स्पोर्ट्स ब्रा पर बवाल … विज्ञापन के बहाने स्त्री शरीर का खुलापन उठा रहा सवाल, जानें अंत:वस्त्र का पूरा हाल

  • 91% महिला धावक कठिन फिजिकल एक्टिविटी के समय स्पोर्ट्स ब्रा पहनती हैं।
  • खराब स्ट्रैप की वजह से सर्वाइकल नर्व्स पर भी बुरा असर पड़ता है।

कुछ दिन पहले ही इनरवेयर बनाने वाली एक कंपनी को स्पोर्ट्स ब्रा कैंपेन वापस लेना पड़ा। दरअसल, इस कैंपेन में महिलाओं के शरीर के ऊपरी हिस्से को नेकेड दिखाया गया था।

 

बवाल का हाल
फरवरी महीने में स्पोर्ट्स ब्रा बनाने वाली कंपनी एडिडास की ओर से कहा गया, “हमारा मानना है कि महिलाओं की हर शेप और साइज की ब्रेस्ट के लिए कंफर्ट जरूरी है। यही वजह है कि हमारे नए स्पोर्ट्स ब्रा रेंज में 43 स्टाइल की ब्रा है ताकि हर किसी को सही फिट आने वाली ब्रा मिल सके।”

नई रेंज के बारे में बताने के लिए चलाए जाने वाले इस प्रचार अभियान के लिए तैयार पोस्टर्स में महिलाओं के शरीर के उपरी हिस्सों को बिना कपड़ों का दिखाया गया। इस तरह के तीन पोस्टर चर्चा में रहे। पहले पोस्टर में करीब 20 महिलाओं के शरीर को दिखाया गया। दो अन्य पोस्टर्स में भी 60 से अधिक नेकेड बॉडी दिखाया।

इन पोस्टर्स को यूके की एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी (ASA) की ओर से बैन कर दिया गया। दरअसल, इस बारे में उनके पास करीब 24 शिकायतें आई थी। इन शिकायतों में कहा गया था कि इन विज्ञापनों में न्यूडिटी को अनावश्यक रूप से डाला गया। इसके साथ ही स्त्री को शरीर के कुछ अंगों तक सीमित कर वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया गया। इस बारे में स्पोर्ट्स ब्रा कंपनी का कहना था कि पोस्टर्स में इस्तेमाल होने वाली तस्वीरों में महिलाओं की पहचान छिपाने के लिए उनके चेहरे हटा दिए गए थे। विज्ञापन को बैन करने के पीछे ASA की दलील थी कि हमारी ओर से इस बात पर विचार नहीं किया गया कि महिलाओं का इस तरीके से दिखाया जाना कामोत्तेजक है या नहीं लेकिन महिलाओं के ब्रेस्ट को दिखाया जाना न्यूडिटी माना जाएगा।

द हांगकांग पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी के शोध में यह भी पाया गया कि 100 में करीब 70 महिलाएं गलत साइज की ब्रा पहनती है। ब्रा की टाइट इलास्टिक बैंड की वजह से महिलाओं के स्टर्नम (चेस्ट की टी-शेप बोन) पर बुरा असर पड़ता है। शोध बताते हैं कि यह महिलाओं के लिम्फैटिक सिस्टम पर भी बुरा असर डालता है, इसकी वजह से रेडनेस, दर्द और स्तन कैंसर होने की आशंका होती है।

ब्रेज़ियर से ब्रा तक की कहानी
स्टडी के अनुसार साल 1900 में कोर्सेट के साथ ही ब्रा की जरूरत महसूस की गई। महिलाओं के ब्रेस्ट को सपोर्ट देने के लिए इसे जरूरी समझा गया। इसके बाद चोली की शक्ल में स्मॉल साइज का ब्रेसियर बनाया गया। शुरुआत में इसे ब्रेज़ियर कहा गया लेकिन 1920 के बाद इसका शॉर्ट नाम ब्रा पॉपुलर हुआ। एक सर्वे में शामिल 42% लोगों ने माना कि ब्रा खरीदने के दौरान वे दो बातों का विशेष ख्याल रखते हैं-फिटिंग और कंर्फट।

ताईवान हॉस्पिटल में हुए एक स्टडी में पाया गया कि कई महिलाओं को गर्मी और पसीने के कारण ब्रा के हुक और आईज के हिस्से में स्किन इंफ्लामेशन होता है। मोटे हुक्स की रगड़ से से त्वचा छिल जाती है।

गलत साइज का ब्रा पहनने से होने वाली दिक्कतें
द हांगकांग पॉलिटेक्निक यूनिवर्सिटी के शोध में यह भी पाया गया कि टाइट ब्रा स्ट्रैप की वजह से सिर दर्द की परेशानी भी देखी गई है। यह नर्व्स डैमेज की वजह भी बन जाती है। खराब स्ट्रैप की वजह से सर्वाइकल नर्व्स पर भी बुरा असर पड़ता है।

साल 2012 में हुए लंदन मैराथन में ब्रेस्ट सपोर्ट और स्पोर्ट्स ब्रा को लेकर एक जांच की गई। महिला धावकों पर हुए इस पड़ताल में कई चौंकाने वाले खुलासे हुए जैसे 91% महिला धावकों ने माना कि कठिन फिजिकल एक्टिविटी के समय वे स्पोर्ट्स ब्रा पहनती हैं। इसमें 86% ने स्पोर्ट्स ब्रा को बेहद जरूरी बताया।

लंदन मैराथन में हुई स्टडी में महिला धावकों ने यह स्वीकारा कि फिजिकल एक्टिविटी के दौरान लार्जर ब्रेस्ट (डी कप) की रनर्स स्पोर्ट्स ब्रा पहनना बेहद जरूरी समझती हैं। वहीं इस स्टडी में शामिल करीब 33% खिलाड़ियों ने माना कि वे ट्रेनिंग के दौरान ब्रा नहीं पहनती है।

सवाल के घेरे में मानव मन या विज्ञापन
मनस्थली वेलनेस क्लिनिक की फाउंडर डॉ. ज्योति कपूर के अनुसार, ‘मुझे नहीं लगता है कि महिलाओं या पुरुषों के इनरवेयर के विज्ञापनों में उनके शरीर को गलत तरीके से दिखाया जाता है। उत्पाद के बारे में बताने के लिए उसके उपयोगों को बताना जरूरी है। विज्ञापन को सूझबूझ के साथ बनाया जाए, तो यह भद्दे नहीं दिखते।”
डॉ. ज्योति कहती हैं कि खूबसूरत होने की वजह से महिलाएं लोगों का ध्यान आसानी से अपनी ओर खींच लेती है। महिलाओं की वजह से फ्रिज, टीवी का विज्ञापन भी ज्यादा आकर्षक दिखने लगता है इसलिए एड फिल्मों में पुरुष या महिला मॉडल का होना गलत नहीं माना जाएगा। है
जहां तक महिलाओं को वस्तु की तरह दिखाए जाने का सवाल है, तो इसका पूरा दोष विज्ञापनाें पर नहीं डाला जा सकता है। इसके पीछे समाज का दृष्टिकोण होता है। महिलाओं के बारे में सोच, उनके स्वरूप को देखने का नजरिया घर से शुरू होता है। वहां सुधार की जरूरत है।

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