हथियारबंद क्रांति का प्रोजेक्ट अब अपने खात्मे की ओर है
अस्सी के दशक के आखिरी सालों में नक्सलवादी आंदोलन और उसके अंतर्विरोधों का अध्ययन करते समय मैंने अंदाजा नहीं लगाया था कि कभी इस आंदोलन के कुछ धड़े (पीपुल्स वार और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) मिलकर एक माओवादी पार्टी भी बना सकते हैं।
दरअसल, माओ के विचारों से प्रभावित होने के बावजूद अधिकतर नक्सलवादी संगठन माओ के किसी वाद की मौजूदगी से इंकार करते थे। दूसरे, उस समय अनुमान लगाना भी नामुमकिन था कि हथियारबंद क्रांति का यह प्रोजेक्ट इतनी जल्दी (केवल 20 साल में) खात्मे की कगार पर पहुंच जाएगा।
आज स्थिति यह है कि बस्तर, बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और नारायणपुर जैसे माओवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों की लगातार मुहिम के कारण माओवादी पार्टी का आधार बेहद सिकुड़ चुका है। उसकी केंद्रीय कमेटी के 22 सदस्य घटकर सात या उससे भी कम रह गए हैं। कुछ का वृद्धावस्था के कारण देहांत हो गया है और कुछ मुठभेड़ों में मारे गए हैं।
पार्टी में अपना नवीनीकरण करने की क्षमता नहीं दिख रही है। उसके पास नेतृत्वकारी शक्तियों का अभाव है। सुरक्षा-बल बड़े-बड़े ऑपरेशनों के जरिए एक-एक बार में पच्चीस-तीस माओवादियों को मौत के घाट उतार दे रहे हैं। सरकार यकीन से कह रही है कि उसे सिर्फ एक साल और चाहिए। यानी, मार्च 2026 तक माओवादी राजनीति का सफाया हो जाएगा।
पिछली सदी के आखिरी बीस सालों में नक्सलवादी संगठनों के बीच एक जबर्दस्त बहस चली। उसके केंद्र में यह सवाल था कि क्या भारतीय राज्य का तख्ता हथियारबंद कार्रवाई से पलटा जा सकता है। दो सबसे बड़े संगठनों (लिबरेशन गुट और पीपुल्स वार गुट) ने इस विवाद में परस्पर टकराते हुए रवैयों की नुमाइंदगी की।
विनोद मिश्र के नेतृत्व वाला लिबरेशन गुट बिहार के मैदानी इलाकों में अपने लंबे तजुर्बे से इस निष्कर्ष पर पहुंचते दिख रहा था कि हथियारबंद गतिविधियों का नतीजा गरीब जनता से कट जाने में निकलता है। इसलिए कथित छापामार लड़ाई बंद करके लोकतांत्रिक राजनीति में भाग लेने की तरफ जाना चाहिए।
इसके उलट तत्कालीन आंध्र के एजेंसी एरिया (पहाड़ और जंगल) में सक्रिय सीतारमैया की अगुआई वाले पीपुल्स वार की मान्यता थी कि चीन की शैली में रेड बेस एरिया बनाकर सरकार के िखलाफ गुरिल्ला युद्ध चलाना ही एकमात्र सही तरीका है। इस बहस का व्यावहारिक नतीजा इस समय सबके सामने है।
लिबरेशन गुट इस समय सीपीआई-एमएल के रूप में कानूनी रूप धारण करके बिहार के विपक्षी महागठबंधन का महत्वपूर्ण अंग है। वह चुनाव लड़ता है और बहुत धीरे-धीरे ही सही पर संसदीय राजनीति के धरातल पर अपने कदम बढ़ा रहा है। जबकि पीपुल्स वार माओवादी पार्टी के भूमिगत रूप में राजनीतिक जीवन के सभी पक्षों से कटने के बाद सुरक्षा बलों से लड़ते हुए अपने खात्मे की तरफ बढ़ रहा है।
हथियारबंद कार्रवाइयों में सीमित हो जाने के कारण 2004 में बनी माओवादी पार्टी ने कुछ बड़ी गलतियां कीं। पहली, उसने उन छात्र आंदोलनों से खुद को पूरी तरह से काट लिया, जो रैडिकल स्टूडेंट यूनियन के नेतृत्व में देश के कई विश्वविद्यालयों में चल रहे थे।
दूसरे, उन “रैयतु कुली संघमों औक किसान सभाओं’ की गतिविधियां भी ठंडी पड़ गईं, जिनके जरिए भूमिहीन और छोटे किसानों के अधिकारों को बुलंद किया गया था। वामपंथ की ओर झुके पत्रकारों, कवियों, रंगकर्मियों को लगने लगा कि मुठभेड़, हत्या, हथियारबंदी, रंगदारी वसूलने वाली यह राजनीति उनके काम की नहीं है।
माओवादी राजनीति में न तो किसी तरह के लोकतांत्रिक पहलू थे, न ही इसके सांस्कृतिक और सामाजिक आयाम थे। यह चीनी क्रांति के मॉडल को यांत्रिक तरीके से भारत में लागू करने पर आमादा दिखाई पड़ रही थी। 40 के दशक के चीन व 21वीं सदी के भारत में जमीन और आसमान का अंतर था।
माओवादी उस इतिहास के कैदी हैं, जिसके रास्ते पर आज चीन भी नहीं चल रहा है। हथियारबंद क्रांति का मुहावरा पुराना पड़ चुका है। हथियार डालकर समाज और राजनीति की मुख्यधारा में लौटने के सिवा कोई चारा नहीं बचा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)