अपने दायित्व को समझें शिक्षा संस्थान ?
भारत की आजादी में जिस भावना से देश के लोग जुटे थे आज उसी प्रतिबद्ध भाव से विकसित भारत के लक्ष्य से हमें जुड़ना होगा। इस महायज्ञ में शिक्षा संस्थानों बौद्धिकों शोधार्थियों एवं छात्रों की महती भूमिका है। शिक्षा की भूमिका विकसित भारत के संदर्भ में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि शिक्षा हममें आगे बढ़ने एवं विकसित होने की आकांक्षा को जन्म देती है।
….आज भारत तीव्र परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है। यह परिवर्तन सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी दिशाओं में हो रहा है। इन क्षेत्रों में परिवर्तन हम कई बार देखते हैं, पर उन्हें समझ नहीं पाते, जबकि यह ‘परिवर्तन का दौर’ है। भारतीय समकालीन आधुनिक इतिहास को तीन रूपांतरकारी दौर में बांटा जा सकता है। पहला, महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम का दौर।
दूसरा, आजादी के बाद देश को बनाने के लक्ष्य को पाने की चाहतों का दौर और तीसरा, विकसित भारत का आज का दौर। विकसित भारत का यह मिशन समाज के प्रत्येक वर्ग से स्वतंत्रता आंदोलन जैसी प्रतिबद्धता की मांग करने के साथ यह हम सबसे अपने को नए परिवर्तनों से जोड़ने की भी अपेक्षा करता है। विकसित भारत के इस दौर में हमें व्यक्तिगत और संस्थागत, दोनों ही स्तरों पर अपने को पुनर्नवा करने की जरूरत है, तभी प्रधानमंत्री मोदी द्वारा परिकल्पित इस लक्ष्य को पाया जा सकता है।
बीते दिनों राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु के नेतृत्व में भारतीय शिक्षा एवं शिक्षण संस्थानों के वर्तमान एवं भविष्य पर गहन चिंतन हुआ। उसमें देश भर के विश्वविद्यालयों के कुलपति, आईआईटी, आईआईएम एवं एनआईटी के निदेशक तथा शिक्षा मंत्रालय से जुड़े नीति निर्माता एवं अधिकारियों ने भाग लिया। उसमें शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि उम्मीद है कि हमारे शिक्षण संस्थान भारत में विकास के प्रकाश स्तंभ बनेंगे एवं प्रधानमंत्री द्वारा परिकल्पित विकसित भारत के लिए ‘एंकर’ का कार्य करेंगे।
उनके इस वक्तव्य में भविष्योन्मुखी अपेक्षा निहित है। इसमें यह अपेक्षा है कि भारतीय शिक्षण संस्थान केवल चहारदीवारी के भीतर रहकर पढ़ाने, किताबी ज्ञान देने एवं डिग्री देने वाली संस्था के रूप में ही सीमित न रहें, बल्कि इनसे आगे निकल ‘विकास एवं सामाजिक परिवर्तन’ के चिंतन केंद्र के रूप में स्वयं को विकसित करें। इस प्रकार ये संस्थाएं अपने शोध, आंकड़ों, विकास समीक्षा एवं चिंतन के माध्यम से विकसित भारत के इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए दिशा एवं दृष्टि देंगी।
राष्ट्रपति की तरह प्रधानमंत्री भी विकसित भारत के लक्ष्य को पूरा करने में शिक्षा संस्थानों की भूमिका का उल्लेख कर चुके हैं। एक बार साइंस कांग्रेस में उन्होंने देश के शिक्षण संस्थानों से समाज को भी अपनी प्रयोगशाला बनाने का आग्रह किया था। भारतीय शिक्षा एवं शिक्षण संस्थान जब ‘भारतीय समाज एवं अपने आसपास हो रहे परिवर्तनों से नाभिनाल का संबंध बना पाएंगे, तभी वे विकसित भारत के प्रकाश स्तंभ की भूमिका निभा पाएंगे।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 इन्हीं उद्देश्यों को पूरा करने वाली है। वह भारतीय शिक्षा के पारंपरिक स्वरूप को तोड़ते हुए एक प्रगतिशील रूपांतर के लिए नीति-नियम रचती है। इस शिक्षा नीति के तहत लचीलापन, अंतर अनुशासनिकता, समाज के विविध प्रयासों के साथ अंत: संवाद तथा समरस एवं विकासोन्मुखी गतिशीलता प्रदान करने की कोशिश दिखाई पड़ती है, ताकि भारतीय शिक्षा में संस्थागत एवं व्यक्तिक स्तर पर आधारभूत परिवर्तन हो सके।
भारतीय शिक्षा एवं शिक्षण संस्थानों के समक्ष यह चुनौती भी है कि वे अपनी पारंपरिक प्रकृति, सुविधाभोगी बौद्धिकता एवं अनेक तरह के रूढ़ बंधनों से मुक्त होकर सामाजिक बदलावों, विकास के लिए चल रहे अनगिनत प्रयासों से स्वयं को जोड़ें। आज देश को ऐसे बुद्धिजीवियों की जरूरत है, जो अपने ज्ञान से समाज में सकारात्मक नेतृत्व को दिशा-दृष्टि दे सकें। महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि ऐसे ही जुड़ाव से हम अपने समाज में निहित पारदर्शी देवत्व को देख और सुन पाएंगे।
इस संदर्भ में दूसरी जरूरत है कि समाज एवं शिक्षा के साथ ही राज्य एवं शिक्षा के बीच भी संवाद गहन हो। यह संवाद ऐसा हो, जो दोनों में भेद न पैदा करे, बल्कि दोनों को समृद्ध कर सके। हमारे शिक्षा संस्थान एवं बौद्धिक जगत राज्य द्वारा चलाई जा रही अनेक विकासपरक योजनाओं एवं किए जा रहे कार्यों का सम्यक मूल्यांकन कर उनमें व्याप्त कमियों से उसे अवगत कराए। हमारे यहां योजनाओं के कार्यान्वयन के मूल्यांकन तो होते हैं, पर उन्हें बौद्धिक ज्ञान में बदलने के उपक्रम में हम पीछे रह जाते हैं।
पिछले दिनों शिक्षा मंत्रालय की पहल पर देश के 20 केंद्रीय विश्वविद्यालयों, आईआईएम, आईआईटी इत्यादि ने मिलकर भारत में चल रहे विकास कार्यों के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन किया था, जो अब अनेक खंडों में प्रकाशित होकर आ गया है। आज ऐसे ही विविध स्तरों पर अनेक प्रयासों की जरूरत है।
बीते दिनों मैं उत्तर प्रदेश के एक राज्य विश्वविद्यालय गया था। वहां के छात्रों ने अनौपचारिक बातचीत में कहा कि विकसित भारत अब हमारे लिए विकास मंत्र है। उस युवा छात्र की यही दृष्टि अगर हमारे शिक्षकों, छात्रों एवं कर्मचारियों में आ जाए तो विकसित भारत के इस लक्ष्य को पाने में हमें सुविधा होगी।
भारत की आजादी में जिस भावना से देश के लोग जुटे थे, आज उसी प्रतिबद्ध भाव से विकसित भारत के लक्ष्य से हमें जुड़ना होगा। इस महायज्ञ में शिक्षा संस्थानों, बौद्धिकों, शोधार्थियों एवं छात्रों की महती भूमिका है। शिक्षा की भूमिका विकसित भारत के संदर्भ में इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि शिक्षा हममें आगे बढ़ने एवं विकसित होने की आकांक्षा को जन्म देती है। यही आकांक्षा वह उत्प्रेरक शक्ति है, जो भारत के सामान्यजन को विकसित भारत के मिशन से जोड़ सकती है।