…जब जज से लड़ गए कमलनाथ ….कभी दिग्विजय से चुनाव हारे थे शिवराज, जानिए क्यों डिप्रेशन में आ गए थे सिंधिया
मध्यप्रदेश में अभी पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव हो रहे हैं। चुनावी गहमागहमी के बीच हम देश के दिल के सियासी दिग्गजों की कुछ रोचक और अनकही बातें बताने जा रहे हैं, जिसके बूते इन्होंने राजनीति में दम दिखाया और अपने आपको स्थापित किया। CM शिवराज सिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, मध्यप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ और पूर्व CM दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त हैं, जो नेशनल लेवल से लेकर एमपी की राजनीति का पर्याय बन चुके हैं। आइए जानते हैं, इनसे जुड़ी कुछ रोचक बातें।
अर्जुन सिंह की दूसरी पारी का कार्यकाल सिर्फ एक दिन
सिर्फ एक दिन के मुख्यमंत्री। सुनने में भले ही अटपटा लगे, लेकिन यह सच है। बात 11 मार्च 1985 की है। इस दिन अर्जुन सिंह ने दूसरी बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी। इसके अगले ही दिन यानी 12 मार्च को उन्हें पंजाब का गवर्नर बना दिया गया। जिसके चलते उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। और सीएम के रूप में उनकी दूसरी पारी का कार्यकाल केवल एक ही दिन रहा। उनकी जगह मोतीलाल वोरा CM बने। वोरा 1985 से 1988 तक CM रहे। 1988 में अर्जुन सिंह फिर से CM बनकर दिसंबर 1989 तक रहे। अर्जुन सिंह इससे पहले पूरे 5 साल (1980 से 1985) MP के CM रह चुके थे।
मध्यप्रदेश में सबसे कम समय तक CM रहने वालों में राजा नरेशचंद्र सिंह (12 दिन) और भगवंत राव मंडलोई (21 दिन) का नाम शामिल है। राजा नरेशचंद्र सिंह 13 मार्च 1967 को CM बने। 25 मार्च 1967 को उन्होंने इस्तीफा दे दिया। भगवंत राव मंडलोई 9 जनवरी 1957 को राज्य के CM बने और 25 जनवरी 1957 को उनका भी इस्तीफा हो गया। मध्यप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल सिर्फ 60 दिन मुख्यमंत्री रह सके थे। 1 नवंबर 1956 को मध्यप्रदेश राज्य की स्थापना के बाद से अब तक यहां 18 मुख्यमंत्री रह चुके हैं।
… नौ महीने की मुख्यमंत्री रह सकीं उमा भारती
एमपी में दिग्विजय सिंह के 10 साल के शासन को उखाड़ फेंकने वाली उमा भारती महज 9 महीने ही मुख्यमंत्री रह सकी। कर्नाटक की हुबली की अदालत से 10 साल पुराने एक मामले में वारंट जारी होने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उन्होंने अपनी जगह बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री बनवाया। गौर ने 2004 में CM पद की शपथ ली, लेकिन इससे पहले उन्हें एक और शपथ लेना पड़ी। उमा भारती ने उन्हें गंगाजल हाथ में रखकर कसम दिलाई थी कि जब मैं कहूं तब CM की कुर्सी छोड़ देना। कोर्ट कचहरी के मामले से निपटने के बाद उमा जब लौटीं और गौर को कसम याद दिलाकर इस्तीफा मांगा तो गौर ने साफ मना कर दिया।
दिग्विजय सिंह के सामने हार गए थे शिवराज सिंह
शिवराज सिंह चौहान वैसे तो राजनीति के रण में अजेय योद्धा रहे हैं, लेकिन वे एक बार दिग्विजय सिंह से चुनाव हार गए। तब वे स्टेट की राजनीति में ज्यादा चर्चित नहीं थे। दिग्विजय उस समय मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में दो पारी खेल चुके थे। 2003 के विधानसभा चुनाव में दिग्विजय के शासन को उखाड़ फेंकने का जिम्मा तो BJP ने उमा भारती को दिया था। लेकिन दिग्विजय को उनके ही गढ़ राघौगढ़ सीट में चुनौती देने के लिए शिवराज सिंह को उतारा था। शिवराज सिंह इस चुनाव में 21,164 वोटों से हार गए। उन्हें 37069 वोट मिले थे। दिग्विजय सिंह को 58233 वोट मिले थे।
अपने समर्थक से हार के बाद डिप्रेशन में आ गए थे ज्योतिरादित्य सिंधिया
साल 2018 में कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के चेहरे को सामने रखकर MP विधानसभा चुनाव लड़ा। कांग्रेस की सरकार बनी, लेकिन सिंधिया CM नहीं बन सके। ये उनके लिए पहला बड़ा झटका था, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में गुना सीट से हार ने उन्हें इससे भी बड़ा झटका दिया। जब वह कभी अपने समर्थक रहे केपी यादव से चुनाव हार गए। एक तरफ अपनी ही पार्टी में उपेक्षा और दूसरी ओर अपने गढ़ में मात। बताया जाता है कि इससे सिंधिया तनाव में आ गए। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने दो दिन तक खाना नहीं खाया। आखिरकार 2020 में उन्होंने पाला बदलकर BJP जॉइन कर ली।
तीसरी हार सबको याद है, दूसरी बार कैसे जीतकर CM बने दिग्विजय, उसकी वजह
MP की ऊबड़-खाबड़ सड़कें, अंधेरे में डूबा प्रदेश, कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी कल्चर… और भी कई ऐसी वजह थी, जिसने दिग्विजय सिंह को मिस्टर बंटाधार का तमगा दिया और 2003 के चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हार गई। ये तो सभी को याद है। लेकिन, 1993 में पहली बार मुख्यमंत्री बनने के बाद 1998 में दिग्विजय सिंह के दोबारा मुख्यमंत्री क्यों चुने गए? इसके पीछे उनका कुशल राजनीतिक नेतृत्व और चुनावी प्रबंध था।
दिग्विजय सिंह जब पहली बार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने विधायकों को साधा। कार्यकर्ताओं के काम किए। कहा जाता है कि वो एक बार किसी का चेहरा देख लें तो भूलते नहीं। कार्यकर्ता उनकी इसी कला के कायल हैं। दिग्विजय शासन में ही MP में पंचायती राज लागू हुआ। 52 हजार ग्राम सभाओं का गठन किया। सत्ता कांग्रेस की थी, जाहिर सी बात है पार्टी कार्यकर्ताओं को मौके मिले। कार्यकर्ताओं की मेहनत से दिग्विजय को दोबारा CM की कुर्सी मिली।
दिग्विजय सिंह को समर्थक दिग्गी राजा बुलाते हैं। लोग इस नाम को उनके राघौगढ़ राजघराने से जुड़े होने का कारण मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। दिग्विजय को ये नाम किसने दिया? उन्होंने खुद एक इंटरव्यू में ये बताया था। दिग्विजय जब अर्जुन सिंह सरकार में मंत्री थे, तब पत्रकार आरके करंजिया भोपाल आए थे। डिनर पार्टी में दिग्विजय सिंह से उनकी मुलाकात हुई। दिग्विजय के साथ कांग्रेस नेता बालकवि बैरागी भी थे। करंजिया दिग्विजय का नाम लेने में अटक रहे थे। उन्होंने दिग्विजय सिंह से कहा- आपका नाम बड़ा है, छोटा नाम नहीं है क्या? दिग्विजय जवाब देते, इससे पहले बाल कवि बैरागी बोल पड़े- ये ‘दिग्गी राजा’ हैं।
दो नाव पर रहा सवार… सिंधिया राजपरिवार
सिंधिया राजघराने ने दो नाव में पैर रखकर सियासत की। मां विजयाराजे सिंधिया जनसंघ की संस्थापक सदस्य रहीं, तो बेटे माधवराव कांग्रेस में रहे। कांग्रेस में लंबी राजनीति पारी खेलने वाले विजयाराजे के पोते और माधवराव के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया BJP में चले गए। खुद विजयाराजे सिंधिया ने 1957 में कांग्रेस से राजनीतिक पारी शुरू की। गुना लोकसभा सीट से सांसद बनी। 10 साल कांग्रेस की राजनीति करने के बाद कुछ मुद्दों पर वह कांग्रेस से नाराज हो गईं और 1967 में कांग्रेस छोड़ जनसंघ की संस्थापक सदस्य बनी।
1971 में उन्होंने बेटे माधवराव सिंधिया को जनसंघ के टिकट पर गुना से चुनाव लड़वाया। माधवराव सिंधिया को जनसंघ की राजनीति नहीं भायी। 1977 में उन्होंने जनसंघ छोड़कर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते भी। इस चुनाव में कांग्रेस ने कैंडिडेट नहीं उतारकर उन्हें अपना समर्थन दिया। बेटे के इस फैसले से राजमाता विजयाराजे खफा हो गईं। दोनों की बीच दूरियां बढ़ती चली गई।
माधवराव ने बाद में कांग्रेस जॉइन कर ली। एक समय ऐसा आया, जब कांग्रेस से उनकी भी नाराजगी बढ़ गई। 1995 में उन्होंने कांग्रेस का दामन छोड़कर नई पार्टी बनाई। 1996 में वह अपनी नई पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़े और जीते। बाद में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।
कहा जाता है कि माधवराव और उनकी मां विजयाराजे सिंधिया के बीच संबंध बेहद खराब थे। राजमाता ने 1985 में अपने हाथ से लिखी वसीयत में बेटे माधवराव को उनके अंतिम संस्कार में शामिल होने से भी इनकार कर दिया था। हालांकि, 2001 में उनके निधन के बाद बेटे माधवराव ने ही उनकी चिता को मुखाग्नि दी थी। ये भी कहा जाता है कि विजयाराजे सिंधिया का आरोप था कि इमरजेंसी के दौरान उनके बेटे के सामने पुलिस ने उन्हें लाठियां मारी और गिरफ्तार करवाया।
ऐसे भी महापौर, लोकसभा हारे तो महापौर पद से दे दिया इस्तीफा
बात 2004 की है। देश में शाइनिंग इंडिया के नारे के बीच लोकसभा चुनाव हो रहे थे। जबलपुर लोकसभा चुनाव में BJP ने तब पहली बार जयश्री बनर्जी की बजाए राकेश सिंह को टिकट दिया था। सामने थे शहर के महापौर विश्वनाथ दुबे। जनता ने राकेश सिंह को चुना। महापौर विश्वनाथ दुबे ने इस हार को खुले मन से स्वीकार किया, लेकिन नैतिकता ऐसी कि महापौर पद से ये कहते हुए इस्तीफा दे दिया कि चुनाव में जनता ने मुझे नकार दिया है, ऐसे में पद पर रहने का कोई औचित्य नहीं। इसके बाद शेष कार्यकाल के लिए BJP के सदानंद गोडबोले महापौर बने।
विश्वनाथ दुबे की शख्सियत ऐसी थी कि महापौर रहते हुए उन्होंने नगर निगम के पैसों से कभी चाय तक नहीं पी। मानदेय से लेकर सरकारी गाड़ी और बंगला तक नहीं लिया। कहते थे- जब मेरे पास सबकुछ है, तो जनता का पैसा क्यों खर्च करें। उनके कार्यकाल में बनी मॉडल रोड जैसा आज तक कोई रोड जबलपुर में नहीं बन पाया।
ऐसे MP के नाथ बन गए कमलनाथ
2018 में जब कांग्रेस 15 साल का वनवास खत्म कर मध्यप्रदेश में सत्ता में लौटी तो इसकी वजह कमलनाथ की कुशल रणनीति थी। मूलत: बंगाली और कानपुर (UP) में जन्मे कमलनाथ गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों से साथ में हैं। संजय गांधी से गहरी दोस्ती थी। दोनों दून स्कूल (देहरादून) में साथ पढ़े। इंदिरा गांधी उन्हें तीसरा बेटा मानती थीं।
इमरजेंसी के बाद 1979 में देश में जनता पार्टी की सरकार बनी। संजय गांधी को एक मामले में कोर्ट ने तिहाड़ जेल भेज दिया। इंदिरा गांधी संजय की देखभाल और सुरक्षा को लेकर चिंतित थीं। कहा जाता है कि तब कमलनाथ ने जानबूझकर एक जज से लड़ाई लड़ी और जज ने उन्हें भी अवमानना के चलते सात दिन के लिए तिहाड़ भेज दिया।
1980 के लोकसभा चुनाव में कमलनाथ को कांग्रेस ने छिंदवाड़ा से उतारा। वह यहां से 9 बार सांसद चुने गए। सिर्फ 1997 में सुंदरलाल पटवा ने उन्हें हराया। धीरे-धीरे कमलनाथ का कद बढ़ता गया। केंद्र में कई अहम विभागों के मंत्री रहे। 26 अप्रैल 2018 को MP कांग्रेस के अध्यक्ष बने। मुख्यमंत्री बने, लेकिन सिंधिया के BJP में जाने से कुर्सी चली गई।
एक महीने का विधायक
बात 2008 की है। बालमुकुंद गौतम धार विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े। लेकिन भाजपा की नीना वर्मा से हार गए। हुआ यूं कि गौतम ने पहली मतगणना में दो मतों से सीट जीती। नीना को 50,505 और गौतम को 50,507 वोट मिले। नीना ने आपत्ति दर्ज कराई, तो री-काउंटिंग में जीत गई। ऐसे में गौतम ने उच्च न्यायालय में चुनाव प्रक्रिया को चुनौती दी। याचिका दायर में डाक मतों की गिनती में एक कदाचार थे। हाईकोर्ट की इंदौर बेंच ने गौतम के पक्ष में फैसला सुनाया और वर्मा के चुनाव अधिनियम के प्रावधानों का पालन नहीं करने के आधार पर वर्मा का चुनाव शून्य घोषित कर दिया। वर्मा ने गौतम के खिलाफ एक अभियोग याचिका दायर की, जिसे खंडपीठ ने खारिज कर दिया। न्यायालय द्वारा गौतम को निर्वाचित घोषित किया गया और 24 सितंबर 2013 को उन्होंने पद की शपथ ली। फैसला तब आया जब विधायक के कार्यकाल को सिर्फ एक महीने बचा था, यानी वे केवल एक महीने विधायक रह पाए। अगला चुनाव भी हार गए।