वर्ल्ड हेरिटेज डे पर इंदौर की कहानी … इंद्रपुरी से इंदूर हुआ, 1818 में मिला इंदौर नाम; ये 11 तस्वीरें दिखाती हैं इसका ऐतिहासिक वैभव
मध्यप्रदेश की बिजनेस सिटी, जिसे दुनिया इंदौर के नाम से जानती है, इसका पहला नाम इंद्रपुरी था। होलकर रिकॉर्ड्स के मुताबिक शहर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक इंद्रेश्वर महादेव मंदिर के नाम से इस शहर को नाम मिला है। इस मंदिर का निर्माण सातवीं शताब्दी में हुआ था। इस मंदिर पर संत इंद्रगीर बाबा सेवा में थे। तब इस बस्ती को इंद्रपुरी कहा जाता था। फिर यह इंदूर हुआ और 1818 में जब ईस्ट इंडिया कंपनी यहां आई तो इसे इंदौर कहा जाने लगा।
होलकर रियासत के संस्थापक मल्हार राव होलकर ने अपने अंतिम दिनों में राजबाड़ा बनवाने की शुरुआत की। हालांकि, इसे बनवाने का श्रेय मल्हार राव होलकर द्वितीय को जाता है। इस इमारत में तीन बार 1801, 1908 और 1984 में आग लगी। महाराजा यशवंत राव होलकर ने उज्जैन पर आक्रमण किया था। जवाबी हमले में सरजे राव घाटगे ने इंदौर पर आक्रमण किया और इंदौर को लूटा। राजबाड़ा की ऊपरी दो-तीन मंजिलों में आग लगाई। होलकर रियासत के दीवान तात्या जोग ने 1811 में एकबार फिर इसका निर्माण कराया। इसके बाद 1908 में राजबाड़ा की लेफ्ट विंग में आग लगी और फिर 1984 के दंगों में राजबाड़ा को सर्वाधिक क्षति पहुंची। दो शीश महल जलकर खाक हो गए। यह देश का एकमात्र ऐसा पैलेस है, जिसका द्वार सात मंजिला है।
लॉन में बड़ी स्क्रीन लगाकर, क्लब के दोस्तों के साथ गद्दों पर बैठकर फिल्म देखने का चलन शहर में अब आया है, लेकिन इंदौर में 1917 में ही ओपन थिएटर खुल गया था। तब नंदलालपुरा में तंबू में रॉयल सिनेमा शुरू हुआ था। इंदौर ने पहली बार सिनेमा यहीं देखा। हालांकि, उस दौर में होलकरों ने शहर का सबसे सुंदर और सर्व सुविधायुक्त थिएटर बनवाया, जो 1934 में बनकर तैयार हुआ। कालांतर में इसका नाम रीगल सिनेमा रखा गया। होलकर स्टेट के लिए क्रिकेट खेल चुके कर्नल सीके नायडू ने इस टॉकीज का उद्घाटन किया था। अंग्रेज अफसर कैप्टन स्मिथ इसके पहले मैनेजर बनाए गए। बालकनी में सिर्फ सूट पहनने वाले ही बैठ सकते थे। राज परिवार के लिए विशेष बॉक्स बनाए गए थे। 1940 से 70 के बीच महिलाओं के बैठने की व्यवस्था अलग थी।
होलकर रियासत के महाराजाओं ने शहर में कई आलीशान और कलात्मक महल बनवाए। शिव विलास पैलेस को महाराजा शिवाजीराव होलकर ने बनवाया था। इसका निर्माण 1890 में शुरू हुआ था। ये 1894 से 1920 तक होलकर महाराजाओं का ऑफिशयल रेसीडेंस रहा। तब राजबाड़ा को ओल्ड पैलेस कहा जाने लगा था और शिव विलास पैलेस को न्यू पैलेस। इसका प्रवेश द्वार भव्य और दो भागों में बंटा हुआ था क्योंकि बीच में खूबसूरत वाटर कास्केड बना है। इसके ड्राइंग रूम का इंटीरियर भी उतना ही खूबसूरत था। इसमें यूरोपियन पेंटिंग्स से लेकर मूर्तिशिल्प और कलात्मक फानूस लगा हुआ था। पैलेस के अंदर विशाल तलघर था, जो जवाहिर खाना या स्ट्रांग रूम के रूप में उपयोग होता था। जवाहिर खाने में हीरे-जवाहरात व अन्य मूल्यवान सामग्री रखी जाती थी। आज यहां हॉस्पिटल और कुछ ऑफिसेस संचालित होते हैं।
होलकर रियासत का लालबाग पैलेस 72 एकड़ में फैला है। इसे बनाने की योजना तुकोजीराव द्वितीय के शासन काल में 1877 में राज्य के इंजीनियर मिस्टर केरी ने बनाई थी। इसका निर्माण युवराज शिवाजीराव होलकर के निवास के लिए किया गया था। 1884 तक महल बनकर तैयार हो गया। इसके निर्माण में रोमन शैली, पेरिस के राजमहलों वाली सजावट, बेल्जियम की कांच कला, कलात्मक झाड़ फानूस, कसारा संगमरमर का इस्तेमाल किया गया है। दरबार हॉल में छतों पर निहायत ही खूबसूरत पेंटिंग्स देखी जा सकती हैं। इसके अलावा कीमती, कलात्मक फर्नीचर और गलीचों से इसकी साज-सज्जा की गई थी। 1853 में महाराजा तुकोजीराव द्वितीय ने लालबाग की लैंडस्कैपिंग अपने निर्देशन में करवाई थी। इसकी लैंडस्कैपिंग प्रसिद्ध उद्यान शास्त्री मिस्टर हार्वे ने की थी। 1911 तक लालबाग पैलेस को यूरोपीय स्वरूप दिया गया। 1921 में महल की साज-सज्जा फिर की गई और इसके परिसर में सन् 1936 से लेकर 1938 के बीच 1600 प्रजातियों के गुलाब लगाए गए थे। इसकी एक खूबी यह है कि इसका मुख्य द्वार इंग्लैंड के बकिंघम पैलेस की तरह बनाया गया था।
तकरीबन 150 साल पुरानी रामपुर कोठी का आर्किटेक्चर ब्रिटिश और मराठा शैली के भवनों से प्रेरित है। मराठा शैली में लंबे कॉरिडोर्स बनाए जाते थे। ऐसे कॉरिडोर यहां भी बने हैं। ब्रिटिश आर्किटेक्चर में नक्काशी और जालीदार काम कम होता है और आर्च बनाए जाते हैं। इस दो मंजिला कोठी के नीचे दो तलघर भी हैं। पहले तलघर में RTO कार्यालय का रिकॉर्ड रखा हुआ था। कहा जाता है कि इसके नीचे वाले तलघर में कुछ सुरंगें थीं। इनमें से एक सुरंग इस कोठी से सीधे लालबाग पैलेस तक पहुंचाती थी। हालांकि, जानकार कहते हैं कि तलघर में कुछ रास्ते तो हैं, लेकिन सुरंग के होने के ठोस प्रमाण अब तक नहीं मिले हैं। इस तलघर को काफी समय पहले बंद कर दिया गया था।
शहर की कृष्णपुरा छत्रियों की यह हैरिटेज फोटोग्राफ आज से ठीक 100 बरस पहले यानी 1921-22 के आसपास की है। उस दौर में कृष्णपुरा छत्रियों के समीप फ्रूट मार्केट का निर्माण कराया गया था, जिसे उस समय भुजंगकेट मार्केट कहा जाता था। चारों ओर हरियाली, सुंदर परिवेश में गर्मी का एहसास नहीं होता था। कृष्णपुरा छत्री के सामने बहती कान्ह नदी में पहले नावें चला करती थीं। पानी बहुत साफ था। होलकर राजवंश, जमींदार परिवार के साथ होलकर रियासत में कई पुराने प्रभावशाली परिवारों की कुछ 35-40 छतरियां इंदौर के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित है। सबसे पुरानी छत्रियां रानीपुरा के दौलतगंज के समीप राजा राव नंदलाल मंडलोई की है।
शहर से तकरीबन 11 किलोमीटर दूर भमौरी तालाब के किनारे होलकर राजाओं ने यह महल शहर के शोरगुल से दूर एकांत में हरियाली के बीच समय बिताने के लिए बनवाया था। तालाब के पानी को छूकर आती हवाओं और आसपास पेड़ पौधे होने से यह महल काफी ठंडा रहता था। होलकर रजवाड़े गर्मियां यहीं बिताते थे। मालवा के पठार पर जब मई और जून के महीने में भीषण गर्मी पड़ती थी, तब प्राकृतिक वातावरण के बीच होने से यहां सुख की अनुभूति होती थी। इस भवन का नाम सुखनिवास महल रखा गया। तुकोजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी महाराज शिवाजीराव होलकर ने वर्ष 1883 में यह महल बनवाया था। तब इसे बनाने का खर्च 60 हजार रुपए आया था। यह इंडियन और वेस्टर्न आर्किटेक्चर का मिक्स है।
रीगल तिराहा स्थित जिस इमारत को आज हम DIG ऑफिस के नाम से जानते हैं, वह कुछ समय पहले तक SP ऑफिस हुआ करता था और उससे भी तकरीबन 112 साल पहले यह रानी सराय के नाम से फेमस थी। वर्ष 1907 में महाराजा शिवाजीराव होलकर की पत्नी वाराणसी बाई जब मृत्यु शय्या पर थीं, तब यात्रियों के ठहरने के लिए उन्होंने रीगल तिराहे पर यह सराय बनवाई थी। तब इसके निर्माण में 1 लाख 51 हजार 186 रुपए खर्च हुए थे। इंदौर आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए इस सराय के निर्माण के लिए रानी ने खुद 1 लाख 25 हजार रुपए दान किए थे। सराय के निर्माण में दान की राशि के अलावा शेष राशि का भुगतान महाराज ने किया था। रानी सराय का निर्माण मुगल शैली में किया गया था। मुगल इमारतों में संरचना और चरित्र का एक समान पैटर्न होता है, जिसमें बड़े बल्ब डोम, कोनों में पतले मीनार, बड़े हॉल, बड़े वॉल्ट वाले गेटवे और नाजुक जालियां बनाई जाती थीं।
हवा बंगला नाम से ही इसे बनाने का उद्देश्य स्पष्ट होता है। तुकोजीराव ने 1884 में इसका निर्माण करवाया था। इसकी डिजाइन उन आर्किटेक्ट्स ने तैयार की थी, जिन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जिनिया जैसी इमारतें बनाई हैं। पश्चिमी इंदौर में रंगवासा मार्ग स्थित हवा बंगले को ऊंचे टीले पर कुछ इस तरह बनाया गया है कि दिन के आठों पहर, बंगले के सभी 25 कमरों में हवा का प्रवाह बना रहे और क्रॉस वेंटिलेशन होता रहे। खिड़की दरवाजे और महराब इस महल में इस तरह बनाए गए हैं कि पूरे महल में प्राकृतिक हवा बनी रहती है और इसीलिए इसे नाम दिया गया हवा बंगला।
शहर से तकरीबन 12 किलोमीटर दूर रालामंडल पहाड़ी पर जिस लाल इमारत में आज शेर-चीतों सहित अन्य वन्यजीवों की ट्रॉफी और जीवाश्म रखे हुए हैं, वह होलकर राज में बनवाया गया शिकारगाह है। महाराज तुकोजीराव ने 1905 में इस हंटिंग हट का निर्माण करवाया था। महाराजा शिवाजीराव का यह प्रिय स्थल था और उनके शासनकाल में इसका महत्व और बढ़ गया था। जमीन से 600 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह कोठी शिकार के शौकीन रजवाड़ों के हथियार रखने और पहाड़ी पर उनके आराम के लिए बनवाई गई थी। तराशे हुए लाल पत्थरों से बनी इस कोठी से कभी वन्य प्राणियों का बेतहाशा शिकार हुआ करता था। उस दौर में 65 हजार रुपए की लागत से इस दो मंजिला कोठी को बनवाया गया था। यह शिकारगाह सेंचुरी के एंट्रेंस से ढाई किलोमीटर दूर है। 1954 में इसे रालामंडल आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर वन विभाग की सुरक्षा में सौंप दिया गया।