सत्ता के लिए लड़ने वालो! मुंबई, पुणे और नागपुर के अलावा भी एक महाराष्ट्र है!
चार दिन बीत चुके। एकनाथ शिंदे नई शिवसेना के नाथ बनने पर तुले हैं और ठाकरे परिवार सरकार की चिंता छोड़ पार्टी में अपना वजूद बचाने का संघर्ष कर रहा है।
शरद पवार अपने राजनीतिक जीवन का पूरा निचोड़ इस जाती हुई सरकार को बचाने में लगा रहे हैं। कांग्रेस के पास पाने को भी ज्यादा कुछ नहीं है और खोने की भी उसे कोई चिंता नहीं है। भाजपा इस पूरे तमाशे की सूत्रधार भी है और मूक दर्शक भी। सत्ता और सरकार के इस झगड़े में बेचारा महाराष्ट्र कहीं नहीं है। बेचारा महाराष्ट्र यानी मुंबई, पुणे, नागपुर और नासिक को छोड़कर जो पिछड़ा, दयनीय महाराष्ट्र है वो। सालों, दशकों बीत गए। इस निरीह महाराष्ट्र की किसी ने चिंता नहीं की। इस कोने से उस कोने तक चले जाइए। सड़कें बदहाल, खेत सूखे और हरियाली गायब!
सरकारें बदलतीं रहती हैं। विकास की बातें भी सब करते हैं, लेकिन विकास होता कहीं नहीं। बड़ी-बड़ी नदियां हैं इस प्रदेश में, लेकिन नहरें अब तक नहीं बन पाईं। कहने को नासिक के आसपास अंगूर, नागपुर में संतरे और खान देस यानी जलगांव-भुसावल की तरफ केले की खेती होती है। अच्छी पैदावार भी है, लेकिन नहरें होतीं तो पैदावार दुगनी होती। इनके अलावा पूरा महाराष्ट्र सूखा पड़ा है। उसके सूरज की किरणें धुआं फांक रही हैं। साये पिण्ड छुड़ाकर भाग रहे हैं। किसी नेता, मंत्री या मुख्यमंत्री को कोई चिंता नहीं है। वे सब मुंबई से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। उनके लिए तमाम हरियाली वहीं है। बाकी महाराष्ट्र से उनका क्या वास्ता? किसान और उनके खेत केवल आसमानी बारिश पर निर्भर हैं। सालों से झुनझुना दे रखा है। नहरें बनाने का। कई बांध बनाए जा रहे हैं, लेकिन आज भी सब के सब अधूरे हैं। शरद पवार हों, फडणवीस हों, उद्धव हों या पूर्व की कांग्रेस सरकारें, सब के सब केवल राजनीतिक रोटियां ही सेंकते रहे। पिछड़े, गरीब महाराष्ट्र की चिंता किसी ने नहीं की। अब जब पार्टी में भी अपना अस्तित्व बचता नहीं दिख रहा, तब ठाकरे जी को जिला प्रमुख याद आए, जिनका फोन तक उठाने की जहमत वे नहीं उठाते थे। प्रमुखों की बैठक में शुक्रवार को उन्होंने और उनके बेटे आदित्य ने कहा- सरकारें आती-जाती रहती हैं। जिन्हें पार्टी छोड़कर जाना हो जा सकता है। हम नया काडर खड़ा करना जानते हैं और कर भी लेंगे।
एक तरह से वे यह कहना चाहते हैं कि शिवसेना पर अभी भी हमारा ही हक है और वह हमारे पास ही रहेगी। रह भी सकती है, लेकिन उसके लिए या तो बाला साहेब जैसा प्रभाव चाहिए या रोज कार्यकर्ताओं से मिलने-जुलने, उनके दुख-सुख समझने की सहृदयता चाहिए। शायद ये दोनों ही मौजूदा नेतृत्व के पास न के बराबर है। ऐसे में नया काडर खड़ा भी कर लेंगे तो आखिर उसका हश्र वही होगा, जो आज हो रहा है।