1947 का भारत पिछड़ा था लेकिन नैतिक आचरण, मूल्य, सादगी जैसे तत्व पथ-प्रदर्शक थे
हाल की ही एक खबर है। देश भर में चार करोड़ से अधिक फर्जी राशन कार्डधारी मिले। सूची में पहला है, उत्तर प्रदेश (यहां 1.70 करोड़ से अधिक फर्जी राशन कार्डधारी थे)। दूसरे क्रम पर है महाराष्ट्र (92 लाख)। तीसरा है पश्चिम बंगाल (41 लाख से ज्यादा)। और चौथा है मध्यप्रदेश (2014-21 के बीच लगभग 24 लाख फर्जी राशन कार्डधारी)। ये बीपीएल सूची में अस्तित्वविहीनों के नाम हैं। बीते कुछ दिनों में भ्रष्टाचार के खिलाफ हुई कार्रवाई की खबरें एक साथ देखना स्तब्ध करता है।
कहीं प्राइमरी का एक शिक्षक 20 कालेजों का मालिक बना है। कहीं दक्षिण के एक राज्य में 18 सरकारी कर्मचारियों के यहां एक दिन छापे पड़े- कुल 75 जगहों पर। संपदा देख स्तब्ध रह गए, भ्रष्टाचार-उन्मूलन ब्यूरो के अफसर। वहीं उत्तर के एक राज्य में खनन प्रभावितों के नाम पर 2673 करोड़ रुपए खर्च हो गए, पर जरूरतमंदों को पानी नहीं मिला। एक अन्य राज्य की स्पेशल विजिलेंस यूनिट ने एक इंजीनियर को पकड़ा। उसके कुल 25 बैंक खाते मिले।
एक ही शहर में 21 कमरों के दो भव्य मकान भी। एक अन्य राज्य में 20 करोड़ की फर्जी कोयला ढुलाई की जांच की जा रही है। यह कोयला बाइक, आटो व कार से ढोया गया है। राज्यों में नियमित रूप से हो रही ऐसी कार्रवाइयां अब चौंकाती तक नहीं। क्या यह समाज के नैतिक स्वास्थ्य का सूचक है? ऐसा करनेवाले निजी स्वार्थ को महत्व देते हैं, सामाजिक हित को नहीं। यह गरीब नहीं करते, उनके नाम पर सामर्थ्यवान करते हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर ने ठीक ही कहा था कि जो कौम सिद्धांतों से अधिक सुविधाओं को तरजीह देती है, वह जल्द ही दोनों खो बैठती है। क्या हर जगह कानून ही काम करेगा? क्या समाज-व्यक्ति के अपने मूल्य, विवेक या अंतरात्मा नहीं? क्या गांधी-दौर की बातें अतीत हैं? बड़े प्रसंग छोड़ दें। निजी व सार्वजनिक आचरण का रास्ता इस मुल्क के सामान्य लोगों ने दिखाया है। दशकों पुरानी बात है। इलाहाबाद हाईकोर्ट में जज थे, एस.के. धर। तीन वर्ष पहले रिटायर हुए, पेंशन नहीं मिली।
इलाहाबाद में प्रैक्टिस भी नहीं कर सकते थे। दिल्ली आए। आंख की बीमारी हुई। घर लौटे। उम्र का अंतिम दौर, बीमारी और आर्थिक कठिनाई में बीत रहा था। कलकत्ता के मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें आर्बिट्रेटर बनाया। सप्ताह में पांच दिन काम। 50,000 पारिश्रमिक। मना कर दिया। मुख्य न्यायाधीश को लगा फी कम है। पारिश्रमिक बढ़ाकर एक लाख कर दिया। श्रीधर ने उन्हें खत लिखा। बताया पैसों की सख्त जरूरत है, पर यह काम नहीं कर सकता। कारण, जिस पद पर रहा हूं, उसके प्रति सम्मान रखना मेरा नैतिक दायित्व है।
यह नैतिक ऊंचाई भारत के एक अचर्चित इंसान (वकील से जज बनने वाले) की है। राजनीति, नौकरशाही, शिक्षा, अध्यापन, वकालत, कारोबार, यानी हर क्षेत्र में श्रीधर जैसे अनगिनत ‘प्रतिमान’ देश में रहे, व हैं। इस कारण सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार जैसी चीजों की बढ़ती स्वीकार्यता, चिंता का विषय है। 1947 का भारत पिछड़ा था। आज जैसा सामर्थ्यवान नहीं। पर नैतिक आचरण, श्रेष्ठ मूल्य, सादगी जैसे तत्व राष्ट्रीय जीवन में पथ-प्रदर्शक थे। 75 वर्षों बाद क्या हम वही दावा कर सकते हैं?
कोविड के अनुभवों से गुजरते हुए, पुरखों की हजारों वर्ष पुरानी सीख भी लोकस्मृति में नहीं है : न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः (मनुष्य की तृप्ति धन से नहीं होती)। सभ्यताओं के पतन में भ्रष्टाचार की भूमिका रही है- पड़ोस के एक मुल्क की कहावत है। वह देश शांति चाहता था। सुरक्षा में संसार की सबसे बड़ी दीवार खड़ी की। आरंभिक 100 वर्षों में बाहरी हमलावरों ने उसे तीन बार तबाह किया।
दरवाजों के सुरक्षाकर्मियों को रिश्वत दे कर, हमलावर अंदर आए। जैसे पलासी की लड़ाई में लाला जगत सेठ और मीर जाफर ने अंग्रेजों के लिए भारत का दरवाजा खोला था। अपना ईमान बेच कर। लेकिन पड़ोसी मुल्क ने हजारों वर्ष पहले ही सीख लिया कि बड़ी दीवारों से देश नहीं बचते, इसलिए ‘चरित्र निर्माण अभियान’ चलाया। आजादी के दौर में, महात्मा गांधी ने भी भारत को इसी रास्ते पर डाला। 75 वर्षों बाद आज उस पथ का स्मरण-अनुगमन भी आवश्यक है।
क्या समाज-व्यक्ति के अपने मूल्य, विवेक या अंतरात्मा नहीं? क्या गांधी-दौर की बातें अतीत हैं? बड़े प्रसंग छोड़ दें। निजी व सार्वजनिक आचरण का रास्ता इस मुल्क के सामान्य लोगों ने ही दिखाया है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)