चूंकि यह भी सामने आना चाहिए कि अमेरिकी अनुदान कैसे और कहां खर्च किया जा रहा था, इसलिए बेहतर होगा कि भारत भी अपने स्तर पर जांच करे। इस रहस्यमय अनुदान की तह तक जाने की आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने मतदान बढ़ाने के नाम पर अमेरिका से अनुदान मिलने से तो इनकार किया, लेकिन यह माना कि निर्वाचन आयोग ने 2012 में इंटरनेशनल फाउंडेशन फॉर इलेक्ट्रोरल सिस्टम से समझौता किया था।

यह अरबपति अमेरिकी निवेशक जार्ज सोरोस की संस्था ओपेन सोसायटी से जुड़ा है, जिसे यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फार इंटरनेशनल डेवलपमेंट यानी यूएसएड से सहायता से मिलती थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत में जार्ज सोरोस की संस्था के जरिये यूएसएड का पैसा आ रहा था और उसका इस्तेमाल भारतीय हितों को चोट पहुंचाने के लिए किया जा रहा हो?

इसकी आशंका इसलिए है, क्योंकि विभिन्न देशों को यूएसएड से भारी-भरकम राशि मिलती रही है और आम धारणा यह है कि इस राशि का उपयोग संबंधित देश के अंदरूनी मामलों में दखल देने के लिए किया जाता था। यूएसएड भले ही यह दावा करता हो कि वह विभिन्न देशों में साक्षरता बढ़ाने, गरीबी मिटाने, महिलाओं को सशक्त करने, लोकतंत्र मजबूत करने, सिविल सोसायटी को सुगठित करने के लिए आर्थिक सहायता देता था, लेकिन लगता नहीं कि यह अनुदान वास्तव में इन्हीं उद्देश्यों के लिए खर्च किया जाता था।

शायद इसी कारण डोनाल्ड ट्रंप के सहयोगी एलन मस्क ने यूएसएड को एक आपराधिक संगठन करार दिया। अब ट्रंप भी उसे खरी-खोटी सुना रहे हैं और तरह-तरह के सवाल कर रहे हैं, लेकिन इन सवालों के जवाब देने की जिम्मेदारी उनकी ही है।

पता नहीं वह जवाब देंगे या नहीं, लेकिन कम से कम भारत को तो यह चाहिए कि वह किसी भी स्रोत से मिलने वाली विदेशी सहायता के मामले में यह देखे कि उसका उपयोग कहां हो रहा है? यह इसलिए देखा जाना चाहिए, क्योंकि विदेशी सहायता के जरिये भारतीय हितों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश की जाती रही है।

यह किसी से छिपा नहीं कि पर्यावरण हितों की रक्षा के नाम पर विदेशी सहायता पाने वाले कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने किस तरह देश के आर्थिक हितों को क्षति पहुंचाई? इसी तरह विदेशी सहायता पाने वाले ऐसे भी संगठन हैं, जो गरीबी मिटाने की आड़ में मतांतरण कराते हैं। ऐसे में उचित यही है कि विदेशी अनुदान की निगरानी बढ़ाई जाए।