यह साफ हो गया है कि जलवायु परिवर्तन महज एक पर्यावरण सम्बंधी समस्या नहीं रही
ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव अब एशियाई देशों में सामने आ रहे हैं। चाहे समय से पहले पड़ी गर्मी हो, एक के बाद एक समुद्री तूफान हों या फिर एकदम से हो रही बारिश के चलते आ रही बाढ़। यदि जलवायु परिवर्तन को समय रहते न रोका गया तो लाखों लोग भुखमरी, जलसंकट और बाढ़ जैसी विपदाओं के शिकार होंगे।
भारत को क्लाइमेट चेंज के दुष्प्रभावों को कम करने की दिशा में तेजी से काम करने के साथ ही उन प्रभावों के प्रति खुद को अनुकूल भी बनाना होगा। लेकिन हम बहुत पीछे चल रहे हैं। भारत इस साल असाधारण तपिश का गवाह बना। मार्च-अप्रैल 122 साल के इतिहास में सबसे गर्म दर्ज किए गए।
मई की शुरुआत में मानसून-पूर्व बारिश से लंबी अवधि की गर्मी का सिलसिला टूटा, मगर भीषण गर्मी ने जल्द वापसी की और 15 मई को ही दिल्ली के कुछ हिस्सों में अधिकतम तापमान 49 डिग्री तक पहुंच गया। इससे अनेक आर्थिक हिचकोले भी पैदा हुए, जिनमें गेहूं का निर्यात बंद होना और विकास संबंधी उम्मीदों पर कुठाराघात होना शामिल है।
साफ हो गया है कि जलवायु परिवर्तन महज पर्यावरणीय समस्या नहीं। वर्ल्ड वेदर एक्टिवेशन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन की वजह से वर्ष 2022 जैसी हीटवेव की आशंका 30 गुना बढ़ गई है। भारत में हीटवेव की जल्द आमद और उसका लंबे वक्त तक बने रहना बहुत दुर्लभ है और 100 साल में कहीं एक बार ऐसा होता है।
अगर वैश्विक तापमान में 2 डिग्री से ज्यादा वृद्धि हुई तो वर्ष 2022 जैसी तपिश की आशंका 2 गुना से लेकर 20 गुना तक बढ़ जाएगी और मौजूदा हीटवेव आधा से डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक ज्यादा गर्म हो जाएगी। ताप लहरों ने गेहूं की फसल को झुलसा दिया। भारत ने लगातार 5 वर्षों तक रिकॉर्ड उत्पादन के बाद इस बार पैदावार में गिरावट देखी।
हमने दुनिया का पेट भरने का वादा किया था लेकिन सारे इरादों पर पानी फिर गया। आंकड़े बताते हैं कि गेहूं की फसल में 20% की गिरावट आई है। मूडीज इन्वेस्टर सर्विस के मुताबिक भारत ने अपने अनुमानों में बदलाव करते हुए इस साल गेहूं के उत्पादन में 5.4% से 105 मिलियन टन की गिरावट की आशंका जताई है।
इसी कारण सरकार को गेहूं के निर्यात पर पाबंदी का ऐलान करना पड़ा, ताकि घरेलू बाजार में गेहूं की कमी न हो और दाम न बढ़ें। उद्योग क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि गेहूं निर्यात पर पाबंदी का कदम देश में गेहूं के दामों में बढ़ोतरी से पड़ने वाले दबाव को खत्म करने में भले मददगार हो, लेकिन इससे विकास को नुकसान पहुंचेगा।
इसके जरिए विश्व के दूसरे सबसे बड़े गेहूं उत्पादक देश भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध की वजह से वैश्विक बाजार में उत्पन्न हालात का फायदा उठाने का मौका गंवा दिया। एक शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया हुई है, जिसकी शुरुआत जलवायु परिवर्तन के कारण भीषण तपिश से हुई और अंत कोयले का इस्तेमाल बढ़ाने के निर्देशों से हुआ। इससे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन संबंधी लक्ष्यों को बचाना और मुश्किल हो गया।
गर्मी से बिजली की मांग अब तक के सर्वोच्च स्तर 207000 मेगावाट तक पहुंच गई। पीक पावर डिमांड की अवधि खिसककर दोपहर में हो गई। सरकार ने बिजली उत्पादन कंपनियों से कोयले का समयबद्ध आयात सुनिश्चित करने के निर्देश दिए। साथ ही चेतावनी भी दी कि अगर कंपनियों ने विदेशी कोयला नहीं खरीदा तो उनका घरेलू आवंटन घटा दिया जाएगा।
कोयला मंत्रालय ने मौजूदा कोयला खदानों से और कोयला निकालने के निर्देश दिए। यह कहा गया कि कोयले के समयबद्ध परिवहन के लिए रेल कोच और रेक उपलब्ध नहीं हैं। इसकी वजह से अनेक अवांछित प्रतिक्रियाएं हुई। इनमें नई खदानें खोलना और नई रेक के लिए मेगा टेंडर जारी करना शामिल है।
इससे कुछ दशकों का लॉक-इन पीरियड उत्पन्न होगा और भारत इसे झेलने की स्थिति में नहीं है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अगर भारत ने 2022 के अक्षय ऊर्जा संबंधी लक्ष्यों को हासिल किया होता तो बिजली संकट और उसके प्रभावों को टाला जा सकता था। स्पष्ट है कि ये किल्लतें एक-दूसरे से जुड़ी हैं!
एक शृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया हुई है, जिसकी शुरुआत भीषण तपिश से हुई और अंत कोयले का इस्तेमाल बढ़ाने के निर्देशों से हुआ। इससे स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन संबंधी लक्ष्यों को बचाना और मुश्किल हो गया है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)