ये मैं हूं:‘गायनाकोलॉजिस्ट को एक साथ बचानी होती हैं दो जान, चाय-कॉफी पर कटती हैं रातें तब कर पाते हैं ऑपरेशन थियेटर में काम’

एक गायनाकोलॉजिस्ट को एक साथ दो जान को बचाना होता है। जरा सी चूक मरीज की जान के लिए खतरा बन जाती है। डॉक्टरी का प्रोफेशन सावधानी हटी दुर्घटना घटी की तर्ज पर चलता है। यहां नहाते, खाते, फंक्शन में जाते… किसी भी वक्त इमरजेंसी कॉल आ सकती है। तब सबकुछ छोड़कर अस्पताल की ओर दौड़ना पड़ता है। कोई महिला जब लेबर पेन से गुजर रही होती है या ऐसा क्रिटिकल केस आता है, जब शिशु और मां दोनों को खतरा है तब उनकी जान बचाकर जो खुशी मिलती है वो दुनिया के किसी ग्रंथ को पढ़कर नहीं मिल सकती। ये बातें हैं हर सर्जरी को प्लेजर समझने वाली डॉ. शैली बतरा की।

डॉ. शैली बतरा बताती हैं कि देर रात होने वाले ऑपरेशन से पहले नींद न आए इसलिए रात में चाय-कॉफी लेकर समय बिताते हैं।
डॉ. शैली बतरा बताती हैं कि देर रात होने वाले ऑपरेशन से पहले नींद न आए इसलिए रात में चाय-कॉफी लेकर समय बिताते हैं।

नवाबों के शहर लखनऊ में पली-बढ़ीं और बतरा अस्पताल में गाइनाकोलॉजिस्ट डिपार्टमेंट की प्रमुख डॉ. शैली बतरा भास्कर वुमन से बातचीत में कहती हैं कि मेरे पापा आईआईटी रूड़की से पढ़े लिखे और सरकारी अफसर। मां ने उस जमाने में एमए इकनॉमिक्स किया। पर मुझे बचपन से डॉक्टर बनने का शौक था। अस्पताल की बिल्डिंग्स मुझे किसी नवाब के महल से कम नहीं लगतीं। घर के चिमटा, फूंकनी अस्पताल के औजार बन जाते। जब गुड़िया के साथ खेलती भी तो उसे प्रेग्नेंट होने का रोल देती और फिर मैं डिलिवरी करती। मुझे ये प्रोफेशन बहुत फैसिनेटिंग लगा। मुझे लगता था कि जो बीमार होकर जाता है वो ठीक होकर आता है। इससे बढ़िया बात और क्या हो सकती है? 1982 में लखनऊ से एमबीबीएस और 1986 में एमडी पास करने के बाद सफदरजंग में प्रैक्टिस शुरू की। फिर ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (एम्स) में काम किया।
‘डॉक्टरी और घर दोनों संभालना मुश्किल रहा’
लखनऊ से दिल्ली आना मुश्किल रहा। यहां गृहस्थी नए तरीके से बसानी पड़ी। छोटी बेटी, दोनों पति-पत्नी कमाते, लेकिन एक की सैलरी सिर्फ किराए में निकल जाती। फाइनेंशियल क्राइसिस की वजह से कई बार पति-पत्नी के बीच नोंकझोंक भी हुई। फिर घर, नौकरी, बच्चा सब संभालना पड़ता। इससे मैं झुंझला जाती। पति से लड़ भी नहीं सकती थी क्योंकि वे मुझसे ज्यादा काम की वजह से बिजी रहते। किसी को ब्लेम नहीं कर सकती थी। एम्स की नौकरी छोड़ने के बाद कुछ समय का ब्रेक लिया। तब तक दूसरी बेटी भी हो चुकी थी। फिर उसे टाइम दिया और कुछ समय बाद 1993 में अपना क्लीनिक दिल्ली में ही शुरू किया।
‘घर और काम दोनों को अलग रखते हैं’
ये बहुत स्वभाविक है कि जब आपके घर में क्लेश चल रहे हों तो वे दफ्तर में भी पहुंच जाते हैं, लेकिन हम डॉक्टर्स को अपनी ट्रेनिंग ऐसी करनी पड़ती है कि जब आप अस्पताल पहुंचते हैं तो घर की सारी दिक्कतें घर में ही छोड़नी पड़ती हैं। जब पेशेंट सामने है तो सिर्फ उस पर ध्यान होता है। जब एमबीबीएस कर रही थी तब डेढ़ दिन ड्यूटी होती और आधा दिन ऑफ। इतने मरीज आते कि ऊब जाती। अगर डॉक्टर ऑपरेशन करने वाला है तो उसे रातें चाय पीकर निकालनी पड़तीं। खाना इसलिए नहीं खाते कि सुस्त महसूस न करें। पढ़ाई के दौरान जब कैजुअलटी में ड्यूटी लगी तो पहला केस एक बच्चे का आया जिसका पैर कटा फटा था। उसके स्टिचिस लग रहे थे और मैं बेहोश हो गई। उसके बाद मेरे सीनियर्स से इतनी डांट पड़ी कि उसके बाद मैंने खुद को पक्का बना लिया।

‘मुर्दाघर से शुरू कराते हैं प्रैक्टिस’
जब हम मेडिकल कॉलेज में जाते हैं तो पहले दिन ही मुर्दाघर में ले जाते हैं। वहां बड़ा सा हॉल है। सफेद संगमरमर की टेबल होती है, जिस पर डेडबॉडीज होती हैं। एक हफ्ता तक उन डेडबॉडीज को देखना होता है। अगले वीक चाकू उठाते हैं, कट करते हैं और प्रैक्टिस करना सीखते हैं। हमारी मजाल नहीं थी कि हम ये सारा काम करने से मना कर दें। उस वक्त तो डेडबॉडीज से ज्यादा सीनियर्स डरावने लगते (हा हा हा)।
‘हर डिलीवरी चैलेंजिंग होती है’
हर डिलीवरी केस चैलेंजिंग होता है। कभी भी बच्चे की धड़कन कम हो जाती है। मां को कभी भी ब्लीडिंग होने लगती है। कई बार डिलीवरी के दौरान प्लैसेंटा नीचे हो जाए, ब्लड प्रेशर बढ़ जाए, पेल्विक बोन छोटी हो और बच्चा बड़ा हो तो ऐसे में बच्चा लेबर पेन के दौरान फंस जाता है। अगर डिलीवरी में देरी हुई तो बच्चा ऐसा फंसता है कि सिजेरियन करना भी मुश्किल होता है।
‘डाइट पर भी रखते हैं ध्यान’
ऑपरेशन के दौरान सही फैसला लेना बहुत जरूरी है। ध्यान रखना पड़ता है कि मां भी ठीक रहे और बच्चा भी रोता हुआ निकले। कई बार पेशेंट शॉक में आती है। जिस वजह से लिवर, किडनी पर बुरा असर पड़ता है। मल्टी ऑर्गन फेलियर हो जाता है। ऐसे मरीज का बचना मुश्किल हो जाता है। हम डॉक्टर्स को फिजिकली और मेंटली अलर्ट रहना पड़ता है। इस अलर्टनेस के लिए डाइट भी हल्की रखनी पड़ती है ताकि काम के दौरान नींद न आए।

परिवार के सपोर्ट से ही आप सब कुछ कर सकती हैं
परिवार के सपोर्ट से ही आप सब कुछ कर सकती हैं

‘फेलियर को भी स्वीकारते हैं, खुदा नहीं बन सकते’
बहुत मेहनत के बाद भी अगर कोई पेशेंट नहीं बच पाए तो उसे हमें स्वीकार करना पड़ता है। ऐसे में दिमागी तौर पर भी खुद को बहुत मजबूत बनाना पड़ता है। हम खुदा नहीं बन सकते। इंसान ही हैं। 2005 में टीबी ट्रीटमेंट का एनजीओ ‘ऑपरेशन आशा’ शुरू किया। यहां भी बहुत दिल से काम किया। अभी पिछले साल ही मैंने वहां से काम छोड़ा है। इन दिनों ‘एवरी इनफैंट मैटर्स’ की सीईओ और बतरा अस्पताल में काम कर रही हूं। डॉक्टरी के साथ-साथ दो किताबें भी लिख चुकी हूं। द इंटीमेट सेल्फ अ बुक ऑफ वुमेन्स हेल्थ और 20 मिनट्स टू टोटल फिटनेस लिख चुकी हूं। काम के दौरान झुग्गी-झोपड़ी की महिलाओं की फ्री डिलीवरी की।
महिलाओं के लिए डॉक्टर का मंत्र
मेरे लिए रिजल्ट ही मोटिवेशन होते हैं। आज 61 की उम्र हो गई है और अपनी फिटनेस का पूरा ध्यान रखती हूं। महिलाओं को यही कहना चाहूंगी कि आपको अपनी डाइट का ध्यान खुद रखना पड़ेगा। सब अपनी लाइफ में मशगूल हैं। पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ को बैलेंस करके रखें। घर वालों को बताएं कि आप बाहर कितनी मेहनत करके आ रही हैं। जो भी करें पूरे दिल से करें। मायूस होने पर उस परेशानी को सॉल्व करें और अगर डिप्रेशन है तो ट्रीटमेंट के लिए जाएं। साइलेंस में सफर न करें।

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