हाथरस की बेटी को जल्दी न्याय दिला पाएगी फास्ट ट्रैक कोर्ट? 42 फीसदी केसों में लगे 3-3 साल से भी ज्यादा

उत्तर प्रदेश के हाथरस में पिछले महीने 19 साल की लड़की से बलात्कार हुआ. फिर इलाज के दौरान लड़की ने दम तोड़ दिया. जनता, विपक्ष के आक्रोश के बाद योगी सरकार ने मामला स्पेशल टीम (SIT) को सौंप दिया और मुकदमे फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track Court) में चलाने का आदेश दिया. लेकिन फास्ट ट्रैक कोर्ट असल में उतना भी फास्ट नहीं है जितना नाम से लगता है. आंकड़े गवाह हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट में जानेवाले अधिकतर मामले तीन साल से ज्यादा खिंच जाते हैं. वहीं कई बार तो केस 10-10 साल तक चले हैं.

फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन, उनको चलाने में कई समस्याएं हैं, जिनपर यहां हम बात करेंगे. साथ ही आपको बताएंगे कि फास्ट ट्रैक कोर्ट का रेकॉर्ड कैसा है और किन राज्यों में इनकी स्थिति ठीक और खराब है.

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फास्ट ट्रैक कोर्ट कितने धीमे

सामान्य कोर्ट से भी धीमे हैं फास्ट ट्रैक कोर्ट

आपको यह जानकार हैरानी होगी. लेकिन आंकड़े गवाह हैं कि फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track Court) सामान्य अदालतों से भी धीमे हैं. नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो का डेटा बताया है कि साल 2018 में फास्ट ट्रैक कोर्ट में 28 हजार ट्रायल हुए. इसमें से सिर्फ 22 प्रतिशत को पूरा होने में एक साल से कम लगा. यह किसी भी अन्य अदालतों के मुकाबले सबसे कम है.

फास्ट ट्रैक में गए 42 प्रतिशत मामलों को पूरा होने में तीन साल से ज्यादा, वहीं 17 प्रतिशत को पूरा होने में पांच साल से ज्यादा का वक्त लगा. ये भी किसी भी अन्य अदालतों के मुकाबले सबसे कम है. साल दर साल तुलना करेंगे तो स्थिति 2017 में फिर भी थोड़ी बेहतर थी. तब 30 प्रतिशत से ज्यादा मामले एक साल से कम में निपटे थे.

2019 में थीं 581 फास्ट ट्रैक अदालत, 6 लाख केस पेंडिंग

31 मार्च 2019 के आंकड़े के मुताबिक, देशभर में 581 फास्ट ट्रैक कोर्ट हैं जिनमें 6 लाख केस पेंडिंग हैं. केस पेंडिंग होने के पीछे जजों की कमी भी अहम कारण है. भारत में प्रति 10 लाख पर सिर्फ 19 जज हैं. वहीं अगर इसकी अमेरिका से तुलना की जाए तो वहां प्रति 10 लाख पर 50 जज हैं.

राज्य सरकार या हाई कोर्ट करते हैं फास्ट ट्रैक अदालत के भविष्य का फैसला

सबसे पहले जान लीजिए कि फास्ट ट्रैक कोर्ट (Fast Track Court) साल 2000 में स्थापित किए गए थे. इन्हें 2005 तक चलाया जाना था, लेकिन फिर स्कीम को 6 और सालों के लिए बढ़ा दिया गया. इसके बाद इनका भविष्य तय करने का फैसला राज्य सरकारों और हाई कोर्ट पर छोड़ दिया गया. साल 2011 में 1,734 फास्ट ट्रैक कोर्ट थे. जो धीरे-धीरे बंद होते रहे. बंद होने के पीछे मुख्य वजह फंड की कमी बताई गई है. हालांकि, अब सरकार फिर इसमें नई जान फूंकने की कोशिश में है लेकिन वह प्रक्रिया भी धीमी है.

साल 2019 में सरकार ने कहा है कि 1,023 नई फास्ट ट्रैक अदालतें बनाई जाएंगी. यह खासकर रेप, पाक्सो एक्ट से जुड़े केस सुनेंगी. हालांकि, जनवरी 2020 तक सिर्फ 195 ही नई ऐसी अदालतें खुल पाईं. बता दें कि फास्ट ट्रैक कोर्ट के लिए जजों की नियुक्ति एड हॉक बेसिस पर होती है, जिसकी जिम्मेदारी किसी रिटायर जज को सौंपी जाती है.

बिहार में केसों को 10-10 साल लग गए

बता दें कि झारखंड, छत्तीसगढ़, हरियाणा में फास्ट ट्रैक कोर्ट को सौंपे गए ज्यादातर मामले एक साल से कम में पूरे हुए. वहीं 13 अन्य राज्यों में एक साल से कम में सिर्फ 10 प्रतिशत केस की सॉल्व हुए हैं. इस मामले में बिहार की स्थिति और बुरी है. वहां 34 प्रतिशत केसों को तो 10 साल से ज्यादा लग गए. वहीं तेलंगाना में ऐसे मामले 12 प्रतिशत हैं.

वैसे निर्भया केस में फास्ट ट्रैक कोर्ट के फैसले को एक नजीर के रूप में देखा जाता है. जनता का दबाव कहें या जो कुछ कोर्ट ने सिर्फ 9 महीने में फैसला सुना दिया था. हालांकि, दोषी इतने कानूनी दांव-पेचों का इस्तेमाल करके इतने सालों तक फिर भी फांसी से बचे रहे वह बात अलग है.

कैसे सुधारी जा सकती है फास्ट ट्रैक अदालतों की स्थिति

  • वकीलों का कहना है कि सबूतों की रिकॉर्डिंग करने के तरीके में सबसे पहले बदलाव होना चाहिए क्योंकि सबसे ज्यादा वक्त इसमें लगता है. इसपर एक्सपर्ट सुझाव देते हैं कि कोर्ट कमिश्रर या रजिस्ट्रार को अगर सबूतों का रेकॉर्ड रखने में लगाया जाएगा तो केस जल्दी निपट सकते हैं. क्योंकि अभी इसके लिए अभी 8 महीने तक लग जाते हैं.
  • पुलिस और प्रशासन से जुड़े अन्य लोगों को अपनी जिम्मेदारी भी ठीक और समय पर निभानी होंगी.
  • एक्सपर्ट कहते हैं कि फास्ट ट्रैक सिर्फ नाम रख देने से कुछ नहीं होगा. जबकोर्ट ऐसे कोर्ट को कोई विशेष अधिकार नहीं मिलेंगे. बंद होते फास्ट ट्रैक कोर्ट के पीछे राज्यों की फंडिंग वाला मामला भी है. कई राज्य इसके लिए फंड देने में असमर्थता जता देते हैं.

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