देश के युवाओं में बहस की आदत बढ़ती जा रही है; मूल्य आधारित शिक्षा आज की जरूरत

घर हो या बाहर, युवाओं में बहस करने की प्रवृत्ति आज आम हो रही है। बहस व्यक्ति का स्वभाव बन चुका है। अपनी गलती नहीं मानना और अंत तक बहस करना मानो उपभोक्तावादी समाज में कुछ हासिल करने जैसा हो गया है। बोलने के अधिकार को बहस का रूप दे देना कहां तक सही है? तर्क अगर हो तो और बात है। क्योंकि तमाम विचारकों ने संप्रेषण में तर्क के महत्व को समझा है। लेकिन व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तर्क की जगह अगर बहस महत्वपूर्ण हो जाए और वो भी युवा शक्ति में, तो चिंता होती है।

यही बहस फिर अनादर का रूप ले लेती है। राहेल सी.एफ. सन और डेनियल टी.एल. शेक ने एक खोजपूर्ण अध्ययन के द्वारा इसे समझने की कोशिश की है। अध्ययन का उद्देश्य कक्षा में जूनियर सेकंडरी स्कूल के छात्र-दुर्व्यवहार की अवधारणाओं की जांच करना व शिक्षकों के दृष्टिकोण से आम, विघटनकारी और अस्वीकार्य छात्र-समस्या-व्यवहार की पहचान करना है। परिणामों से पता चला कि सबसे आम और विघटनकारी समस्या बीच में बोल पड़ना थी, उसके बाद फोकस का अभाव, दिवास्वप्न और आलस्य का नम्बर था।

सबसे अस्वीकार्य समस्या व्यवहार शिक्षकों की अवज्ञा थी, इसके बाद बारी-बारी से बात करना और मौखिक आक्रामकता थी। यहां यह समझना जरूरी है कि आलस्य, अनादर और मौखिक आक्रामकता आज एक तरह से समाज को घेर चुके हैं। कई अध्ययन छात्रों पर अकादमिक शिथिलता के नकारात्मक प्रभाव को दर्शाते हैं। ए. बिनेट पहले शोधकर्ताओं में से एक थे, जिन्होंने इन धारणाओं को अलग करने का प्रयास किया।

उन्होंने आलस्य को एक निश्चित जन्मजात मानवीय गुण माना। स्थितिजन्य व्यवहार का रूप, जो निश्चित परिस्थितियों में प्रकट हुआ। वहीं अनादर का भाव गिरते जीवन मूल्यों की ओर संकेत है। जब हम किसी का अनादर करते हैं तो उस व्यक्ति को ही नहीं, उसके व्यक्तित्व को भी नकारते हैं। और इसका तात्पर्य उस व्यक्ति के गुणों को नकारना, उससे जलना और हमेशा तुलनात्मक भाव पैदा करना है। तो क्या हम यह मानें कि बहस की बढ़ती आदत या मौखिक आक्रामकता का सीधा संबंध अनादर से है?

अगर ऐसा है तो हमें हर स्तर पर यह कोशिश करनी चाहिए कि छात्रों में तर्क के भाव संप्रेषित हों और बहस की गुंजाइश न के बराबर रहे। तर्क में हम अपनी बात तथ्यों के साथ रखते हैं लेकिन बहस करते वक्त व्यक्ति पूर्वग्रहों का शिकार होकर अनाप-शनाप बोल बैठता है। हमें सोचने की आवश्यकता है कि क्या आज की शिक्षा हमें तथ्यपूर्ण तर्क के लिए प्रेरित करती है? क्या आज की शिक्षा आलस्य और आक्रामकता से दूर रहने की प्रेरणा देती है?

क्या पढ़े-लिखे लोग जीवन-मूल्यों के महत्व को समझते हैं और अपने स्वधर्म के प्रति प्रतिबद्ध हैं? क्या बोलना सिर्फ अधिकार है या कर्तव्य भी? इसलिए जरूरी है कि मूल्य आधारित शिक्षा को तरजीह दी जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पाठ्यक्रम में नैतिक तर्क, पारंपरिक और बुनियादी मूल्यों को शामिल करने का प्रावधान करती है। पांच मानवीय मूल्य सभी धर्मों का अभिन्न अंग हैं- सत्य, शांति, अहिंसा, प्रेम, धार्मिक आचरण।

मूल्यविहीन कर्मों को महात्मा गांधी ने पाप माना है। सात सामाजिक पापों का उल्लेख महात्मा गांधी ने यंग इंडिया, 1925 में किया था। वे थे- सिद्धांतों के बिना राजनीति, बिना काम के दौलत, विवेक के बिना अवकाश, चरित्र के बिना ज्ञान, चरित्र के बिना वाणिज्य, मानवता के बिना विज्ञान, बिना त्याग के पूजा। आज हमारी शिक्षा बहुत हद तक कौशल-केंद्रित हो गई है और किसी भी विकासशील मुल्क के लिए यह सही भी है।

लेकिन आखिर शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य क्या है? क्या कौशल ही सब कुछ है? फिर सामाजिक सहभागिता, प्रेम, आदर, शांतिपूर्ण व्यवहार, इंसानियत के प्रश्न कहीं गौण तो नहीं हो जाएंगे? नई शिक्षा नीति का जीवन-मूल्यों पर फोकस युवाओं को आदर और तर्क से जोड़ेगा और तथ्यविहीन बहस की संस्कृति से दूर रखेगा। बहस, अनादर और आलस्य की जगह तथ्यपूर्ण तर्क, आदर और ऊर्जा जीवन की दिनचर्या बनेंगे।

क्या हम यह मानें कि बहस की बढ़ती आदत का संबंध अनादर से है? जब हम तर्क करते हैं तो अपनी बात तथ्यों के साथ रखते हैं लेकिन बहस करते वक्त तो व्यक्ति पूर्वग्रहों का शिकार होकर अनाप-शनाप बोल बैठता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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