इटावा…सरकारी नीतियों से राइस मिलों पर लग गया ताला … चावल के लिए मशहूर थी भरथना मंडी, 15 साल पहले चलती थीं 43 मिलें; अब 6 से भी कम रह गईं
सूबे में कई दलों की सरकारें बनीं और गिरीं, लेकिन बेरोजगारी और रोजगार के लिए लोग अपना घर छोड़कर जाते रहे। इटावा के भरथना में दर्जनों राइस मिलें एक जमाने में हुआ करती थीं, लेकिन अब गिनी-चुनी दो-चार मिलें अपने वजूद को बनाए रखने की जद्दोजहद में संचालित हैं। प्रदेश में तख्त बदले, ताज भी बदले, लेकिन नहीं बदला तो राइस मिलों को बंद होने का सिलसिला। दर्जनों मिलों में सरकार की नीतियों की वजह से ताले पड़ने लगे और लोग अन्य राज्यों में मजदूरी के लिए भटकने लगे।
सरकारी चावल खरीद नीति ने राइस मिलों को गर्त में ढकेला
जिले का भरथना क्षेत्र एक जमाने में चावल के लिए दूसरी बड़ी मंडी के रूप में जाना जाता था। सरकार की चावल खरीद नीति के चलते भरथना की राइस मिलें बंद हो गईं। नगर में संचालित 43 राइस मिलों में से अब केवल आधा दर्जन से अधिक राइस मिलें हीं अपना काम कर रही हैं। बंद राइस मिलों के परिसर में विद्यालय, गेस्ट हाउस और आवासीय प्लॉटिंग की जा चुकी है।
चुनाव में महंगाई, व्यापार पर ताला बंदी, नहीं बनता कभी मुद्दा
भरथना निवासी राजेंद्र का कहना है कि सरकारें आती-जाती रहीं, लेकिन मूल समस्याओं का कभी निराकरण नहीं हो सका। चुनावों में कभी व्यापार और सरकार द्वारा लागू कृषकों और उनसे संबंधित व्यापारियों के मुद्दे नहीं बने। पूर्व में भरथना के रेलवे स्टेशन पर चावल और दाल की रैक लगा करती थी। इस क्षेत्र के करीब 10 किलोमीटर में 3 दर्जन से अधिक राइस मिल और 15 दाल मिल स्थापित थी। जिससे कि जनपद के आस-पास के आधा दर्जन से अधिक जनपदों के कृषक और व्यापारियों का यहां आना-जाना लगा रहता था।
यही वजह थी जो इस क्षेत्र के निवासी मजदूरी करने के लिए दिल्ली, मुंबई, गुजरात या अन्य राज्यों में काम के लिए नहीं जाते थे। धान और चावल की धुलाई करने वाली बैल गाड़ियों, भैंसा गाड़ियों और उनकी लदाई करने वाले पल्लेदार और धान की सुखाई करने वाले इन राइस मिलों में काम करने वाले मिस्त्री, मजदूर और कारीगर अपनी दिन भर की आमदनी से खुश रहते थे, लेकिन सरकारों के द्वारा चावल की लेवी लेना बंद करने के कारण भरथना कस्बे के आसपास खेतों में खड़ी मिलों के खंडहर बचे हैं। इन राइस मिलों के स्थान पर उनके संचालकों ने विद्यालय और शादी समारोह स्थल, प्लॉटिंग और अब खेती की जा रही है।
सिंधी समुदाय ने शुरू की थी इस क्षेत्र में राइस मिलें
सिंध प्रांत से आए सिंधी समाज के लोगों ने सबसे पहले भरथना में काठ मिल नाम से राइस मिल खोली। जो बाद में 16 नंबर के नाम से जानी गई। 1955 में भरथना में 4 राइस मिलों की स्थापना हुई। जो बढ़कर 1983 में 14 हो गई और 1992 से 1995 तक उनकी संख्या 43 हो गई, लेकिन सन 2007 से राइस मिलों के बुरे दिन शुरू हो गए। अब कहीं विद्यालय, कहीं मैरिज होम खुल गए हैं। शेष राइस मिलें खंडहर के रूप में परिवर्तित हो गई हैं।
चावल मिलों के बंद होने के मुख्य कारण बताए जाते हैं कि, वर्ष 2009 में सरकार ने सेला चावल की खरीद लेवी की स्कीम बंद कर दी। उसके स्थान पर अरबा चावल की खरीद प्रारंभ कर दी। भरथना में सभी सेला चावल के प्लांट थे, जो बंद होना शुरू हो गए।
आपसी तालमेल बना बड़ा कारण
यूपी राइस मिलर एसोसिएसन के पदाधिकारी प्रमोद यादव ने बताया कि केंद्र व प्रदेश सरकार एवं भारतीय खाद्य निगम के अधिकारियों का आपस में तालमेल न होने के कारण समस्याएं बढ़ गईं। खाद्य निगम की ओर से निर्धारित मानक के अनुसार यहां का चावल नहीं हो पाता था, जिससे वे चावल लौटा देते थे। अधिकारियों द्वारा मिलर्स को प्रताड़ित किया जाने लगा। घाटे और प्रताड़ना के कारण धीरे-धीरे राइस मिलें बंद हो गईं। जो चावल भेजा जाता है, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण मिर्लस चावल भारतीय खाद्य निगम को भेजने में असहज महसूस करने लगे।
सरकार की गलत नीतियों के कारण बंद हुईं मिलें
राइस मिलर्स एसोसिएसन के अध्यक्ष अजय कुमार यादव के मुताबिक, सरकार की गलत नीतियों के कारण भरथना की राइस मिलें बंद हो गई हैं। सरकार ने लेवी चावल खरीदना बंद किया और एक्सपोर्टर मिल मालिकों का शोषण करने लगे। बिजली बिलों के बनाने में भ्रष्टाचार पनप गया। जिससे राइस मिलें बंद होने की कगार चल पड़ी थीं। अधिकांश राइस मिलें बंद हो गई हैं।
राइस मिलर्स गिरधारीलाल बरयानी बताते हैं कि सरकार ने मिलर्स का सहयोग नहीं किया। सरकार की नीतियों के चलते मिलें बंद हो गईं। लेवी के दौरान सरकार धान के बदले में 67 प्रतिशत चावल लेती थी, लेकिन धान के बदले मिलर्स को केवल 58 से 60 प्रतिशत ही चावल निकलता था। उन्होंने बताया कि जो 30 साल से मिलिंग चार्ज 10 रुपए क्विंटल चल रहा है, जबकि यहां से मात्र 50 किलोमीटर दूर मध्य प्रदेश में यह 200 से 300 क्विंटल चार्ज है। यह ऐसे अन्य कारण हैं, जिससे किसान परेशान हो जाता है। नए मंडी कानून के हिसाब में हर जगह मंडी शुल्क कम है। जबकि यूपी में मंडी शुल्क 1.5 प्रतिशत है। इससे भी मिलर्स परेशान हैं।