भास्कर एक्सप्लेनर ….. हंग असेंबली में गठबंधन की सरकार बनाने में प्रोटेम स्पीकर का रोल सबसे अहम, जानिए कौन होता है ये?

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव खत्म हो गया है। अब सभी को 10 मार्च को आने वाले नतीजों का इंतजार है। नतीजों के बाद हर राज्य में सबसे पहले प्रोटेम स्पीकर चुना जाता है। क्योंकि प्रोटेम स्पीकर ही नए विधायकों को शपथ दिलवाता है।

वहीं अगर किसी राज्य में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला यानी हंग असेंबली हो गई। ऐसे में प्रोटेम स्पीकर का रोल काफी अहम होता है।

ऐसे में आइए जानते हैं कि प्रोटेम स्पीकर कौन होता है? इसका काम क्या होता है? इन्हें चुना कैसे जाता है? नंबर करीबी होने पर इनका कितना खास रोल होता है?

कौन होता है प्रोटेम स्पीकर?

प्रोटेम लैटिन शब्द प्रो टैम्पोर से आया है। इसका मतलब होता है- कुछ समय के लिए। प्रोटेम स्पीकर अस्थायी स्पीकर होता है। विधानसभा चुनाव होने के बाद सदन को चलाने के लिए प्रोटेम स्पीकर को चुना जाता है।

 

प्रोटेम स्पीकर को चुनता कौन है?

  • विधानसभा चुनाव होने के बाद विधानसभा सचिवालय की तरफ से सीनियर मोस्ट विधायकों यानी जो सबसे ज्यादा बार चुनाव जीतकर आए हों उसका नाम राज्यपाल के पास भेजते हैं।
  • ज्यादातर मामलों में परंपरा रही है कि राज्यपाल सीनियर मोस्ट विधायक को ही प्रोटेम स्पीकर नियुक्त करते हैं। हालांकि कई मामलों में राज्यपाल पर ही निर्भर होता है कि वह किसे प्रोटेम स्पीकर चुने।
  • इसका उदाहरण 2018 का कर्नाटक विधानसभा चुनाव है। यहां चुनाव होने के बाद कर्नाटक के राज्यपाल वजूभाई ने बीजेपी नेता केजी बोपैय्या को प्रोटेम स्पीकर बनाया। जबकि कांग्रेस नेता आर वी देशपांड़े सबसे सीनियर मोस्ट विधायक थे।

प्रोटेम स्पीकर का काम क्या होता है?

  • प्रोटेम स्पीकर का मुख्य काम नव निर्वाचित विधायकों का शपथ ग्रहण कराना है। यह पूरा कार्यक्रम प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में होता है।
  • प्रोटेम स्पीकर का काम फ्लोर टेस्ट भी करवाना होता है। हालांकि संविधान में प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति, काम और पावर के बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा गया है।

प्रोटेम स्पीकर इतने अहम क्यों हो गए हैं?

  • जब किसी चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता यानी हंग असेंबली होती है। उस स्थिति में प्रोटेम स्पीकर की भूमिका काफी अहम हो जाती है।
  • आर्टिकल 100 (1) में कहा गया है कि किसी भी सदन की बैठक में सभी प्रश्नों का हल वहां उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के बहुमत से किया जाएगा। इसमें स्पीकर या कार्यवाहक स्पीकर शामिल नहीं होते हैं।
  • हालांकि जब बहुमत सिद्ध करने के दौरान मामला बराबरी पर पहुंच जाता है। उस स्थिति में प्रोटेम स्पीकर का वोट निर्णायक होता है।
  • इसी स्थिति के चलते ही कई बार प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति को लेकर विवाद हो चुका है। क्योंकि ऐसे मौकों पर उनकी भूमिका काफी अहम हो जाती है।
  • प्रोटेम स्पीकर की सबसे बड़ी ताकत होती है कि वो वोट को क्लालिफाई या डिसक्वालिफाई घोषित कर सकता है।

किन राज्यों में चुनाव के बाद प्रोटेम स्पीकर विवादों में रहे हैं?

बीते कुछ सालों में स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण राज्यों में प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति को लेकर विवाद हो चुका है। सबसे नजदीकी मामला कर्नाटक, गोवा और मणिपुर का है।

कर्नाटक में केजी बोपैय्या पर विरोध का कारण जानिए

  • साल 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान बीजेपी सिंगल लार्जेस्ट पार्टी बनी थी। वह बहुमत के आंकड़े से बस कुछ अंक दूर रह गई थी।
  • वहीं दूसरे नंबर पर कांग्रेस और तीसरे नंबर पर जेडीएस थी। नतीजा आने पर किसी भी पार्टी के पास बहुमत नहीं था।
  • हालांकि कांग्रेस ने जेडीएस को बिना शर्त समर्थन देकर सरकार की तस्वीर साफ कर दी थी। लेकिन उस समय के गवर्नर वजूभाई वाला ने सबसे पहले सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के नेता बीएस येदियुरप्पा को बुलाया।
  • साथ ही गवर्नर ने प्रोटेम स्पीकर के लिए केजी बोपैय्या को चुना। 62 वर्षीय बोपैय्या तीन बार बीजेपी विधायक रह चुके थे। उनका नाम आने पर विरोध होने लगा।
  • इसका कारण मोस्ट सीनियर विधायक वाला पैमाना था। कांग्रेस के आरवी देशपांडे 8 बार चुनाव चुनाव जीत चुके थे। इसलिए परंपरा के आधार पर उन्हें प्रोटेम स्पीकर बनाया जाना चाहिए था लेकिन बोपैय्या बनाए गए।
  • इस पर कांग्रेस की तरफ से तीखा विरोध दर्ज कराया गया था। इस नियुक्ति के बाद काफी विवाद हुआ था। क्योंकि इससे पहले भी 2010 में स्पीकर रहते हुए बोपैय्या ने येदियुरप्पा सरकार से बगावत करने वाले 11 विधायकों को आयोग्य करार दे दिया था।
  • हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने विधायकों को अयोग्य करार देने के बोपैय्या के तरीके को लेकर फटकार लगाई थी।
  • संयोग से बोपैया 2008 में भी प्रोटेम स्पीकर बने थे। उस वक्त येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली बीजेपी बहुमत के आंकड़े 113 से 3 कम रह गई थी। उस वक्त येदियुरप्पा ने 5 निर्दलीय विधायकों की मदद से बहुमत हासिल किया था।

कर्नाटक से पहले भी कई बार सबसे सीनियर मोस्ट विधायक प्रोटेम स्पीकर नहीं बनाए गए

  • कर्नाटक की तरह ही 2017 में गोवा में प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति को लेकर विवाद हुआ था। तब बहुमत परीक्षण के लिए दो बार के बीजेपी विधायक सिद्धार्थ कुंकोलिएंकर को प्रोटेम स्पीकर बनाया गया था।
  • उस दौरान भी कांग्रेस ने परंपरा का निर्वहन न किए जाने को लेकर विरोध दर्ज कराया था।
  • ऐसे ही मणिपुर और मेघालय में भी विवाद हुआ था। मणिपुर में कम अुनभवी बीजेपी विधायक वी हांगखालियान को प्रोटेम स्पीकर बनाया गया।
  • इसी तरह मेघालय में नेशनल पीपुल्स पार्टी के वरिष्ठ नेता टिमोथी डी शिरा के नाम पर भी विवाद हुआ था। मेघायल में बहुमत परीक्षण डी शिरा ने ही करवाया था।
  • 2017 में पंजाब में 59 वर्षीय राणा केपी प्रोटेम स्पीकर बने। हालांकि वह सबसे वरिष्ठ विधायक नहीं थे। लेकिन कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत मिला था, इसलिए कोई विरोध नहीं हुआ।
  • उत्तर प्रदेश में 49 वर्षीय फतेह बहादुर सिंह को प्रोटेम स्पीकर बनाया गया था। हालांकि वे सबसे सीनियर मोस्ट विधायक नहीं थे। लेकिन यहां कोई विरोध नहीं हुआ क्योंकि यहां भाजपा ने चुनावों में बड़ी जीत हासिल की थी।

कई बार सीनियर मोस्ट विधायक ही प्रोटेम स्पीकर बने

  • इन सब विवादों के बावजूद कई बार सीनियर मोस्ट विधायकों को भी प्रोटेम स्पीकर बनाया गया है। उत्तराखंड में भाजपा ने आठ बार के विधायक हरबंस कपूर को प्रोटेम स्पीकर बनाया था।
  • हिमाचल प्रदेश में भी भाजपा ने वरिष्ठ नेता और पूर्व मंत्री रोमेश धवाला को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया था। वह ज्वालामुखी से चार बार विधायक रहे थे।
  • इसी तरह त्रिपुरा में बीजेपी विधायक रतन चक्रवर्ती ने प्रोटेम स्पीकर के तौर पर शपथ ली। वह पहले कांग्रेस के साथ थे।

हंग असेंबली होने पर जूनियर विधायक क्यों प्रोटेम स्पीकर बनाए जाते हैं?

  • मणिपुर में पिछले चुनाव में भी बीजेपी ने सबसे सीनियर मोस्ट विधायक को प्रोटेम स्पीकर नहीं बनाया था। बीजेपी गठबंधन यहां 21 सीटें ही जीत पाई थी। जबकि कांग्रेस 27 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन बहुमत से दूर थी।
  • गोवा में ऐसा ही हुआ। कांग्रेस ने यहां सबसे ज्यादा सीटें जीती लेकिन बहुमत नहीं होने से सरकार नहीं बना पाई। जबकि बीजेपी ने सरकार बना ली। सिद्धार्थ कुंकालिंकर प्रोटेम स्पीकर बने थे। वह बीजेपी के सबसे विश्वासपात्र कार्यकर्ताओं में से एक थे।
  • 2014 में मनोहर पर्रिकर के केंद्रीय मंत्री बनने के लिए कुंकालिंकर उनकी सीट से उप चुनाव जीतकर विधायक बने थे। वहीं 2017 में जब बीजेपी की सरकार बनने के बाद पर्रिकर गोवा लौटे थे तो कुंकालिंकर ने उनके लिए अपनी सीट छोड़ दी थी।
  • वहीं गुजरात चुनावों में हंग असेंबली नहीं थी। इसलिए यहां प्रोटेम स्पीकर के रूप में भाजपा की निमाबेन आचार्य की नियुक्ति पर किसी का ध्यान नहीं गया। क्योंकि वह इससे पहले एक बार ही विधायक बनी थीं और सबसे सीनियर मोस्ट विधायक नहीं थीं। लेकिन पार्टी की विश्वासपात्र थी।

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