भारत में 80 करोड़ लोग गरीब और कुपोषित हैं, उनकी खाद्य सुरक्षा हमारी प्राथमिकता

एक ऐसे समय में, जब यूएन महासचिव अंतोनियो गुटेर्रेस चेतावनी दे रहे हैं कि 43 देशों के लगभग 5 करोड़ लोग भुखमरी से महज एक कदम दूर हैं, तब गेहूं निर्यात पर भारत की सशर्त रोक की बहुत आलोचना की जा रही है। रोक की घोषणा तब की गई है, जब दुनिया के देश अपने खाद्य भंडार के लिए जितना सम्भव हो, उतना अनाज जुटाने की कोशिशों में लगे हैं। जी-7 देशों ने भारत के फैसले पर निराशा जताई है।

भारतीय अर्थशास्त्री भी अमीर देशों की भाषा बोल रहे हैं। बीते अनेक दशकों से विश्व बैंक के प्रभाव में भारतीय अर्थशास्त्री हमारे खाद्य अधिग्रहण तंत्र की आलोचना करते आ रहे हैं। जबकि भारत साल-दर-साल आवश्यकता से अधिक गेहूं का उत्पादन करता आया है। अब उन्होंने यू-टर्न ले लिया है और वे कह रहे हैं किसानों को और गेहूं उपजाना चाहिए, ताकि हम निर्यात कर सकें। इसी से भारत को अंतरराष्ट्रीय गेहूं व्यापार में स्थायी जगह मिल सकेगी।

रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण खाली जगह बन चुकी है। इससे पहले कि हम समझें कि गेहूं के निर्यात पर रोक क्यों जरूरी थी, यह देख लेना जरूरी है कि आज दुनिया के अमीर देश जिन मानवीय जिम्मेदारियों का हवाला देकर भारत की मलामत कर रहे हैं, वे कितने खोखले हैं। भारत का गेहूं निर्यात टारगेट एक या सवा करोड़ टन से ज्यादा नहीं था। दुनिया को जितने खाद्य भंडार की जरूरत है, उसकी इससे पूर्ति नहीं होने वाली थी।

फिर भी अगर जी-7 देशों को गरीबों की इतनी ही चिंता है तो वे इथेनॉल और बायो-डीजल के निर्माण के लिए अनाज और ताड़ के तेल की सप्लाई में 50 प्रतिशत कटौती करके भुखमरी की समस्या को आसानी से हल कर सकते हैं। न्यू साइंटिस्ट मैगजीन का आकलन है कि आज अमेरिका 9 करोड़ टन अनाज का इस्तेमाल इथेनॉल के निर्माण में कर रहा है। वहीं यूरोपियन यूनियन 1.2 करोड़ टन गेहूं और मक्का से इथेनॉल बना रही है।

लेकिन अमेरिका में बिकने वाले ईंधन में इथेनॉल का योगदान महज 6 प्रतिशत है। अगर वे इसके बजाय भूखों को अनाज देंगे तो उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन दुनिया की बड़ी आबादी के लिए यह मदद प्राणरक्षक साबित हो सकेगी। अब भारत की बात करते हैं। फरवरी में भारत रिकॉर्डतोड़ गेहूं पैदावार की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा था। 11.13 करोड़ टन उत्पादन की आशा थी। लेकिन मार्च की शुरुआत में अचानक आई हीट-वेव ने उत्तर भारत के गेहूं उत्पादक क्षेत्रों को गिरफ्त में ले लिया और उत्पादन का अनुमान गिरकर 10.6 करोड़ टन हो गया।

अकेले पंजाब में प्रति एकड़ पांच क्विंटल उत्पादकता घटी, जिससे किसानों को 7200 करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ। इसी दौरान रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध चल रहा था और भारत के निजी व्यापारी इससे निर्मित होने वाली निर्यात की सम्भावनाओं को देखते हुए अति उत्साहित हो गए थे। ऐसा लग रहा था कि भारत दुनिया का अन्नदाता साबित होगा। कुछ कम्पनियों ने 2.1 करोड़ टन तक निर्यात की सम्भावना जताई।

सरकार ने भी रुचि दिखाई और कुछ देशों में अपने व्यावसायिक प्रतिनिधिमंडल भेजे। फिर अचानक निर्यात पर रोक का निर्णय ले लिया गया। लेकिन यह सशर्त रोक है और सरकारों की आपसी समझ के आधार पर निर्यात के लिए इसमें गुंजाइश शेष है। खुद भारत में 80 करोड़ लोग ऐसे हैं, जो गरीब और कुपोषित हैं और उनकी खाद्य सुरक्षा सरकार की पहली प्राथमिकता है। वैसे भी ग्लोबल क्लाइमेट स्टडीज की रिपोर्ट बताती है कि एक्स्ट्रीम हीट-वेव की घटनाएं अब निरंतर होती रहेंगी और देश को सतर्क रहने की जरूरत है।

हम 2005-06 वाली गलती नहीं दोहरा सकते, जब निजी व्यापारियों को किसानों से सीधे गेहूं खरीदने की इजाजत दे दी गई थी और खाद्य सुरक्षा की सप्लाई में गम्भीर खाई निर्मित हो गई थी। नतीजतन हमें 70.1 लाख टन अनाज का आयात करना पड़ा था। कल हमें अनाज के लिए याचना नहीं करनी पड़े, इसलिए आज उसे सहेज लेने में ही बुद्धिमानी है।

अनाज से बायो फ्यूल बनाकर कारें दौड़ाना करोड़ों लोगों की भुखमरी से ज्यादा जरूरी नहीं हो सकता। भारत को दोष देने के बजाय जी-7 देशों की यह नैतिक जिम्मेदारी पहले है कि वे गरीब देशों के भूखों का ख्याल रखें।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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