इनमें अधिकांश वे थे, जो प्रयागराज जाने के लिए आए थे। इसके पहले महाकुंभ में भी मौनी अमावस्या के मौके पर भगदड़ मचने से 30 लोग मारे गए थे। भगदड़ वहीं मचती है, जहां भीड़ के साथ अव्यवस्था भी होती है और भीड़ नियंत्रण के उपाय नाकाफी या नदारद होते हैं। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भारी भीड़ थी, लेकिन भीड़ नियंत्रण के उपाय नदारद थे।

रेलवे की ओर से कितना भी कहा जाए कि ऐसा नहीं था, लेकिन सच यही है कि इसकी परवाह नहीं की गई कि रेल यात्री सुरक्षित और सुगम तरीके से यात्रा कर सकें। इसकी पुष्टि भगदड़ में मौतों के बाद रेलवे की ओर से किए गए इन उपायों से होती है कि अब प्रयागराज जाने वाली ट्रेनें निर्धारित प्लेटफार्म से जाएंगी, यात्रियों के लिए होल्डिंग एरिया बनाए जाएंगे और इतनी से इतनी अवधि के बीच प्लेटफार्म टिकट नहीं दिए जाएंगे।

इससे क्या साबित होता है? केवल यही कि हादसे के बाद होश आया। यदि ये सारे उपाय पहले कर लिए जाते तो 18 जिंदगियों को असमय काल के गाल में जाने से बचाया जा सकता था। देश की राजधानी में प्रमुखतम रेलवे स्टेशन पर भीड़ नियंत्रण के उपायों की अनदेखी और उसके चलते 18 यात्रियों की मौत से भी खराब बात यह रही कि हादसे के बाद अधिकारी भगदड़ मचने और उसमें यात्रियों के मारे जाने-घायल होने की बात छिपाने के जतन करते रहे।

अभी तक उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई की सूचना नहीं है। इसी कारण इस पर यकीन करना कठिन है कि जांच सही तरह होगी और लापरवाह अधिकारी दंड के पात्र बनेंगे। महाकुंभ में भगदड़ से 30 श्रद्धालुओं की मौत की भी जांच हो रही है। जांच पुलिस भी कर रही है और न्यायिक आयोग भी।

पता नहीं कि इन दोनों जांच से क्या सामने आएगा, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि महाकुंभ में भगदड़ के करीब 15 घंटे बाद यह बताया गया कि 30 श्रद्धालुओं की मौत हुई है। इसके उपरांत मृतकों की सूची और मृत्यु प्रमाणपत्र देने में भी देरी की खबरें आईं। इसके चलते विपक्षी नेताओं को यह आरोप लगाने का अवसर मिला कि महाकुंभ में भगदड़ से हुई मौतों का सही आंकड़ा छिपाया जा रहा है।

अपने देश में यह सदैव देखने को मिलता है कि सरकारी अधिकारी पहले तो किसी घटना-दुर्घटना की गंभीरता कम करके बताते हैं और फिर उसमें मारे गए लोगों का विवरण देने में। यह हमारी नौकरशाही की वह विचित्र प्रवृत्ति है, जो दूर होने का नाम नहीं ले रही है। इसी कारण उन जांच पर भी भरोसा नहीं होता, जिनमें अधिकारी ही अधिकारी की जांच करते हैं।

जब भी कहीं भीड़ भरे स्थलों में कोई हादसा होता है और उसमें लोग मारे जाते हैं तो घटना की जांच करने-कराने वालों से यही सुनने को मिलता है कि इस पर भी ध्यान दिया जाएगा कि भविष्य में इस तरह के हादसों को कैसे रोका जाए? ऐसा केवल सुनने को ही मिलता है, क्योंकि बार-बार वैसे ही हादसे होते रहते हैं, जैसे पहले हो चुके होते हैं। कभी-कभी तो उन्हीं स्थलों पर हो जाते हैं, जहां पहले हो चुके होते हैं।

इसका उदाहरण कुंभ भी है और नई दिल्ली रेलवे स्टेशन भी। भगदड़ की घटनाओं में जब लोग मारे जाते हैं तो केवल जनहानि ही नहीं होती, बल्कि देश की बदनामी भी होती है। एक ऐसे समय जब देश को विकसित राष्ट्र बनाने की बातों के साथ इसके लिए प्रयत्न भी हो रहे हैं, तब फिर सार्वजनिक स्थलों में भीड़ नियंत्रण के उपाय प्राथमिकता के आधार पर किए जाने चाहिए। हमारे नीति-नियंता इन उपायों से अनभिज्ञ नहीं और सच तो यह है कि भीड़ नियंत्रण के नियम-कानून भी बने हुए हैं, लेकिन उनका पालन मुश्किल से होता है।

अपने यहां नियम-कानूनों के उल्लंघन की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है, लेकिन इसका कारण केवल यह नहीं कि लोगों को उनकी परवाह नहीं होती, बल्कि यह भी है कि शासन-प्रशासन के स्तर पर उनके अनुपालन पर जोर नहीं दिया जाता। प्रायः यह अनुपालन मनचाहे तरीके से होता है।

बीते वर्ष 2 जुलाई को हाथरस के सिकंदराराऊ क्षेत्र के फुलराई गांव में सूरजपाल उर्फ भोले बाबा के सत्संग के बाद भगदड़ मचने से 121 लोगों की मौत हो गई थी। घटना की जांच के बाद पुलिस ने जो चार्जशीट दाखिल की, उसमें आयोजन की अनुमति मांगने वालों को तो भगदड़ का जिम्मेदार माना गया, लेकिन बाबा की कोई गलती नहीं पाई गई।

उनका नाम एफआइआर तक में नहीं था। इसके विपरीत जब अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा-2 के प्रीमियर के समय थियेटर में भगदड़ मचने से एक महिला की मौत हो गई थी तो अभिनेता को गिरफ्तार कर लिया गया था। कहना कठिन है कि एक जैसे मामले में अलग-अलग तरह की कार्रवाई में कौन उचित थी और कौन नहीं, लेकिन अपने देश में भगदड़ जनित घटनाओं में कार्रवाई होने या न होने के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसे हादसों से जरूरी सबक सीखे जा रहे हैं। यही सबसे बड़ी त्रासदी है।