटी सुनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। कोर्ट ने उसकी भावी गतिविधियों पर भी अनिश्चितकाल के लिए विराम लगा दिया। इस प्रकरण ने सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म कहे जाने वाले मंचों की उपयोगिता पर भी नए सिरे से बहस छेड़ दी है।
इसमें संदेह नहीं कि इंटरनेट मीडिया ने संवाद का एक सशक्त माध्यम उपलब्ध कराने के साथ ही सूचनाओं के लोकतंत्रीकरण में अहम भूमिका निभाई है, लेकिन अब यह दोधारी तलवार की तरह हो गया है। इसके जरिये लोग किसी भी कीमत पर ध्यान आकर्षित करके चर्चा का केंद्र बने रहना चाहते हैं। ऐसे लोगों को ‘इन्फ्लुएंसर्स’ कहा जाता है, लेकिन ये प्रभाव के बजाय दुष्प्रभाव अधिक पैदा करते दिख रहे हैं।
सामान्य समझ यही कहती है कि अगर किसी के पीछे लोग बड़ी संख्या में लामबंद होने लगें तो इससे उस व्यक्ति की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। इंटरनेट मीडिया की दुनिया में इसका उलटा हो रहा है। अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए अनाप-शनाप सामग्री बनाई जा रही है। इसकी वजह यही है कि विचित्र एवं विवादित चीजें अधिक उत्सुकता बढ़ाती हैं।
इसीलिए सार्थक सामग्री से अधिक उस तरह की भाषा एवं विषयवस्तु को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो ध्यान आकर्षित कर सके। भारत के संदर्भ में यह स्वीकार्य नहीं हो सकता। याद रहे कि भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि सदियों से पोषित होती आ रही एक सभ्यता है, जिसकी जड़ें आध्यात्मिकता एवं ज्ञान में निहित हैं। कुंभ जैसे आयोजन इसी सांस्कृतिक अविरल प्रवाह के प्रतीक हैं। पूरा पौराणिक साहित्य प्रेरक आख्यानों से भरा है।
हमारे विमर्श में ज्ञान को विनम्रता से जोड़कर देखा गया है, अहंकार से नहीं। हमारी परंपरा में कहीं भी गरिमा से विचलन नहीं है। उसमें जिम्मेदारी एवं जवाबदेही का भाव है। ऐसी समृद्ध परंपरा को कुछ कथित इन्फ्लुएंसरों को विरूपित करने की छूट नहीं दी जा सकती। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आज जिन्हें आदर्श के तौर पर देखा जा रहा है, उनके पास युवाओं को प्रेरित करने के लिए कुछ नहीं।
इनमें से अधिकांश न तो मेधा के धनी हैं और न ही राष्ट्र की प्रगति में उनका कोई विशेष योगदान है। ऐसे तमाम लोग अकादमिक रूप से कमजोर हैं। उनकी कोई बौद्धिक आभा नहीं है। समाज के प्रति भी उनका कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं। इसके बावजूद इंटरनेट मीडिया पर तमाम तिकड़मों से वे विमर्श को प्रभावित कर लाखों लोगों को जोड़ने में सक्षम हो रहे हैं।
वे अपने लाखों फालोअर्स के चलते बड़ी रकम कमा रहे हैं और प्रभावशाली गलियारों तक अपनी पहुंच बनाने में सक्षम हो रहे हैं। एक ऐसे समाज में जहां लोकप्रियता से सत्ता और शक्ति के दरवाजे खुलने लगते हैं, वहां ये इन्फ्लुएंसर अपनी पैठ से विमर्श को प्रभावित करने से लेकर रुझानों की दशा-दिशा से लेकर सांस्कृतिक पहलुओं को अपने हिसाब से तय करने लगते हैं। उन्हें मूल्यों को तिलांजलि देने से भी कोई संकोच नहीं। बस उनका कंटेंट वायरल होते रहना चाहिए।
जब आप एक बड़े तबके को प्रभावित करने की क्षमता पाते हैं तो इसके साथ जिम्मेदारी का भाव स्वत: संलग्न होता है। इस ताकत के जरिये किसी को सभ्यता एवं संस्कृति के अवमूल्यन की छूट नहीं मिल जाती, लेकिन ये लोग ऐसा ही कर रहे हैं। उन्हें सफलता भी इस कारण मिल रही है, क्योंकि उन्हें सराहा जाता है और हम उन्हें ऐसा करने की छूट दे देते हैं।
युवाओं का अपरिपक्व मन आसानी से इन्फ्लुएंसर्स की बातों का शिकार हो जाता है। अगर ऐसे लोग ही युवाओं के आदर्श बनने लगे तो समझिए कि हम कैसी नई पीढ़ी गढ़ रहे हैं। इसलिए अपने भविष्य को बचाने के लिए हमें अविलंब कदम उठाने होंगे।
आखिर इस मामले में क्या किया जा सकता है? इसका जवाब जितना सरल है, उतना ही जटिल भी। असल में इन्फ्लुएंसर्स का कद ही उनकी ताकत है। ऐसे में बेहतर यही होगा कि हम उनका कद ही न बढ़ने दें। यह कद उन्हें और उनकी सामग्री को मिलने वाली चर्चा से हासिल होता है। ऐसे में सर्वोत्तम उपाय यही है कि हम उनके साथ सहभागिता न करें, क्योंकि लोगों के साथ जुड़ाव ही उनकी पूंजी है। उनकी सामग्री का प्रसार सीमित होने से उनका कद स्वाभाविक रूप से घट जाएगा।
याद रहे कि हम जैसी सामग्री देखते हैं, इंटरनेट मीडिया अलगोरिदम हमें वही परोसने लगता है। जब हम ऐसी घटिया सामग्री की उपेक्षा करने लगेंगे तो उसे बनाने वालों की डिजिटल ताकत भी संकुचित होती जाएगी। हमें सतर्कता बरतते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि हमारे बच्चे और प्रियजन ऐसी सामग्री के जाल में न फंसें। घर और आसपास सार्थक संवाद के जरिये इस दिशा में जागरूकता प्रसार में मदद मिल सकती है। किसी भी सूरत में सांस्कृतिक प्रदूषण फैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
हमें अपने लिए बेहतर नायक गढ़ने होंगे। हमें विज्ञानियों, शिक्षकों, कलाकारों, उद्यमियों और विचारकों आदि को प्रतिष्ठित कर उन्हें लोगों के मानस में नायक के रूप में स्थापित करना होगा। हमें ऐसी सामग्री को प्रोत्साहन देना होगा, जो हमारे मूल्यों को पोषित करने एवं सही मायनों में प्रेरित करने वाली हो और हमारी विरासत पर गर्व करना सिखाती हो।
इंटरनेट मीडिया कंपनियों और उनके मंचों की जवाबदेही भी तय करनी होगी कि वे किस प्रकार की सामग्री आगे बढ़ाएं। सार्थक सामग्री को प्राथमिकता देने वाली प्रणाली विकसित करनी होगी। एक समाज के रूप में हमें वह शक्ति अर्जित करनी होगी कि हम अपने लिए आवश्यक सामग्री के मानक तय कर सकें। हमारी प्रगति यात्रा में कोलाहल पैदा करने वाले कर्कश स्वरों की कोई जगह नहीं हो सकती।
(लेखक प्रोफेसर हैं)