वोटरों को लामबंद करना तो दूर, अभी तो अंदरूनी सहमतियां ही नहीं बना पाई कांग्रेस
चलिए, मैं सीधे पॉइंट पर आता हूं। चाहे प्रशांत किशोर (पीके) साथ में हों या न हों, कांग्रेस पार्टी के लिए गुजरात में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज करना नामुमकिन है। मैं इसके पीछे तीन मुख्य कारण गिनाना चाहूंगा। पहला यह कि भाजपा विगत तीन दशकों से इस राज्य में एक वर्चस्वशाली राजनीतिक ताकत बनी हुई है और उसे आज भी गुजराती मतदाताओं का भरपूर समर्थन प्राप्त है।
दूसरा, कांग्रेस न केवल भाजपा के विकल्प के रूप में उभरने में नाकाम रही है, बल्कि कांग्रेस के राष्ट्रीय और प्रांतीय नेतृत्व में भ्रम की स्थिति इतनी व्यापक है कि इससे मतदाताओं में भरोसा नहीं जाग पा रहा है। तीसरा, आम आदमी पार्टी ने गुजरात में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया है और वह निश्चित ही कांग्रेस की सम्भावनाओं को क्षति पहुंचाएगी, क्योंकि भाजपा-विरोधी वोट कांग्रेस और ‘आप’ के बीच बंट जाएंगे।
बीते एक दशक में भाजपा ने अपने समर्थक वर्ग को अनेक राज्यों में फैला लिया है, लेकिन गुजरात के बारे में यह खासियत है कि वहां उसने 1998 के बाद से न केवल लगातार पांच विधानसभा चुनाव जीते हैं, बल्कि ये तमाम जीतें बड़े अंतर से थीं। भाजपा ने कांग्रेस को बड़े मार्जिन से हराया है। 182 सदस्यों के सदन में भाजपा ने 2017 को छोड़कर शेष सभी चुनावों में 115 से ज्यादा सीटें जीती हैं। 2017 में वह केवल 99 ही सीटें जीत सकी थी, जबकि कांग्रेस 77 सीटें जीतने में सफल रही थी।
2002 में तो उसकी सीटों की संख्या 127 तक चली गई थी, जबकि 1998 और 2007 में उसने 117 सीटें जीती थीं। इनमें से अधिकतर चुनावों में भाजपा का वोट-शेयर पचास प्रतिशत को छू गया था। 2017 में कांग्रेस को 41 प्रतिशत वोट मिले थे, लेकिन शेष चुनावों में कांग्रेस का वोट-शेयर 38 प्रतिशत के आसपास ही रहा था, जो कि भाजपा की तुलना में लगभग दस प्रतिशत कम था। 2017 में भी- जो कि बीते 25 सालों में कांग्रेस का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था- उसे भाजपा से आठ प्रतिशत कम वोट मिले थे।
इन मायनों में तो 2017 में भी भाजपा ने कंविंसिंग तरीके से ही जीत दर्ज की थी, यह केवल एक पर्सेप्शन बनाया गया था कि भाजपा हारते-हारते बची है। यहां यह देखना जरूरी है कि 1998 में अपनी पहली जीत के बाद से ही भाजपा का वोट-शेयर घटा नहीं है। लोकसभा चुनावों में भी भाजपा का दबदबा रहा है। 2014 और 2019 में गुजरात में भाजपा ने सभी 26 सीटें जीत ली थीं और 60 प्रतिशत वोट पाए थे।
दो दशकों से अधिक समय तक सत्ता में रहने के बावजूद आज भाजपा के प्रति कोई एंटी-इन्कम्बेंसी गुजरात में दिखलाई नहीं देती है। कुछ सरकार-विरोधी आंदोलन जरूर हुए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण पाटीदार आंदोलन था, लेकिन भाजपा के समर्थन में सेंध नहीं लगी। वास्तव में पाटीदार आंदोलन के बाद 2017 के चुनावों में भाजपा का वोट-शेयर उल्टे दो प्रतिशत बढ़ गया था। ऐसे में कांग्रेस के लिए भाजपा समर्थकों को अपने पक्ष में लाना दुष्कर साबित होगा।
बीते पांच सालों में भाजपा ने कुछ चुनाव जरूर हारे हैं, लेकिन जिन राज्यों में उसकी सरकार थी, उनमें से अधिकतम में वह सत्ता कायम रखने में सफल रही। अगर कभी उसका वोट-शेयर गिरा भी तो इतना नहीं कि वह चुनाव हार जाए। छत्तीसगढ़ में जरूर उसका वोट-शेयर 8 प्रतिशत घटा था, लेकिन गुजरात में कांग्रेस के लिए भाजपा के वोट में इतनी सेंध लगाना कठिन होगा और इसके बिना वह चुनाव जीत नहीं सकेगी।
गुजरात में भाजपा जैसी ताकत को हराने के लिए पहले से तैयारी, कड़ी मेहनत, वोटरों की लामबंदी आदि जरूरी है और इसके लिए नेतृत्व को कमान सम्भालना पड़ती है। लेकिन कांग्रेस के पास इनमें से कुछ भी नहीं है। जमीन पर आज भी पार्टी दिखाई नहीं देती है। उसे अपने नेताओं को पार्टी में बनाए रखने के लिए भी मेहनत करना होगी।
वोटरों को लामबंद करना तो दूर, अभी तो पार्टी अंदरूनी तौर पर इसी पर सहमति नहीं बना पाई है कि चुनावों की कमान पीके कों सौंपना है या नहीं, या उन्हें पार्टी में शामिल करना है या नहीं। पार्टी का प्रांतीय नेतृत्व शिकायत कर रहा है कि दूसरे राज्यों के कांग्रेस अध्यक्षों की तरह उन्हें ताकत नहीं दी गई है। महत्वपूर्ण पाटीदार नेता नरेश पटेल को पार्टी में सम्मिलित करने पर भी निर्णय नहीं लिया जा सका है। ऐसे में कांग्रेस के लिए भाजपा को हराना दूर का सपना ही साबित होने वाला है।
वोटों का बंटवारा
वास्तव में गुजरात में कांग्रेस के बजाय ‘आप’ भाजपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है। कांग्रेस को याद होगा कि दिल्ली-पंजाब में ‘आप’ ने उसके साथ क्या किया था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)