औरत का सबसे बड़ा फर्ज लड़के पैदा करना और पाल-पोसकर उसे मर्द बनाना है, जो मूंछों के साथ भौंहों पर भी ताव दे

दुनियाभर की झांय-झमक के बीच कुछ ही रोज पहले एक प्यारी-सी तस्वीर आई, जिसमें करीना कपूर अपने बेटे जेह के साथ नजर आ रही हैं। पिक्चर किसी शूट की होगी, जहां दो जन एक्ट्रेस के मेकअप और बाल संवराई में जुटे हैं। तीसरा शख्स मुस्तैदी से खड़ा है कि इशारा मिले और तपाक से चांद तोड़ लाए। सामने ही बेबी-चेयर पर जेह बैठे हैं, जिन्हें देखकर करीना लाड़भरा मुंह बिचका रही हैं।

तस्वीर के इंस्टाग्राम पर आने के साथ ही कविताकार भड़भड़ा के एक्टिव हो गए। गीले गमछे को सिर पर डाले, देसी अंदाज में तरबूज खाते हुए बेपनाह कशिश से लिखने लगे, ‘ देखिए जरा, इतनी बड़ी एक्ट्रेस भी बच्चे को किस कदर प्यार से संभालती है। आया-ताया के भरोसे नहीं छोड़ती, साथ ले जाती है। मां हो तो ऐसी!’ चहुंओर वाहवाहियां होने लगीं और इस तरह से सुपर-सुविधाओं के बीच करीना सुपर-मॉम बन गईं। मुल्क की हर वर्किंग-मॉम के लिए मिसाल।

इधर शर्म के समंदर में ऊब-डूब होती मैं उन दिनों को याद करती हूं, जब मुझे शहर के एक छोर से दूसरे शहर के छोर तक सफर करना होता। कुछ तेरह घंटों बाद लौटती तो डेढ़ साल की बच्ची किलकते हुए खेलने को बढ़ती। अब घर के दूसरे काम निपटाऊं या खेलूं! कई बार मैं भरभराकर रो देती।

मैं वर्किंग मॉम थी, लेकिन करीना की तरह बिटिया को दफ्तर ले जाने की गुंजाइश से कोसों चांद दूर। लौटने के बाद भी गुदगुदे कालीन पर पसरकर बेटी के साथ खेलने की बजाय रोटी-बोटी निपटाती। कम ही रातें थीं, जब मैं उसे कोई कहानी पूरी सुना सकी। कुल मिलाकर मैं सुपर-मॉम के नाम पर वो दाग थी, जिसे धोने के लिए दुनिया का महंगे से महंगा डिटर्जेंट नाकाफी था।

करीना की यशगाथा के बीच एक थकीहारी-सी न्यूज आती है, जिसमें अहमदाबाद के एक शौहर ने अपनी बीवी को बच्चे को ज्यादा दूध पिलाने के इल्जाम में घर से निकाल दिया। पति, छुट्टन की दुकान पर मुसाए जूते सिलने वाला कोई अपढ़ आदमी नहीं, बल्कि पॉश इलाके में रहता इंजीनियर था। उसे शक था कि बीवी कूढ़मगज है और अपनी लापरवाही में बच्चे को दूध पिला-पिलाकर मोटा बना रही है। इस पर पहले तो उसने पत्नी की धुनाई की, फिर झोंटा पकड़कर घर से बाहर कर दिया। बात अब थाने पहुंच चुकी है। हालांकि, इससे खास फर्क नहीं पड़ता।

हम फेफड़ों में ऑक्सीजन भरते हैं, इससे ज्यादा पुख्ता सच ये है कि मां बनना और तिसपर सुपर-मां बनना ही औरत का असल धर्म है। उसे लीडरी का शौक है- करे, खूब भाषणबाजियां करे, लेकिन बच्चा संभालने के बाद। साइंटिस्ट बनना है, बनती रहे, लेकिन बच्चे का करियर बनाने के बाद। लिखने-पढ़ने का शौक है- अजी, छप्पन किताबें लिख मारे, लेकिन बर्तन-भाड़ा साफ करने के बाद। दुनिया में लाख अलगाव हों, लेकिन औरत के मामले में सबका राग एक ही है।

सत्तर के शुरुआत की बात है, जब तरल आंखों और हीरे-सी हंसी वाली युवती पेट्रिशिया श्रोडर राजनीति में आईं। डेमोक्रेटिक पार्टी की ये लीडर कोलोराडो की पहली महिला प्रतिनिधि चुनी गईं। तब साथी पुरुष नेताओं ने तालियां नहीं बजाईं, बल्कि पेट्रिशिया को ‘लिटिल पेट्सी’ नाम से पुकारा। प्यार की वो पुचकार, जो घरेलू बिल्ली के लिए होती है।

संसद के गलियारे में पेट्रिशिया को घेरकर मर्द सवाल करते थे- राजनीति पर नहीं, बल्कि घर-बार पर। वो पूछते कि जब वे संसद में होती हैं, तो बच्चों को कौन संभालता है। या फिर उनके इतने बिजी रहने पर उनके पति कहीं भटक तो नहीं जाएंगे!’

एक रोज किसी ने पूछा- छोटे बच्चों की मां होकर भी वो नेता कैसे बन सकती हैं! सवाल मासूम था। पेट्रिशिया ने भी उतना ही मासूम जवाब दिया, ‘मेरे पास दिमाग और यूटरस दोनों है। मैं दोनों का इस्तेमाल कर पाती हूं। इसलिए’।

कटार की धार से भी तीखी ये लीडर 11 बार चुनी गई, लेकिन अक्सर जनता के भले-बुरे से ज्यादा उसे घरेलू सवालों का जवाब देना होता। नब्बे के दशक में जब क्लिंटन सत्ता में आए और महिला लीडरों की संख्या बढ़ी, तब गुस्साए हुए एक सांसद ने पूछा- पेट्रिशिया, अब तो तुम खुश होगी, जब देश की संसद शॉपिंग म़ॉल में बदल रही है! वो गुस्सा था कि राजनीति जैसी बड़ी चीज में बच्चे संभालनेवालियां घुसपैठ कर गईं।

वक्त के साथ एक किस्म का ‘मॉमी-वॉर’ चल पड़ा। जैसे लीची के पेड़ का काम हर गर्मी मीठे-मीठे फल देना है, वैसे ही औरत का काम लड़के जनना और पाल-पोसकर उसे असल मर्द बनाना है। जो भी इस फर्ज से चूके, उसे ठूंठ पेड़ की तरह ही काटकर फेंक दो।

उसी दौर में साइंस फिक्शन से अमेरिका में धूम मचा चुके लेखक फिलिप विम्पी ने ‘जेनरेशन ऑफ वाइपर्स’ नाम से एक किताब लिखी। विम्पी आरोप लगाते हैं कि अमेरिकी मांएं कायर लड़के पैदा कर रही हैं। ऐसी मांओं को कोसने में उन्होंने पन्ने के पन्ने लिख रंगे। कोकाकोला-क्रांति से गुजर रहे अमेरिकी पुरुषों को किताब इतनी पसंद आई कि कुछ ही सालों के भीतर किताब के 20 संस्करण निकल गए।

यही वो वक्त था, जब मांओं के भीतर गिल्ट का बीज बोया गया। खूब खाद-पानी डालकर उसका पेड़ बनाया गया, ऐसे कि छाया भले साथ छोड़ दे, लेकिन गिल्ट औरत के साथ हरदम बना रहे। वो घर पर रहती है तो बेकार है। वो बाहर जाती है तो भी बेकार है। वो औरत है इसलिए बेकार है।

एक वेबसाइट है कोरा (Quora), जहां लोग सवाल पूछते हैं। यहां मांओं को लेकर भी कई सवाल दिखते हैं। एक बच्चा (जो मर्द भी है) पूछता है- क्या किसी ने ऐसी मां देखी, जिसमें मां के लक्षण न हों। इसपर कोलंबिया यूनिवर्सिटी में फाइन आर्ट्स का स्टूडेंट लिखता है, ‘हां, मेरी मां बिल्कुल यही थी। बचपन में मैं जब बीमार हुआ तो वो आधा देश नापकर अपनी मां के पास पहुंची। डर से नहीं, बल्कि इसलिए कि वो मुझे उसके पास पटककर आराम से अपना काम कर सके।

अब मेरी मां नब्बे की है। अल्जाइमर्स से याददाश्त खो चुकी। मैं उसे याद नहीं। वो गर्व से सबको बताती फिरती है- मैं काम में इतनी खोई थी कि मुझे बच्चे पैदा करने तक की फुरसत नहीं मिली।’

फाइन आर्ट पढ़ता ये स्टूडेंट उस तबके से है, जो जाफरानी-पुलाव डकारकर, चम्मच के टेढ़ा होने की शिकायत करता है। अहमदाबाद के उस शौहर की तरह, जो अपनी पत्नी को पीटता है क्योंकि बच्चा मोटा हो रहा है। इसी दौर में नौकरों की पांत सजाए हुए करीना कपूर वर्किंग मदर्स के लिए मिसाल बन जाती हैं।

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