जितनी तेजी से GDP पटरी पर लौट रही, उतनी तेजी से क्यों नहीं बढ़ रहीं नौकरियां? बेरोजगारी खत्म करने में क्यों नाकाम रही सरकार?

पिछले दिनों ट्विटर पर #मोदी_रोजगार_दो टॉप ट्रेंड बना रहा। इस ट्रेंड पर 25 लाख से ज्यादा ट्वीट हुए। हालांकि इस हैशटैग के ट्रेंड करने की मुख्य वजह SSC के रिजल्ट से स्टूडेंट्स का नाखुश होना था, लेकिन हाल ही में देश के कई राज्यों में SSC से अलग नौकरियों में भर्ती को लेकर भी प्रदर्शन हुए हैं। ये घटनाएं भारत की लगातार बढ़ती बेरोजगारी की समस्या की ओर इशारा करती हैं।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के मुताबिक 2019-20 में भारत में करीब 40.35 करोड़ लोगों के पास रोजगार था और देश में करीब 3.5 करोड़ लोग बेरोजगार थे। बता दें कि भारत में हर साल ऐसे 1 करोड़ लोग बढ़ जाते हैं, जिन्हें नौकरी की तलाश होती है। सत्ता में आने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने को हर साल 1 करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यही वजह है कि साल 2016-17 से ही देश में रोजगार में लगे लोगों का आंकड़ा बढ़ा नहीं, बल्कि धीरे-धीरे कम होता गया। इन आंकड़ों को भारतीय अर्थव्यवस्था से जोड़कर देखें तो यह समझ आता है कि भले ही अर्थव्यवस्था धीमी गति से बढ़ रही हो, लेकिन रोजगार धीमी गति से कम हो रहे हैं।

बेरोजगारी के ये आंकड़े CMIE ने जुटाए हैं। जिसके मुताबिक भारत में रोजगार में लगे लोगों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है। 2016-17 में भारत में 40.73 करोड़ लोगों के पास रोजगार था। 2017-18 में यह आंकड़ा 40.59 करोड़ हो गया और 2018-19 में यह आंकड़ा 40.09 करोड़ हो गया।

कोरोना के चलते हालत और खराब हुई
यह आंकड़ा कोविड-19 के चलते अर्थव्यवस्था के लिए और खतरनाक हो गया है क्योंकि भारत में पिछले एक साल में करोड़ों लोगों की नौकरी गई है। यही वजह है कि 2019-20 के अंत तक देश में 3.5 करोड़ लोग खुले तौर पर बेरोजगार थे। पिछले महीनों में नौकरियां जाने से यह आंकड़ा 4 करोड़ से 4.5 करोड़ के बीच पहुंच गया था। बता दें कि इनमें से कई लोगों पर उनके परिवार निर्भर हैं, जिससे यह समस्या और गंभीर हो जाती है।

इसके अलावा 4.5 करोड़ का आंकड़ा सिर्फ खुले तौर पर बेरोजगार लोगों का है। खुली बेरोजगारी यानी ऐसी बेरोजगारी जिसमें लोग काम करना चाहते हैं और उनके पास स्किल्स भी होती हैं, फिर भी उन्हें काम नहीं मिल रहा होता। इसके अलावा दूसरी तरह की बेरोजगारी भी भारत में हैं। ऐसे में बेरोजगारी की समस्या उससे कहीं बड़ी है, जितनी यह दिख रही है।

इंडियन एक्सप्रेस में अर्थव्यवस्था पर लिखने वाले जर्नलिस्ट उदित मिसरा कहते हैं, ‘2017-18 में जब बेरोजगारी दर 6.1% हुई, तब इसे 45 सालों में सबसे ज्यादा बताया गया था। हमारे पास जो CMIE के आंकड़ें हैं, उसके मुताबिक फिलहाल बेरोजगारी दर 7% के आसपास है।’

 

GDP के पटरी पर लौटने से नौकरियों का बढ़ना जरूरी नहीं
आम तौर पर माना जाता है कि GDP ग्रोथ रेट पटरी पर लौटने से बेरोजगारी से जुड़ी चिंताओं का खुद-ब-खुद इलाज हो जाएगा, लेकिन भारत के मामले में ऐसा नहीं हो रहा। उदित कहते हैं, ‘यह एक विडंबना है कि मोदी सरकार ने रोजगारों को जितना संगठित करने की कोशिश की, शायद किसी सरकार ने नहीं की थी। इस कदम की तारीफ होनी चाहिए, लेकिन इससे रोजगार के मामले में आखिर में नुकसान ही हुआ क्योंकि बिजनेस, लेबर इंटेंसिव (ऐसे बिजनेस में बहुत ज्यादा लोग काम करते हैं) से कैपिटल इंटेंसिव (ऐसे बिजनेस में लोग कम और मशीनरी ज्यादा होती है) होने की तरफ बढ़ गए। इस प्रक्रिया में ज्यादा लोगों को काम पर रखने के बजाय मशीनों के जरिए काम कराने पर ज्यादा जोर दिया गया, जिससे रोजगार प्रभावित हुए।’

भारत के पास बड़ी युवा आबादी, लेकिन वर्कफोर्स बनने वाले कम
उदित कहते हैं, ‘भारत में बेरोजगारी से जुड़ी दूसरे तरह की समस्याएं भी हैं। अक्सर कहा जाता है, भारत के सबसे ज्यादा युवा आबादी वाला देश है। ऐसा कहकर हम देश में भारी संख्या में मानव पूंजी (ह्यूमन रिसोर्स) होने का दावा करते हैं। लेकिन भारत में 15-59 की उम्र में हर साल प्रवेश करने वाले 2 करोड़ लोगों में से सिर्फ 40% ही रोजगार खोजते हैं। रोजगार खोजने वालों की दर को लेबर फोर्स पार्टिशिपेशन रेट (LFPR) कहते हैं। भारत में जो LFPR सिर्फ 40% है, वह विकसित देशों में करीब 60% है। भारत में इसके कम होने की वजह बड़ी संख्या में महिलाओं का रोजगार न करना और कई मामलों में पुरुषों का रोजगार न मिलने से हताश होकर नौकरी खोजना छोड़ देना है।’

शहरी गारंटी योजना नहीं बल्कि एजुकेशन और स्किल हैं इलाज
क्या सरकार को रोजगार की समस्या का हल करने के लिए अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज की मनरेगा की तर्ज पर सुझाई गई ‘शहरी रोजगार गारंटी’ जैसी कोई योजना शुरू करनी चाहिए? इस सवाल पर उदित कहते हैं, ‘मनरेगा सिर्फ रोजगार नहीं देता, यह बेरोजगारी का सूचक भी है। यह देश में अकुशल वर्कफोर्स की बेरोजगारी भी दिखाता है। सरकारों को यह सोचना होगा कि मनरेगा जैसी सब्सिडी वाली योजनाओं से हटकर मूलभूत सुधारों पर कैसे ध्यान दिया जाए। ऐसा शिक्षा और स्किल पर खर्च बढ़ाकर किया जा सकता है। ऐसा करने से लोग नौकरियों में सीधे स्किल्ड वर्कफोर्स की तरह जुड़ सकेंगे। मनरेगा पर भारी खर्च होता है। अगर इतना भारी निवेश सब्सिडी के बजाए स्किल सिखाने वाली शिक्षा पर किया जाए तो रोजगार की समस्या को ज्यादा आसानी से और हमेशा के लिए हल किया जा सकता है।’

लेकिन शिक्षा का बजट गिरा और स्किल इंडिया से नहीं मिले ज्यादा रोजगार
नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन (NSDC) के साल 2020 में किए एक विश्लेषण के मुताबिक 2023 तक 6 करोड़ लोग भारत के लेबर फोर्स में शामिल होने वाले हैं। इसके अलावा जिन्हें पहले से स्किल्ड किया जा चुका है, उन्हें री-स्किल किए जाने की जरूरत होगी। ऐसे लोगों के लिए फिलहाल कोई विशेष योजना नहीं है। साथ ही शिक्षा पर होने वाले खर्च में भी साल 2014 के बाद से गिरावट ही दर्ज की गई है।

फिलहाल सरकार स्किल इंडिया प्रोग्राम वेबसाइट पर ट्रेनिंग पाने वाले लोगों में 54% के प्लेसमेंट का दावा पर करती है, लेकिन कौशल विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध अंतिम रिपोर्ट (जो साल 2019-20 की है) के मुताबिक 31 दिसंबर, 2019 तक PMKVY के तहत सर्टिफिकेट पाने वालों की संख्या 3,81,131 बताई गई थी, जिसमें से 1,09,729 लोगों का प्लेसमेंट हुआ था यानी करीब 29% का। जबकि PMKVY के तहत ट्रेनिंग पाने वाले कुल लोगों की संख्या करीब पांच गुना ज्यादा (5,21,614) थी।

रोजगार के डेटा की पारदर्शिता भी बड़ी समस्या
अर्थव्यवस्था पर लिखने वाले जर्नलिस्ट शिशिर सिन्हा कहते हैं, ‘इस पूरे मामले में हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या डेटा की है। सरकार की ओर से रोजगार का आखिरी प्रमुख डेटा पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे, 2018-19 का दिया जाता है।’

शिशिर कहते हैं, ‘अगर हमारे पास स्पष्ट आंकड़े होते तो न सिर्फ इससे पारदर्शिता आती बल्कि सरकार या नीति-निर्माताओं के लिए रोजगार और अर्थव्यवस्था से जुड़ी योजनाएं बनाने में भी मदद मिलती।’ वो इस मामले में अमेरिका का उदाहरण देते हैं, ‘अमेरिका में अलग-अलग सेक्टर में रोजगार के बिल्कुल लेटेस्ट आंकड़े सरकार के पास होते हैं। इसी के आधार पर सरकार फैसला लेती है कि किस सेक्टर में बाहरी लोगों को नौकरी देनी है और किस सेक्टर में नौकरी देने से अभी लोगों को रोकना है। भारत भी ऐसे कई बेहतर फैसले ले सकता था। लेकिन भारत में बेरोजगारी की तस्वीर साफ न होने से यह समस्या और गंभीर होती जा रही है।’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *