स्कूली बच्चों के लिए विशेष मानसिक स्वास्थ्य सत्र और परामर्श सत्र की भी जरूरत
फरवरी 2022 का महीना मेरे लिए हमेशा यादगार रहेगा। मैं मुंबई के पास, ठाणे के सिमला पार्क क्षेत्र में ऐसे शिक्षकों से मिला, जिनका स्कूल पुनः चालू करने के लिए उत्साह देखकर ही समझा जा सकता था। मैं महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल पालघर जिले में एक प्रधानाध्यापक से मिला, जो सरकारी स्कूल का बिजली का बिल अपनी तनख्वाह से भरते हैं, ताकि बिजली कनेक्शन न कटे और बच्चों को गरमी में न बैठना पड़े।
उसी जिले के विक्रमगढ़ में एक और शिक्षक से मिला, जिन्होंने महामारी के दौरान सुनिश्चित किया कि उस गांव के स्कूल के बच्चों की पढ़ाई एक दिन भी न रुके। मध्यप्रदेश में भोपाल में कुछ विद्यालयों के प्रबंधन, प्रधानाध्यापकों, शिक्षकों और अभिभावकों से मिला, जो बेहतरीन सुझावों के साथ स्कूलों को खोलने की तैयारी में जुटे थे। हरियाणा के गुरुग्राम के स्कूलों के एक संगठन के साथ अभिभावकों की स्कूल खुलने से सम्बंधित शंकाओं को कैसे दूर किया जाए, इस पर चर्चा की।
कोविड-19 महामारी बच्चों की शिक्षा में पिछले 100 वर्षों में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उभरी है। इसके दीर्घकालीन प्रभाव समझने में अभी समय लगेगा। अच्छी बात यह है कि देशभर में स्कूल कमोबेश खुल गए हैं। साथ ही, हाल ही में जारी यूनेस्को, यूनिसेफ और विश्व बैंक की संयुक्त रिपोर्ट ‘स्टेट ऑफ ग्लोबल एजुकेशन क्राइसिस : ए पाथ टु रिकवरी’ के अनुसार महामारी के दौरान दुनिया के देशों में स्कूल औसत 224 दिन या साढ़े सात महीनों के लिए बंद रहे।
लेकिन भारत के राज्यों में स्कूल लगभग दुगुने समय यानी 510 से 570 दिन या करीब सत्रह से उन्नीस महीनों के लिए बंद रहे। पहली बात, स्कूल खुलने का मतलब यह नहीं है कि सभी बच्चे स्कूल आने लगे हैं। हर स्कूल, हर जिले, हर राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई भी बच्चा छूट न जाए, स्कूलों में नामांकन प्रक्रिया को संचालित करना होगा। खास तौर से गरीब, पिछड़े, ग्रामीण, शहरी झुग्गी झोपड़ी में रहने वाले सभी बच्चों और लड़कियों के नामांकन पर ध्यान देना होगा।
उन सभी बच्चों, जो नर्सरी या पहली और दूसरी कक्षाओं में भर्ती हो रहे हैं, पर खास ध्यान देने की जरूरत होगी। दूसरी बात, ‘पढ़ाई के नुकसान की भरपाई’ यानी ‘लर्निंग रिकवरी’ हर राज्य सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। बच्चों के सीखने के स्तर का आकलन करने की भी आवश्यकता है और लर्निंग रिकवरी के लिए रणनीति बनाने की भी जरूरत। पाठ्यक्रम को समेकित करने और पढ़ाने के समय को बढ़ाने पर भी विचार करने का समय है।
शिक्षकों को भी बच्चों के सीखने के स्तर और जरूरतों को समायोजित करने के लिए सहयोग व प्रशिक्षण की आवश्यकता होगी। तीसरी बात, महामारी काे ‘रियर व्यू मिरर’ से देखते हुए चुनौतियों का आकलन करते हुए समाधान लागू करने का समय है। भारत में शिक्षा पर सरकारी खर्च जीडीपी का लगभग 3% है, जो निम्न और मध्यम आय वाले देशों के शिक्षा खर्च के औसत का लगभग आधा है।
सरकारों के लिए स्कूली शिक्षा में निवेश बढ़ाने का समय आ गया है। चौथी बात, हाल ही में जारी यूनेस्को, यूनिसेफ और विश्व बैंक की रिपोर्ट में बताया गया है कि महामारी की अवधि में बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियां दोगुनी हो गई हैं। स्कूली उम्र के बच्चों के लिए विशेष मानसिक स्वास्थ्य सत्र और परामर्श सत्र की जरूरत है।
राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य विभागों को मिलकर स्कूली स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ बच्चों के टीकाकरण जैसी नियमित सेवाओं को सुनिश्चित करने के लिए काम करना होगा। दिल्ली में पिछले दिनों 20 स्कूल स्वास्थ्य क्लीनिक खोले गए, लेकिन हर राज्य को ऐसा करने की जरूरत है।
हर स्कूल में हाथ धोने के लिए साबुन और पानी की सुविधाओं में सुधार किया जाए। पांचवी बात, अब मध्याह्न भोजन योजना (जिसे अब पीएम पोषण का नया नाम दिया गया है) को पूरी तरह फिर से शुरू किया जाना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि देश में कई ऐसे शिक्षक हैं, जिनसे मैं ठाणे, भोपाल या पालघर में मिला था।
एक महीने स्कूल बंद रहने पर बच्चों की सीखने की क्षमता दो महीने पीछे चली जाती है। इस लिहाज से भारत में बच्चों की पढ़ाई करीब तीन साल पीछे चली गई है। इसलिए अब जब स्कूल खुल रहे हैं तो हम ऐसे शुरुआत नहीं कर सकते, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)