क्या शराब पीना आपका बुनियादी अधिकार है? गुजरात, बिहार जैसे राज्यों का क्या, जहां शराब बनाने, बेचने और पीने पर प्रतिबंध है

गुजरात में सात दशक से शराब बेचने और पीने की मनाही है। गुजरात ही क्यों, बिहार, त्रिपुरा, लक्षद्वीप, मिजोरम और नगालैंड में भी शराब बेचना और पीना गैरकानूनी है। मणिपुर के कुछ जिलों में भी कुछ इसी तरह के कानून हैं।

आप सोच रहे होंगे कि अचानक शराबबंदी की बात क्यों? दरअसल, गुजरात हाईकोर्ट में याचिकाएं लगी हैं कि शराब पीने को भी राइट टु प्राइवेसी के तहत बुनियादी अधिकार माना जाए। 70 साल में पहली बार गुजरात के शराबबंदी कानून को चुनौती मिली है। बीते सोमवार को हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की शराबबंदी के पक्ष में दलीलों को खारिज कर दिया। साथ ही 12 अक्टूबर की तारीख तय की है ताकि इस मसले पर अंतिम सुनवाई कर फैसला सुना सके। सोमवार के फैसले को राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी कर रही है

हाईकोर्ट में गुजरात सरकार की दलीलों और याचिकाओं से यह सवाल उठते हैं कि क्या शराब पीना वाकई में हमारा बुनियादी अधिकार है? क्या राज्य सरकार के कानून इस अधिकार को छीन सकते हैं? याचिकाओं में क्या मांग की गई है? इस पर पुराने कानून क्या कहते हैं? आइए जानते हैं…

गुजरात हाईकोर्ट में लगी याचिकाएं क्या मांग कर रही हैं?

  • गुजरात हाईकोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल हुई है, जिनमें गुजरात प्रोहिबिशन एक्ट 1949 के तहत राज्य में शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी को चुनौती दी गई है। हाईकोर्ट ने सोमवार को राज्य सरकार की इन याचिकाओं पर उठाई आपत्ति को खारिज कर दिया। यह भी कहा कि याचिकाओं पर सुनवाई हो सकती है।
  • याचिकाओं में कहा गया है कि शराब पर पाबंदी से जुड़ा कानून पूरी तरह से मनमाना है। यह घर में बैठकर शराब पीने के अधिकार से लोगों को वंचित रखता है। यानी राइट टु प्राइवेसी का उल्लंघन करता है।
  • इन याचिकाओं के जवाब में राज्य सरकार ने कोर्ट में कहा कि 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने शराबबंदी कानून को कायम रखा था। इसे चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की जरूरत नहीं है।
  • याचिका लगाने वालों का कहना है कि 1951 में राइट टु प्राइवेसी नहीं था। यह तो सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की बेंच ने 2017 में दिया है। इस आधार पर अब अपने घर में बैठकर चारदीवारी में शराब पीने का अधिकार भी दिया जा सकता है।

क्या था 1951 का फैसला जिसका हवाला गुजरात सरकार दे रही है?

  • 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने बॉम्बे प्रोहिबिशन एक्ट 1949 के प्रावधानों पर फैसला सुनाया था। उस समय गुजरात बॉम्बे स्टेट का हिस्सा था। इस कानून के सेक्शन 12 और 13 के तहत शराब बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी थी। भाषा के आधार पर बॉम्बे स्टेट महाराष्ट्र और गुजरात में बंटा। तब 1960 में गुजरात ने इस कानून को जस का तस लागू किया।
  • 1951 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्टेट ऑफ बॉम्बे बनाम एफएन बलसारा कहा जाता है। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार को नुकसान देने वाले पेय को बनाने, बेचने और पीने पर पाबंदी लगाने का अधिकार है।

कितनी याचिकाएं लगी हैं? किसने लगाई हैं?

  • 2017 में राइट टु प्राइवेसी देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद याचिकाएं दाखिल होने लगी थीं। 2018 में वडोदरा के राजीव पीयूष पटेल और डॉ. मिलिंद दामोदर नेने ने याचिका लगाई। फिर अहमदाबाद की निहारिका अभय जोशी ने। इन याचिकाओं में गुजरात के शराबबंदी कानून की कुछ धाराओं को चुनौती दी गई थी।
  • 2019 में पांच और याचिकाएं दाखिल हुईं। जर्नलिस्ट पीटर नजारथ, डॉ. मलय देवेंद्र पटेल, नागेंद्र सिंह, महेंद्र राठौर और गरिमा धीरेंद्र भट्ट ने चार अलग-अलग याचिकाएं दाखिल कीं। कारोबारियों- संजय अनिलभाई पारिख, मेहुल गिरीशभाई पटेल, सुनील सुरेंद्रभाई पारेख, मयंक महेंद्रभाई पटेल और सौरिन नंदकुमार शोधन ने भी एक याचिका दाखिल की है।
  • 2020 में दो सिविल एप्लिकेशन दाखिल हुई। रिटायर्ड लेक्चरर प्रकाश नवीनचंद्र शाह और नीता महादेवभाई विद्रोही ने यह आवेदन राज्य के कानून के पक्ष में लगाए हैं। दोनों ही समाजसेवा से जुड़े हैं और चाहते हैं कि पाबंदी जारी रहे। इसके अलावा अहमदाबाद वुमंस एक्सन ग्रुप ने झरना पाठक के हवाले से भी कानून के पक्ष में आवेदन दाखिल किया है।

क्या वाकई में शराब पीना हमारा बुनियादी अधिकार है?

  • कुछ कह नहीं सकते। बिहार सरकार ने 5 अप्रैल 2016 से शराब बेचने और पीने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई। बिहार हाईकोर्ट की डिविजन बेंच ने 30 सितंबर 2016 को अपने आदेश में इस कानून के विरोध में फैसला सुनाया। इसी फैसले में सवाल उठा कि क्या शराब पीना बुनियादी अधिकार है? खैर, दोनों जजों के एक-दूसरे से अलग विचार भी इस आदेश में सामने आए थे।
  • एक साल बाद केरल में सरकारी शराब दुकानों का मसला हाईकोर्ट तक पहुंचा। 2017 में हाईकोर्ट ने कहा कि किसी व्यक्ति का शराब पीने का अधिकार राइट टु प्राइवेसी का हिस्सा हो सकता है, पर इस दलील के आधार पर सरकार को इस पर पाबंदी लगाने के अधिकार से नहीं रोका जा सकता।
  • यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि क्या पीना है और क्या खाना है, यह संविधान के आर्टिकल 21 के तहत उसका अधिकार है। यह जीने और व्यक्तिगत आजादी से जुड़ा अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट के 2017 के फैसले में राइट टु प्राइवेसी को इससे जोड़ा गया है।
  • सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि अगर नागरिकों को किसी अधिकार से वंचित किया जा रहा है, तो उसका आधार मजबूत होना चाहिए। उसमें समाज और देश की भलाई का विचार होना चाहिए।

राइट टु प्राइवेसी का फैसला क्या है, जिसके आधार पर शराब पीने के अधिकार का दावा हो रहा है?

  • 24 अगस्त 2017 को सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की संविधान बेंच ने अपने फैसले में राइट टु प्राइवेसी को बुनियादी अधिकार करार दिया था। साथ ही इसे संविधान के आर्टिकल 21 के तहत जायज ठहराया था।
  • मजे की बात यह है कि उस समय अटॉर्नी जनरल ने यह दलील भी दी थी कि शराब पीने और बेचने को राइट टु प्राइवेसी कहकर बुनियादी अधिकार नहीं बना सकते। राइट टु प्राइवेसी संपूर्ण नहीं हो सकता।
  • इस तरह की आशंकाओं को दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर सरकार किसी अधिकार से वंचित रखती है तो उसके पीछे उसका इरादा नेक होना चाहिए। अगर वह संवैधानिक आधार पर कोई व्यापक फैसला लेती है तो उसे मान्यता देने में कोई हर्ज नहीं।
  • सरकारें भी शराबबंदी के लिए यही दलील दे रही हैं कि ऐसा करने से समाज की व्यापक भलाई ही होगी, पर हैरान करने वाली बात यह है कि गुजरात में शराबबंदी के खिलाफ याचिका लगाने वालों में डॉक्टर भी शामिल हैं, जो राज्य में शराब के परमिट जारी करने में होने वाली असमानता पर सवाल उठा रहे हैं।

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